लाल पित्रसत्ता
मर्दों की इस दुनिया में, महिलाएं दोगुनी मेहनत कर, अपनी जगह बनाती हैं।
आजाते हो तुम वहां भी, भले वो आपको नहीं बुलाती हैं।
वो बात करना चाहती हैं अपनी ज़िन्दगी और लड़ाइयों की,
बाकी आप खुदको, इस मामले में भी, पारंगत समझते हैं।
लाल सलाम! लाल सलाम! आपके नारे होते हैं।
हर बात आपकी आखिरकार महज़ वर्ग पर आकर रुकती है ;
अमीरी – गरीबी आपको, बड़ी सीमित मात्रा में दिखती है।
जाते हो जब तुम आंदोलन पर, खाना कौन बनाती है?
कामरेड बनते हैं जो भविष्य में, उनका ख्याल कौन रखती है?
साथ – साथ वो भी कई आंदोलनों में लड़ती है;
पर उनका साथ कितना आपकी मर्दानगी देती है?
कहते हो तुम की नारी अपने उत्पीड़न की बेड़ियां तभी तोड़ सकती है
जब वो शामिल हो श्रम बल में, जब वो वर्ग – संघर्ष करती है।
श्रम बल में तो महिलाएं कबसे हैं! वो सबसे ज़्यादा श्रम करती हैं।
लाल पित्रसत्ता आर्थिक वर्गों से लड़ती हैं,
लैंगिक वर्गों का क्या? जो सबसे ज्यादा शोषण करती है!
महिलाएं आपको अपने आंदोलन, अपने बराबर महज़ तभी तक अच्छी लगती है,
जब तक वे आपकी बोली भाषा बोलती हैं।
नकारती है वो तुम्हारे नए ब्राह्मणवाद को, नए मनुवाद को।
तुम्हारे सिद्धांतों में उसके शोषण की कितनी बात होती है?
अरे! हम औरतें भी अपना सिद्धांत बनाएंगी!
कोई ज़रूरी तो नहीं कि ये सिर्फ मोर्चों में ही कंधे से कंधा मिलाएंगी !
जिन गरीब, दलितों के हक की बात करते हो,
तुम में से कितने उनकी तरह नालों और गटरों में मरते हो?
मैं नहीं कह रही की तुम्हारा युं मरना ही ज़रूरी है
देखा, तुम ऐसे ही आलोचना करती कलम को गलत समझते हो!
“सारे मर्द एक जैसे नहीं”वाला पाठ मुझे ना पढ़ाना,
“शारीरिक रूप से हैं औरतें अलग इसलिए..”भी है आप ही का एक फ़साना।
चलो माना बदन भिन्न हैं हमारे, बोलो “देश के “लाल””, बोलो “माओं के आंखों के तारे”
भगवा, हरा, लाल या नीला? और कितने क्रांतिकारी रंग हैं तुम्हारे?