ठीक है कि गुलामी के दौर में अंग्रेज़ सरकार और उसके कृपापात्र सामंतों ने उन पर ऐसे अनेक दमन चक्र चलाये थे, जिन्हें भूला नहीं जा सकता। लेकिन उनकी बाबत यह सोचकर ‘संतोष’ किया जा सकता है कि अंततः न सिर्फ उन्हें भरपूर मजा चखा दिया गया बल्कि उलकी कलाइयां मरोड़कर 15 अगस्त, 1947 को अपनी ‘नियति से साक्षात्कार’ का ऐतिहासिक अवसर भी हासिल कर लिया गया।
लेकिन विडम्बना यह कि नियति से यह साक्षात्कार आजादी के कुछ ही वर्षों बाद ही स्वप्न भंग में बदलना आरंभ हो गया और आज की तारीख में एकदम बेहासिल हो चला है। इसे इस बात से समझ सकते हैं कि कोरोना से लड़ाई और लॉकडाउन की सबसे ज्यादा कीमत चुकाने के बावजूद ये मजदूर देश व प्रदेशों की ‘निर्वाचित व लोकतांत्रिक’ सरकारों की आपराधिक उपेक्षा झेल रहे हैं। इस कदर कि कई बार लगता है कि उनके कल्याण के उपाय सरकारों के एजेंडे में कहीं नहीं हैं।
सोचिये जरा, प्रायः हर संकट के इस दौर में फ्रन्टलाइन सोल्जरों के तौर पर अपने खून-पसीने से अन्न और दूसरी आवश्यक वस्तुएं उत्पादित कर देश को उसके मुकाबले सक्षम बनाने वाले मजदूर व किसान इस कोरोनाकाल में लॉकडाउन के चलते अपनी रोज़ी रोटी गंवाने के बावजूद ‘वारियर’ नहीं माने जा रहे, जबकि सरकार इन्हीं की बदौलत दावा कर पा रही है कि उसके गोदामों में तीन साल तक के लिए पर्याप्त अनाज है और आवश्यक उपभोक्ता वस्तुओं की भी कोई कमी नहीं है। इन कमेरों या उत्पादकों के बजाय ऐसे लोग ‘कोरोना वारियर’ बने हुए हैं, जो इन्हीं द्वारा उत्पादित अन्न व वस्तुएं बांटते हुए कैमरे की ओर देखकर मुस्कुरा और अपने मुंह से अपनी करनी बखान रहे हैं। पीएम केयर्स में कुछ राशि दान देकर सरकार से इस दरियादिली के सिले की आस लगाये अमीर तबके को तो इतने से ही करंट लग गया है कि भारतीय राजस्व सेवा के पचास अधिकारियों ने डांवाडोल अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए उस पर कुछ अतिरिक्त कर लगाने का सुझाव दिया है।
इन सबके उलट मजदूर वायरस के सबसे स्वाभाविक कैरियर करार और इस कारण इतने अनवांटेड {अवांछनीय} ठहरा दिये गये हैं, कि कार्यस्थल के आस-पास तो ‘दुश्मनी’ की निगाहों का सामना कर ही रहे हैं, अपने गांव पहुंचकर भी उससे निजात नहीं पा रहे। उनके सेवायोजकों ने तो खैर लॉकडाउन होते ही, उन मजदूरविरोधी श्रमसुधारों का लाभ उठाकर उनके हाल पर छोड़ दिया था, जो भूमंडलीकरण की नीतियों के पिछले तीन दशकों में श्रम पर पूंजी की सत्ता स्थापित करने के लिए किये गये। सरकारों ने भी ‘हमारी बला से’ का रवैया अख्तियार करते हुए उन्हें अमीरों या ‘समाजसेवियों’ की चैरिटी के भरोसे छोड़ रखा है।
अचानक लॉकडाउन के बाद वे बेघर-बेदर और बेरोजगार हो चले थे तो केन्द्र सरकार चाहती थी कि वे बिना उफ किये ‘जहां भी और जैसे भी हैं’, वैसे ही भूखे-प्यासे पडे रहें। इसके पक्ष में उसने सर्वोच्च न्यायालय में दावा किया था, कि उनमें से तीस प्रतिशत संक्रमित हो सकते हैं और उन्हें अपने घर या गांव जाने दिया गया तो ‘कोरोना विस्फोट’ हो सकता है।
अब समय के साथ इस आशंका के गलत सिद्ध होने के बावजूद उनसे सौतेलापन कम नहीं हुआ है। उनके प्रति केंद्र सरकार के रवैये को देखकर सर्वोच्च न्यायालय को चेताना पड़ा है, कि उसे कोर्ट को अपना बंधक नहीं समझना चाहिए और बताना चाहिए कि मजदूरों को घर भेजने का कोई प्रस्ताव पाइपलाइन में है या नहीं? इसके बावजूद सरकार उन्हें कोटा में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले छात्रों, फंसे हुए अनिवासी भारतीयों या बनारस, हरिद्वार और नांदेड के तीर्थयात्रियों जितना सौभाग्यशाली नहीं होने देना चाहती और घर लौटने को जो छूट दे रही है, वह ‘माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन, खाक हो जायेंगे हम तुमको खबर होने तक’ जैसी ही है।
मजदूरों से भेदभाव की हालत यह है कि राजधानी दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल की सरकार ने किसी ‘कोरोना वारियर’ की शहादत पर उसके परिजनों को एक करोड़ रुपये का मुआवजा देने की घोषणा की तो मजदूरों के दो जून के भोजन की व्यवस्था तक को सुचारु बनाने की फिक्र नहीं की, उनके मुफ्त इलाज और मजदूरी भुगतान के मुद्दे तो अलग ही रहें।
स्ट्रेंडेड वर्कर्स ऐक्शन नेटवर्क के एक सर्वे के अनुसार आठ से 13 अप्रैल के बीच 96 प्रतिशत मजदूरों को सरकार की तरफ से राशन नहीं मिला जबकि 90 प्रतिशत के करीब मजूदरों के मालिकों ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अपील की अनसुनी कर उन्हें वेतन नहीं दिया। इससे पहले सरकारी राशन न पाने वाले मजदूरों की संख्या 99 प्रतिशत थी, जिससे साफ है कि लॉकडाउन के दो सप्ताह बाद भी बाद केवल एक प्रतिशत फंसे श्रमिकों को राशन मुहैया कराया गया, जबकि तीन सप्ताह बाद केवल 4 प्रतिशत को। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में प्रवासी मजदूरों को राशन नहीं मिला। इस दौरान मजदूरों के लिए बनी तथाकथित हेल्पलाइनों का भी उन्हें कोई लाभ नहीं मिल पा रहा।
गौरतलब है कि पलायन के दौरान हादसों में मारे गये कोई तीन दर्जन मजदूरों के परिजनों को मामूली मुआवजा भी नहीं दिया गया। तेलंगाना में बाल मजदूरी का अभिशाप झेल रही उस बच्ची के परिजनों को भी नहीं, जो एक सौ किलोमीटर पैदल चलने के बाद छत्तीसगढ़ के बीजापुर स्थित अपने गांव से 14 किलोमीटर पहले दम तोड़ने को अभिशप्त हुईं। मजदूरों के खातों में हजार पांच सौ रुपये डालने का खयाल आया तो भी सरकारों ने इसके लिए गिनती के पंजीकृत मजदूरों को ही चुना और इस तथ्य पर गौर करने की जरूरत नहीं समझी कि देश के मजदूरों का नब्बे प्रतिशत असंगठित क्षेत्र में काम करता है और इस हिस्से के बारे में सरकारों ओर उनके अधिकारियों के पास कोई जानकारी ही नहीं है। इसके चलते लॉकडाउन की मुसीबतों के 38 दिन बाद भी मजदूरों के सबसे ज़रूरतमंद तबके की मुसीबतें दुर्निवार बनी हुई हैं और उन्हें कोई राहत मयस्सर नहीं हो पाई है। सरकारी आकंड़ों के मुताबिक 14 लाख से ज्यादा मजदूर रिलीफ कैम्पों में हैं और कैम्पों के बेहद खराब हालात के कारण उनका कोई पुरसानेहाल नहीं है।
जैसा कि स्वाभाविक था, देश की राजनीतिक राजधानी दिल्ली, औद्योगिक राजधानी मुम्बई, प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी, गुजरात के सूरत और हैदराबाद वगैरह में मजदूरों ने अपने गुस्से का प्रदर्शन किया तो भी सरकारों व स्थानीय प्रशासनों ने उनके प्रति कोई हमदर्दी नहीं दिखाई। उलटे पुलिस द्वारा कई जगह उन पर लाठियां बरसाई गईं और मुकदमे दर्ज किये गये। तिस पर इस जले पर नमक यह कि प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि लॉकडाउन के दौरान देशभर में पुलिस का नया मानवीय रूप सामने आया है।
इससे लगता है कि उन्होंने मजदूरों की तकलीफों के लिए एक बार औपचारिक माफी मांग कर उनके प्रति अपने सारे कर्तव्यों की इतिश्री समझ ली है। यह इस अर्थ में बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के आंकड़ों के अनुसार लॉकडाउन का कोई चालीस करोड़ मजदूरों पर, जिनका देश की अर्थव्यवस्था में प्रमुख यागदान है, भीषण कुप्रभाव पड़ेगा और वे फिर से त्रासद गरीबी के गर्त में चले जायेंगे।