नज़रिया – राष्ट्रवाद सरकारों द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला एक राजनीतिक टूल है

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हम भारत के लोग भावना प्रधान देश के बाशिंदे हैं, जिसका फ़ायदा हमारे प्रचारमंत्री ने बख़ूबी उठाया है. और ऐसा सब कुछ करते समय उनकी मुख मुद्राएँ एवं भाव भंगिमाएँ उनके अन्दर मौजूद एक विलक्षण अभिनेता के दर्शन कराती रही हैं.
भावना से ओत प्रोत देश का देश प्रेमी नागरिक होने के नाते मेरे अंतर्मन में भी अनेकानेक भावनाएँ पल पल हिलोरे मारती रहती हैं, इन्हीं सब भावनाओं में से एक बेहद शक्तिशाली भावना मेरे अन्दर 2014 के आम चुनाव पूर्व शुरू हुए भाजपा के चुनावी प्रचार के दौरान जन्मी और आज तक अनवरत जारी मोदी जी पर केन्द्रित भाजपा के चुनावी प्रचार के दौरान पल्लवित एवं पोषित हुई कि मोदी जी में अभिनय या नाटक नौटंकी की अपार सम्भावनाएँ मौजूद हैं, मौजूदा भारतीय राजनीति के फ़लक पर मोदी जी की नौटंकी सम्राट के रूप में उपस्थिति देखते ही बनती है.
नाटक नौटंकी में इनका कोई सानी नहीं. चाहे फिर वो गांधी बनकर चरख़ा चलाने की नौटंकी हो या नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की पोशाक पहनने की नौटंकी, सी-प्लेन से प्रचार हो या ख़ुद को छप्पन इंची वीर घोषित करना, अपनी वयोवृद्ध माता जी को बैंक की क़तार में खड़ा करने का वाक़या हो या ख़ुद को नोटबंदी के पचास दिन बाद जनता द्वारा बीच चौराहे पर सज़ा मुक़र्रर करवाने की भावुक घोषणा ऐसी अनेकानेक नौटंकियों को मोदी जी ने अपने कार्यकाल के दौरान बख़ूबी अंजाम दिया है, इसी कड़ी में सबसे ताज़ा नौटंकी कुम्भ में सफ़ाईकर्मियों के पैर धो कर की जा रही है.
एक ही व्यक्ति के व्यक्तित्व के इतने सारे आयामों का गवाह बन कर एवं बीते चार- पाँच वर्षों से संचार के प्रत्येक माध्यम द्वारा मोदी जी को अवतार के रूप में स्थापित करने को लेकर किए जा रहे भरसक प्रयासों को मद्देनज़र रखते हुए मैंने भी यह मान लिया है कि मोदी जी वाक़ई में अवतार हैं,लेकिन मुझे यह मालूम है कि मोदी जी कलयुग के अवतार हैं. जिनका उदय जनता की भलाई के लिए नहीं अपितु विनाश के लिए हुआ है, जो आम जनता से नागरिक की पहचान छीन कर उसको प्रजा में तब्दील करने के अपने ख़तरनाक मंसूबों को अंजाम दे रहे हैं और प्रजा भी ऐसी वैसी नहीं बल्कि रोबोटिक प्रजा जिसको टीवी रिमोट के माध्यम से कण्ट्रोल किया जा सके.
मसलन एक चैनल ऑन हो तो प्रजा मोदी- मोदी चिल्लाने लगे, दूसरा ऑन हो तो भारत माता की जयकारों का कोलाहल हो, तीसरा ऑन हो तो पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे बुलन्द हों, चौथा ऑन हो तो नेहरु के चीथड़े उड़ने लगें आदि आदि.
ऐसी ही कई विशिष्ट धारणाओं के तहत प्रोपेगेंडा मीडिया के सूटेड बूटेड गुण्डे दिन रात पत्रकारिता की क़ब्र खोदते हुए हमारे आपके दिमाग़ों और विचारधाराओं को दूषित करने का खेल अपने आकाओं के इशारे पर बख़ूबी किए जा रहे हैं. इक्का दुक्का ही असल पत्रकार हैं जो इस खेल में शामिल नहीं हैं, जिसकी क़ीमत उनको गालियाँ और धमकियाँ सह कर चुकानी पड़ रही है. हालाँकि सोशल मीडिया में भरपूर तादाद में ऐसे लोग हैं, जो लगातार वाजिब सवाल उठा रहे हैं. लेकिन भयंकर राष्ट्रवाद के तीव्र एवं व्यापक शोरगुल में इनकी आवाज़ें भी बहुसंख्यक जनता तक पहुँचने से पहले ही कहीं गुम हो कर दम तोड़ देती हैं.
अँधेरा बहुत घना है लेकिन मेरा मानना है कि बहुसंख्यक जनता के शोषण पर आधारित व्यवस्था अनंतकाल तक क़ायम नहीं रह सकती इसलिए दिल में एक आस बरक़रार है कि कभी न कभी रौशन सहर की आमद ज़रूर होगी और इसके लिए हमसे जो बन पड़ेगा हम करते रहेंगे.
ठीक इसी वक़्त जब मैं यह लेख लिख रहा हूँ पूरा देश गर्व से अभिभूत हो कर राष्ट्रवाद के जश्न में डूबा हुआ है. लेकिन मुझे इस तरह के जश्नों से परहेज़ है क्योंकि मुझे पता है कि राष्ट्रवाद के तीव्र एवं व्यापक कोलाहल में मेरे देश के भूखे, नंगों, मजलूमों, आदिवासियों की चीख़ें जनता के कानों तक पहुँचने से पहले ही दम तोड़ देती हैं, मुझे मालूम है कि राष्ट्रवाद की चादर तले जघन्यतम् अपराधों को छुपाया जा सकता है, मुझे मालूम है कि गुण्डों;मवालियों की अन्तिम शरणस्थली राष्ट्रवाद ही है.
कालजयी लेखक प्रेमचन्द जी ने यूँ ही नहीं कहा था कि आधुनिक युग का कोढ़ है राष्ट्रवाद! इसीलिए मेरे हिसाब से राष्ट्रवाद का जश्न केवल खाए अघाए लोगों के लिए ही उचित हो सकता है, जिसमें वे अपने झूठे गर्व से सराबोर हो कर नाच गा सकते हैं. बाक़ी बहुसंख्यक जनता के लिए राष्ट्रवाद सरकारों द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला महज़ एक राजनीतिक टूल है. जिसके ज़रिए आम जनता की आधारभूत ज़रूरतों से जुड़े सवालों को किनारे लगाया जा सके और तो और इस राष्ट्रवाद की सबसे अधिक क़ीमत भी ग़रीब किसान परिवारों को ही चुकानी पड़ती है.
पूछिए जा कर उन परिवारों से जिन्होंने अपने घर के चिराग़ों को खोया है इसी राष्ट्रवाद की आँधी में, हो सके तो एक बार हो कर आईए किसी शहीद के घर और उस परिवार का सूनापन महसूस करिए, महसूस करिए उन माँओं का दर्द जिनकी गोदें उजड़ गयीं; बाँटिए उन माताओं बहनों का दर्द जो राष्ट्रवाद के चलते अपने सुहागों की क़ुर्बानी दे कर विधवाओं का जीवन जीने के लिए अभिशप्त हैं, पूछिए उन बच्चों से कि उन पर क्या गुज़रती है, जिनके सर से पिता का साया उठ गया इसी राष्ट्रवाद के नशे में, पूछिए उन बूढ़े बापों से जिनकी बुढ़ापे की लाठी को राष्ट्रवाद के अग्नि कुण्ड में आहूत कर दिया गया.
इन्हीं सब वजहों के चलते मुझे घिन आने लगी है इस छिछले राष्ट्रवाद से जो एक राक्षस सरीखा मालूम होता है जिसे इंसानी लहू की अन्तहीन प्यास है और और समय समय पर वह अपनी प्यास बुझाता रहता है. अति राष्ट्रवाद की परिणति युद्ध ही है जो चंद लोगों को गर्व में डूब कर जश्न मनाने का मौक़ा मुहैया कराता है. वहीं हमारे जाँबाज़ सिपाहियों के घरों में भय और मातम परोसता है. दुनिया के हर एक मुल्क में राष्ट्रवाद की लहर सत्ता द्वारा ही अग्रसारित की जाती रही है, लेकिन इस राष्ट्रवाद का असली पोषक शहरी मध्यमवर्ग है. जिनमें से अधिकतर कारपोरेट ग़ुलाम हैं, जिनके लिए युद्ध किसी फ़िल्म की भाँति एंटरटेनमेंट का मात्र एक ज़रिया है.