ओवैसी भारतीय राजनीति के विलेन हैं या हीरो ?

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हमारे एक प्रोफेसर थे “पीके” सर, इंतेक़ाल हो गया अब उनका,उन्होंने ग्रेजुएशन फर्स्ट ईयर में एक बात बताई थी, मारके की बात थी बहुत “बच्चे ध्यान रखना कुछ भी निष्पक्ष नहीं होता है, आपको किसी न किसी का पक्ष लेना ही होगा”,बस इसी बात को ध्यान में रखते हुए असद्दुदीन ओवैसी की बात करना ज़रूरी है।

हैदराबाद लोकसभा से तीसरी बार सांसद, मजलिस इत्तेहादुल मुस्लिमीन के राष्ट्रीय अध्यक्ष “बैरिस्टर” असदुद्दीन ओवैसी ( Asaduddin Owasi) 2014 के बाद से मार्किट (मीडिया मार्किट) में छा चुके हैं, और आज तक बढ़ रहे हैं, बिहार, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र से लेकर कई अलग अलग राज्यों में अपना प्रेजेंस दर्ज करा रहे हैं और ये बता रहे हैं कि उन्हें इग्नोर नहीं किया जा सकता है।

लेकिन एक सवाल फिर उठता है कि जहां बंगाल में ममता बनर्जी पूरी भाजपा मशीनरी से लोहा ले रही थी और मुस्लिम प्लस बाकी वोटों पर मज़बूती से लड़ रही थी, उस पश्चिम बंगाल में ओवैसी साहब चुनाव लड़ने क्यों गए? अब आप कहेंगे “चुनाव लड़ना सभी का अधिकार है” तो साहब सवाल उठाना हमारा अधिकार है कि क्या वो भाजपा की मदद करने जाते हैं?

इन्हीं कुछ सवाल का जवाब ढूंढते हैं इस स्टोरी सीरीज़ में,जो कम से कम दो भाग में होगी, ओवैसी को लेकर अलग अलग लोगों से बात करते हुए ये कॉन्टेंट जमा किया है जो मैं यहां लिखुंगा, तो आइए शुरू करते हैं।

यू केन नॉट इग्नोर हिम….

मैं एक मीटिंग में बैठा था,जहां कांग्रेसी भी थे,बातों बातों में “ओवैसी साहब” का ज़िक्र आया, तभी एक “शर्मा जी” करके कांग्रेसी थे वो बोल उठे “देखो असद भाई, उस जैसा काबिल, वक्ता, पढा लिखा और तेज़ तर्रार नेता हमने आज तक नहीं देखा है, हम वोट न दें उसे लेकिन, बहुत काबिल है यार वो”

असदुद्दीन ओवैसी देश के उन गिने चुने नेताओं में शामिल हैं, जो अपने फैक्ट्स,स्टडी और आंकड़ों के मामलों में एक नम्बर पर रहते हैं, इस मामले में उनका हाथ पकड़ा जाना आसान नही है,टीवी डिबेट्स में और अक्सर “राम मंदिर” से जुड़ी डिबेट्स में वो अपने फेवरेट कपड़े शेरवानी,टोपी और हल्की सी दाढ़ी वाले चेहरे को शांत रखे जवाब देते हुए नज़र आते हैं।

ओवैसी असल मे जिस कद के (शारिरिक लम्बाई नहीं) नेता हैं वो हमेशा “राष्ट्रीय” चेहरा बने रहते हैं,अब इसी में बहुत बड़ा मसला है,वो मसला ये है कि जब जब वो टीवी पर, डिबेट्स में या स्टेज पर खड़े होकर अपने बोलने में मुसलमान कहते हैं तो दूसरे वालों को भी हिन्दू कहे जाने पर गलत कहा जाना मुनासिब नहीं रह जाता है।

मैंने जब इस मुद्दे पर मुस्लिम मुद्दे की जानकार और पिछले 20 साल से पत्रकारीता कर रहीं नाहिद फात्मा से बात की तो उन्होंने बहुत सधे हुए शब्दों में जवाब दिया की “देखिए दो बातें हैं पहली बात तो ये है कि असदुद्दीन ओवैसी या उनकी पार्टी चुनाव लड़ें कोई मसला नहीं है,दूसरी बात वो सिर्फ चुनाव ही लड़ने क्यों आना चाहते हैं? लोगों के दुख दर्द में वो कहां हैं?

आगे नाहिद जी कहती हैं कि “जिस सपा या बसपा और कांग्रेस को ये ओवैसी साहब कोसते हैं उनके नेता,विधायक और सांसद तक हर छोटी बड़ी बात में,परेशानी में,शादी में,गांव के गली के मोहल्ले में और फंक्शन तक में शामिल रहते हैं।

लेकिन औवेसी साहब हज़ारों किलोमीटर दूर खड़े होकर स्टेज से कहते हैं कि “मुसलमानों पर जुल्म हो रहा है उत्तर प्रदेश में वहां का मुसलमान जवाब देगा” अरे वो जवाब देगा या सवाल करेगा आपसे क्या मतलब है उसका, आप तो उनके बीच गए ही नहीं थे बस चुनाव लड़ने के लिए ही मुसलमान याद हैं आपको?”

उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ना बहस के लिए ज़रूरी है?

बिहार में 5 विधायक जिताकर मीम को अब हर जगह ज़मीन नज़र आ रही है, उसे ये लग रहा है अब बहुत आसानी से राजनीति की पिच पर बेटिंग हो सकती है,लेकिन क़रीबन 1100 किलोमीटर दूरी पर बैठ कर ओवैसी साहब को ये सब सिर्फ दिख आसान रहा है, सब कुछ इतना आसान है नहीं, क्यूंकि जो “बागी सीमांचल में मिल गए थे वो आखिर यूपी में कैसे मिल सकते हैं ये बड़ा सवाल है ।

अभी तक मिली जानकारी के मुताबिक मीम का प्लान क़रीबन 100 सीटों पर लड़ने का है, जिसमें से ज़्यादातर सीटें पश्चिमी यूपी की हो सकती हैं,अब सवाल ये उठता है कि किस पश्चिमी यूपी में अभी तक उनकी पार्टी का “क्षेत्रीय अध्यक्ष” नही है,बहुत से ज़िलों के अध्यक्ष तक नही हैं,और है भी तो उन्हें जानने वाले कम हैं।

इस तरह के क्षेत्र में ओवैसी साहब की पार्टी कैसे चुनाव लड़ेगी?
जिस तरह वो या उनकी पार्टी के नेता हर वक़्त “हम चुनाव लड़ते हैं और अपने बयानात में लिखते और बोलते हैं कि उन्हें पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बारे में क्या ये पता है कि जिस सीट पर 50 फीसदी जाट-मुस्लिम वोटर हैं वहां मुस्लिम विधायक या सासंद(क़ादिर राणा) तक बने हैं, या जहाँ जहाँ 50 फीसदी मुस्लिम आबादी है वहां से लोकसभा सांसद मुलायम सिंह और प्रो- रामगोपाल रहे हैं।

चलिये छोड़िए क्या मींम पार्टी के नेता कह रहे हैं कि हम मुसलमानों के हक़ की आवाज़ बुलंद करेंगे, क्या उन्हें नही पता है कि वेस्ट यूपी का अधिकतर मुस्लिम भी किसान है और उसका सबसे बड़ा मुद्दा ये है कि गन्ने की क़ीमत अदा नहीं हुई है, बिजली महंगी हो गई है और सिंचाई के लिए उसे पानी नहीं मिल पा रहा है,क्या इन बातों के बारे में उन्हें पता है? या क्यों ओवैसी साहब किसानों के मुद्दे पर बोलने के लिए गाज़ीपुर नहीं गए थे।

क्या चलेगा ये वाला दांव?

बिहार में जीत कर,बंगाल में हार कर यूपी में लड़ने आने वाले ओवैसी साहब को यहाँ से बहुत उम्मीदें हैं क्योंकि उनके हिसाब से उनका कोर वोट मुस्लिम- दलित यहां अच्छी संख्या में हैं,लेकिन सवाल ये है कि कैसे ये प्रयोग सफल होगा या हो सकता है?

इस पर राष्ट्रीय राजनीति पर नज़र रखने वाले पत्रकार और लेखक ज़ैगम मुर्तज़ा से बात की उन्होंने कहा कि “मेरा मानना ये है कि कोई भी पार्टी बनती है तो वो चुनाव लड़ने के लिए ही बनती है, लेकिन अहम ये है कि आप नेगेटिव पॉलिटिक्स कर रहे हैं या पॉजिटिव पॉलिटिक्स कर रहे हैं, अब ज़ाहिर है इनका अहम वोट कथित तौर पर मुस्लिम है तो इनका मुकाबला मुसलमान ही से होगा, क्योंकी ये भाजपा के लिए खतरा नही हैं,सेक्युलर पार्टीयों के लिए हैं”

“दूसरी बात ओवैसी की पार्टी एक ऑप्शन भी हैं, क्यूंकि ओवैसी जैसे लोग अगर न हो तो सेक्युलर पार्टियां मुस्लिमों पर शायद ध्यान भी न दें, और मुस्लिमों को इग्नोर करना शुरू कर दें उनके साथ रिप्रजेंटेशन का ही सवाल खड़ा हो जाये जिस तरह का माहौल आज कल चल रहा है, इसलिए ओवैसी की पार्टी एक राजनीतिक ऑप्शन है।

इस लेख का अगला हिस्सा अगली स्टोरी में लिखा जाएगा…