भारत में महिलाओं के सम्मान और पुरुषों के समान अधिकारों की मांग का सिलसिला विगत वर्षों से चला आ रहा है महिलाएं भारत की आबादी में आधे से कई ज़्यादा स्थान रखती हैं. इस आधी आबादी के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक अधिकारों को समय-समय पर उठाया भी जाता रहा है. राजनीतिक रूप से देखने पर ज्ञात होता है कि महिलओं से जुड़ा सबसे बड़ा मुद्दा विधायिका में इनके 33 प्रतिशत आरक्षण को लेकर ही बना हुआ है. बीते कई वर्षों में भारतीय विधायिका में महिलाओं की 33 प्रतिशत भागीदारी को लेकर कई राजनीतिक दल अपनी अपनी तरह से कसमें वादे खा चुके हैं परंतु जब महिलओं की राजनीतिक भागीदारी को व्यवहारिक रूप से आगे बढ़ाने की बात आती है तो सभी दल इससे आंखे चुराने लगतें हैं. अन्य सभी मुद्दों की तरह 33 प्रतिशत महिला आरक्षण का मुद्दा भी कभी न पूरे होने वाले वायदों की सूची में शामिल हो जाता है. संसद हो या चौक, जिले की वोटों वाली राजनीति दोनों जगहों पर महिलाओं के हितों पर चर्चा परिचर्चा तो आला दर्जे की होती है, राजनीतिक फायदे हेतु कभी कभी इस मुद्दे को ज़ोर शोर से उठाया भी जाता है लेकिन जब आरक्षण को लेकर सत्ताधारियों से सवाल किया जाता है तो वह अलग ही राग अलापने लगतें हैं. बीते दिनों आए विधानसभा चुनावों और उनके परिणामों में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला जब समाज और राजनीति में लैंगिक समानता, समान प्रतिनिधित्व की कसमें खाने वाले, स्वयं को महिला अधिकारों का सबसे बड़ा हिमायती बताने वाले राजनीतिक दलों के वायदों की हवा निकल गई।
राजस्थान में कितनी महिलाएं पहुंची विधानसभा :-
राजस्थान की बात करें तो वहां विधानसभा चुनावों में कुल 187 महिला उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतरी थी जो कुल उम्मीदवारों (2,291) का मात्र 8 प्रतिशत ही है. 187 महिला उमीदवारों में से 22 महिलाएं चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंची. 33 प्रतिशत महिला आरक्षण की मांग करने वाली, महिलाओं को राजनीति में समान अवसर देने की बातें करने वाली मुख्य राष्ट्रीय पार्टियो के राजनीतिक वायदे का झूठ भी यहां नज़र आ गया जब भाजपा के कुल 200 उम्मीदवारों की सूची में मात्र 23 महिला उम्मीदवार व कांग्रेस 200 में मात्र 27 महिला उम्मीदवारों को स्थान देती है. भाजपा उम्मीदवारों की सूची में महिलाओं को 11.5 प्रतिशत व कांग्रेस की सूची में 13.5 प्रतिशत हिस्सा ही प्राप्त होता है. राजस्थान में जीत प्राप्त करने वाले कुल उम्मीदवारों में महिलाओं का भाग मात्र 11.05 प्रतिशत ही है अर्थात 33 प्रतिशत के आधे से भी कम।
चुनावी रणनीति में महिलाओं की चिंताजनक स्थिति इन चुनावों में ही नहीं उपजी है 2013 व 2008 के विधानसभा चुनावों के आंकड़े भी महिलओं को लेकर अच्छी तस्वीर पेश नहीं करते. 2013 में कुल 166 महिलाएं चुनाव में उतरी जिनमें 24 कांग्रेस, 26 भाजपा व 116 अन्य दलों के टिकट पर मैदान में थी. चुनाव जीतकर सिर्फ 28 (14%) महिलाएं ही विधानसभा पहुंच पाई. 2008 पर नज़र डालें तो आंकड़ों की ओर दयनीय स्थिति दिखाई पड़ती है. इस वर्ष कुल 21 (10.5%) महिलाएं विधानसभा पहुंची जिसमे 11 कांग्रेस, 9 भाजपा व एक निर्दलीय शामिल थी. भाजपा ने जहां 32 महिलाओं को उम्मीदवार बनाया वहीं कांग्रेस में यह संख्या 23 ही रही. यदि सरकार में मंत्री पद को लेकर बात की जाए तो 2008 की गहलोत सरकार में 4 और 2013 की वसुंधरा सरकार में सिर्फ 2 महिलओं को मंत्री परिषद में स्थान दिया गया।
महिलाओं ने मध्य प्रदेश में कितनी बटोरीं सीटें :
मध्य प्रदेश के चुनाव में जीतने वाली कुल महिलओं
की संख्या में इस बार कमी आई है. 2013 में जहां इनकी संख्या 30 थी वही 2018 में यह मात्र 20 रह गई है. इस वर्ष विधानसभा चुनावों में 250 महिला उम्मीदवारों ने किस्मत आज़माई थी K 25 भाजपा, 23 कांग्रेस व 139 अन्य दलों के चुनाव चिन्हों पर मैदान में थी. भाजपा के उम्मीदवारों की सूची में महिलओं को 10.86 प्रतिशत हिस्सा मिला तो कांग्रेस में इनका भाग 10 प्रतिशत रहा. जीत हासिल करने वाली कुल 20 महिलाओं में 11 भाजपा, 8 कांग्रेस व 1 बसपा की नेता है. यह 20 महिलाएं विधानसभा की कुल सीटों का मात्र 8. 69 प्रतिशत भाग ही अपने नाम कर पाती हैं. मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों में भाजपा और कांग्रेस दोनों के उम्मीदवारों की सूची में महिलाओं की संख्या को लेकर समानता दिखाई पड़ती है दोनों ही दलों में महिलाओं का हिस्सा 33 प्रतिशत से कोसो दूर रहा और कुल जीतने वाली महिलाओं की संख्या ने महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी के विषय को और गंभीर बना दिया है।
इन विधानसभा चुनावों के मुकाबले 2013
व 2008 की चुनावी सांख्यिकी पर नज़र डाली जाए तो संख्याओं में अधिक अंतर दिखाई नहीं पड़ता. वर्ष 2013 में कुल 2583 उम्मीदवारो में से 200 (7.74%) महिलाएं थी जिसमे 23 (10%) कांग्रेस, 28 (12.17%) भाजपा व 149 अन्य दलों से थी.
इस वर्ष जीत हासिल करने वाली महिलाओं का प्रतिशत भी 12.22 ही रहा. वहीं समय चक्र में थोड़ा और पीछे जाकर देखा जाए तो आँकड़े बद्तर स्थिति में नज़र आते है. वर्ष 2008 में कुल 3179 उम्मीदवारों में 221 (6.95%) महिलाएं थी. इस वर्ष 6.9% महिलाएं ही जीत प्राप्त करने में सफल रही.
छत्तीसगढ़ में कितना रहा महिलाओं का वर्चस्व :
छत्तीसगढ़ में भी महिलाओं की राजनीतिक स्थिति बेहतर नहीं है लेकिन राजस्थान व मध्य प्रदेश के मुकाबले इसे अच्छा कहा जा सकता है वहां की 90 विधानसभा सीटों पर 12 महिलओं ने जीत दर्ज की जिसमे 9 महिलाएं कांग्रेस, 1 बसपा, 1भाजपा व 1 जनता कांग्रेस से ताल्लुक रखती है. विधानसभा की कुल सीटों के आधार पर देखें तो महिलओं को इसका 13.33 प्रतिशत भाग प्राप्त होता है जो बाकी दोनो राज्यो की विधायिका में महिलाओं की संख्या से थोड़ा अधिक है. इसवर्ष छत्तीसगढ़ के उम्मीदवारों की सूची में भाजपा ने 13(14.44%), कांग्रेस ने 10 ( 11.11% ), महिलओं को स्थान दिया था . कुल मिलाकर देखा जाए तो राजनीतिक दलों के महिला आरक्षण को लेकर खोखले वादों का प्रत्यक्ष उदाहरण इन संख्याओं में देखने को मिलता है. बीतें वर्षों में विधायिकाओं में महिलाओं की संख्या घटी बढ़ी ज़रूर है परंतु महिला भागीदारी को संतुष्ट करने वाले परिवर्तन नज़र नहीं आए।
छत्तीसगढ़ में 2013 और 2008 के विधानसभा चुनावों में महिलाओं की भागीदारी का विश्लेषण करने पर प्राप्त आंकड़े अधिक संतुष्टि प्रदान नहीं करते. यहां 2013 में कुल 986 उम्मीदारों में से 83 (8.41%) महिलाएं थी जिसमे 7 (7.77%) कांग्रेस, 10(11.11%) भाजपा के टिकट पर मैदान में थी. कुल 10(11.11%) जीत दर्ज कर पाईं. 2008 में चुनाव लड़ने वाली महिलाओं का आंकड़ा 94( 8.82%) व जितने वाली का (12.22%) ही रहा. इस वर्ष भाजपा के 6 व कांग्रेस की 5 महिला उम्मीदवार जीतकर विधानसभा पहुंची.
मंत्री पद की बात की जाए तो 2013 से 2018 तक मध्य प्रदेश में 5 व छत्तीसगढ़ में मात्र 1 महिला को मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपी गई.
मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनो ही राज्यों में ग्रामीण, पिछड़े और आदिवासी क्षेत्रों की बहुलता है इन क्षेत्रों का पिछड़ापन महिला उम्मीदवार के उभरने में रोड़ा बन हुआ है. संकीर्ण विचार से पटा समाज और उनकी रूढ़िवादिता आज भी महिलाओं को राजनीति के मंच पर देखने को राजी नहीं है।
कारण :-
राजनीतिक दलों में सदियों पुरानी सोच का हावी होना और महिलाओं में राजनीति को लेकर उदासीन प्रवत्ति का होना महिलाओं के राजीनीति में कम प्रतिनिधित्व का मुख्य कारण है. सन् 1952 से महिलाएं राजनीति में सक्रिय रही भी हैं लेकिन इतने दशकों बाद भागीदारी का जो प्रतिशत होना चाहिए था वह आज दिखाई नहीं पड़ता। अब जब महिलाएं अपने राजनीतिक अधिकारों का उनकी सीमा तक प्रयोग करना जानती हैं ऐसे में उनका पूरी राजनीतिक भागीदारी से वंचित रहना दलगत राजनीति में महिलओं की दयनीय स्थिति की ओर संकेत करता है. वास्तव में पुरुष का अधिक शक्तिशाली होना और महिला का दीन हीन होने वाला विचार आज भी राजनीतिक दफ्तरों में अपनी जड़ें जमाए हुए है.
चुनावी मैदान में औरत को कमजोर देखने वाली निग़ाहें आज भी समानता के स्तर तक नहीं पहुंच पाई हैं. इस समस्या का एक और पहलू है कि क्या सिर्फ राजनीतिक दल ही इस परिस्थिति के लिए पूर्ण रूप से ज़िम्मेदार है या आम जन पुरुष की अदृश्य राजीनीतिक ताक़त और लड़ने पिटने वाली क्षमता के दबाव में मशीन का बटन दबाते है. महिलाओं में राजनीतिक उत्कंठा का बढ़ना उन्हें सत्ता के दरवाज़े तक तो ले आता है लेकिन नाज़ुक हाथो से उसे खोल पाना उनके लिए मुश्किल होता है. भाषण हो या प्रचार का ताम झाम पुरुष व महिला समान रूप से चुनावी रीतियों को पूरा करते हैं उम्मीदवार को लेकर कमज़ोरी का भाव तो सिर्फ पीछे खड़ी हाई कमान और आगे खड़ी जनता के मस्तिष्क में होता है।