रुद्र ध्यान गुफा के नाम से गढ़वाल मंडल विकास निगम ने केदारनाथ धाम से एक किलोमीटर दूर कुछ प्राकृतिक गुफाओं में से छांट कर केदारनाथ आने वाले तीर्थयात्रियों के एकांत प्रवास और ध्यान करने के लिये एक गुफा संकुल बनाया है। ऐसी गुफाएं बनाने का विचार प्रधानमंत्री ने दिया था, ऐसा उत्तराखंड सरकार का कहना है। यह गुफाएं कोई भी तीर्थयात्री किराए पर ले सकता है। इसका किराया शुरुआती दौर में निगम ने 3000 रुपया रखा था पर इस दर पर कोई भी यात्री गुफा प्रवास के लिये तैयार नहीं हुआ। फिर इस किराए को महंगा समझते हुए निगम ने इसका किराया घटा कर अब 990 रुपया रख दिया गया।
पिछले साल 2018 के सितंबर से अब तक केवल 2 ही तीर्थ यात्रियों ने यह गुफा बुक कराई है। इसका कारण यहां का बेहद ठंड मौसम है। समुद्र तल से 12500 फीट की ऊंचाई पर स्थित यह तीर्थ चारो ओर से हिमाच्छादित पर्वत से घिरा है। यह घाटी केदार घाटी कहलाती है। केदार का एक अर्थ दलदल होता है। जहां यह मंदिर है वहां चौरस जगह है और घास के मैदान हैं तथा बगल में ही मंदाकिनी बहती हैं जो रुद्रप्रयाग में जाकर अलकनंदा में मिल जाती हैं। अलकनंदा आगे जाकर देवप्रयाग में भागीरथी में मिलती है और वही नदी गंगा के रूप में पर्वत से मैदान पर आ जाती है।
सभी गुफाओं में बिजली, हीटर, बिस्तर, गद्दे रजाई आदि की आरामदायक व्यवस्था है।बाहरी दीवारें तो पत्थर की बनी हैं पर उसके दरवाजे लकड़ी के बने हैं। अगर हिमपात हो तो हिम दरवाजे के सामने न जमे इसकी भी व्यवस्था की गयी है और अगर हिम जम भी जाय तो उसे तुरन्त हटाने के लिये भी इंतजाम है। गुफा में ही नाश्ता, भोजन और पेय की व्यवस्था है। इन सब के लिये निगम की तरफ से परिचारक भी नियुक्त हैं। यह गुफाएं एक प्रकार से एडवेंचर टूरिज़्म का हिस्सा है फिर भी कोई ध्यान या साधना करना चाहता है तो वह कर सकता है।
ये गुफाएं तीर्थ से थोड़ा हट कर एकांत में हैं। ताकि कोई ध्यान या एकांत प्रवास में व्यवधान न डाल सके, फ़िर भी निगम ने किसी भी आपात स्थिति के लिये स्थानीय इंटरकॉम और फोन की भी व्यवस्था कर रखी है। सागर तल से 12500 फीट की ऊंचाई पर ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है और ऊंची नीची पथरीली ज़मीन होने के कारण हो सकता है किसी यात्री को सांस की दिक्कत हो जाय तो इसके लिये मेडिकल परीक्षण की भी व्यवस्था है। वैसे भी जिन्हें सांस लेने में यदा कदा व्यवधान हो जाता है उन्हें इस गुफा प्रवास से बचना चाहिये। हालांकि अहर्निश मेडिकल सुविधा के लिये डॉक्टर और अन्य सहायक भी वहां उपस्थित रहते हैं जो गुफा में ही स्थित कॉल बेल दबा कर बुलाये जा सकते हैं।
केदारनाथ तीर्थ की कथा पांडवों की स्वर्गारोहण औऱ हिमालय की यात्रा से भी मिलती है। कहते हैं महाभारत के युद्ध में विजयी होने पर पांडव भ्रातृहत्या के पाप से मुक्ति पाना चाहते थे। इसके लिए वे शिव का आशीर्वाद पाना चाहते थे, लेकिन शिव उन लोगों से रुष्ट थे। शिव के दर्शन के लिए पांडव काशी गए, पर उन्हें काशी में शिव का दर्शन नहीं मिला। फिर पांडव उन्हें खोजते हुए हिमालय आ पहुंचे। शिव भाग कर केदार चले गए और केदार घाटी में ही बैठ गए ।, पांडव भी उनका पीछा करते-करते केदार घाटी में पहुंच गए।
शिव ने तब तक बैल का रूप धारण कर लिया और वे केदार घाटी में अन्य पशुओं के रेवड़ में जा मिले। लेकिन भीम ने शिव को बैल रूप में जो अलग और विलक्षण दिख रहा था, पहचान लिया और उसकी पूंछ पकड़ ली। शिव उसी केदार यानी दलदली ज़मीन में प्रवेश कर गये। भीम बलपूर्वक इस बैल पर झपटे, लेकिन बैल भूमि में अंतध्र्यान होने लगा। तब भीम ने बैल की त्रिकोणात्मक पीठ का भाग पकड़ लिया। तब शिव ने दर्शन दिया और पांडव भ्रातृ हत्या के पाप से मुक्त हो गए। कहते हैं, उसी समय से शिव बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ में पूजी जाती है। वहां शिव परंपरागत लिंग रूप में नहीं बल्कि बैल के पीठ के पृष्ठभाग के रूप में हैं। ऐसा माना जाता है कि जब शिव बैल के रूप में अंतर्ध्यान हुए, तो उनके धड़ से ऊपर का भाग पशुपतिनाथ के रूप में काठमाण्डू में प्रकट हुआ। शिव की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में,नाभि मदमदेश्वर में और जटा कल्पेश्वरमें प्रकट हुए। इसलिए इन चार स्थानों सहित श्री केदारनाथ को पंच केदार भी कहा जाता है।
केदारनाथ धाम के मन्दिर की आयु के बारे में कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, पर महापंडित राहुल सांकृत्यायन के अनुसार यह मंदिर 12 या 13 वीं शताब्दी का है। ग्वालियर से मिली एक राजा भोज स्तुति के अनुसार यह उनका बनवाया हुआ है । एक मान्यता के अनुसार वर्तमान मंदिर आठवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा बनवाया गया जो पांडवों द्वारा द्वापर काल में बनाये गये पहले के मंदिर की बगल में है। मंदिर के बड़े धूसर रंग की सीढ़ियों पर पाली या ब्राह्मी लिपि में कुछ खुदा है, जिसे स्पष्ट जानना मुश्किल है। फिर भी इतिहासकार डॉ शिव प्रसाद डबराल मानते है कि शैव लोग आदि शंकराचार्य से पहले से ही केदारनाथ जाते रहे हैं।