बढ़ रही है "क़ानून के उल्लंघन" की आदत

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हाल ही के दिनों में एक और प्रवित्ति जड़ जमा रही है और वह प्रवित्ति है कानून के प्रति अवज्ञा का भाव। सरकार अमूर्त होती है और वह अहर्निश गतिशील रहती है। सरकार से यहां मेरा आशय प्रधानमंत्री या मंत्रिमंडल से नहीं बल्कि उस तंत्र से है जो विभिन्न नियमों और कानूनों के अनुसार सदैव चलता रहता है। जिन कानूनों के आधार पर सरकार गतिशील रहती है वे ही कानून मूल रूप से सर्वोच्च होते हैं। तरह तरह के कानूनों के बीच सबसे महत्वपूर्ण कानून देश का संविधान होता है। देश मे कोई भी कानून चाहे वह कितना भी महत्वपूर्ण और आवश्यक क्यों न हो, पर संविधान के कानूनी प्राविधानों के विपरीत नहीं बन सकता है। अगर ऐसा कोई कानून विधायिका बना भी दे तो न्यायालय उस कानून को रद्द कर सकती है और ऐसे उदाहरण हैं भी। खुद संविधान में भी उसके मूल ढांचे से इतर उसमें कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। इसका सीधा अर्थ यह है कि कोई भी पद या व्यक्ति महत्वपूर्ण नहीं होता है और वह चाहे जितना भी ऊपर हो, कानून उसके ऊपर है। सरकार या किसी भी व्यक्ति को कानून के प्रति अवज्ञाभाव नहीं रखना चाहिये।
संविधान में ही सरकार के विभिन्न अंग बिना राजनीतिक स्वार्थ हित के अपने दायित्व का निर्वहन कर सकें इसलिए महत्वपूर्ण संस्थाओं जैसे न्यायपालिका, रिज़र्व बैंक, कम्पट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल ऑफ इंडिया, लोकसेवा आयोग, निर्वाचन आयोग आदि का गठन करके उनको मौलिक शक्तियां दी गयी है। इस संस्थाओं को सरकार के नियंत्रण के बाहर रखा गया है ताकि सरकार जो किसी न किसी राजनीतिक दल की ही होगी, के राजनीतिक स्वार्थ से मुक्त होकर वे अपने दायित्वों का निर्वहन कर सके। इसीलिए उनकी नियुक्ति भले ही सरकार करती है पर उन्हें निर्धारित अवधि के पूर्व पद से हटाने का कोई भी प्राविधान सरकार के पास नहीं है। पर सरकार कभी कभी इन संस्थाओं की स्वतंत्रता के विरुद्ध भी कुछ ऐसे निर्णय ले लेती है जिससे विवाद उत्पन्न हो जाता है।
कुछ हफ्ते पहले जब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई के विरुद्ध यौन उत्पीड़न का आरोप जब एक महिला ने लगाया तो इस घटना ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक बड़ी चुनौती खड़ी कर दी। जज भी मनुष्य होते हैं। वे भी चारित्रिक रूप से फिसल सकते हैं और किसी भी अपराध के बारे में यह धारणा बना बैठना कि अमुक पद पर बैठे व्यक्ति से कोई अपराध नहीं हो सकता, अपराधों को पूर्वाग्रह की दृष्टि से देखना होगा। इस आरोप ने न केवल देश की सबसे अदालत के सबसे बड़े जज को सन्देहों के घेरे में ला दिया, बल्कि उनके समक्ष यह चुनौती भी खड़ी कर दी कि वे कैसे इस आरोप से बिना विधि की मर्यादा भंग किये न्यायपूर्ण तरीके से स्वच्छ होकर सामने आते हैं। किसी भी सत्ता, या संवैधानिक संस्थान की साख, क्षमता, और न्यायिक आधार की परख संकट काल मे ही होती है। चाहे वह सरकार की सत्ता हो या कोई भी संवैधानिक संस्थान। सुप्रीम कोर्ट ने तीन जजों की एक पीठ का गठन किया है और देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी सीबीआई, एनआईए, और दिल्ली पुलिस को इस मामले की जांच करने को कहा है, साथ ही सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस एके पटनायक को इस जांच की निगरानी का काम सौंपा है। अभी जांच चल रही है।
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह चुनौती इसलिए भी सबसे बड़ी है कि वह सभी कानूनों की व्याख्या और उसे लागू करने के लिये अंतिम और सर्वाधिकार सम्पन्न संस्था है। इस जांच में जो भी कार्यवाही होगी वह भविष्य में होने वाली ऐसी शिकायतों के जांच के लिये नज़ीर भी बनेगी। सुप्रीम कोर्ट के जज साहबान को इस आरोप की गम्भीरता का एहसास है।
सुप्रीम कोर्ट सबसे अधिक अधिकार सम्पन्न संवैधानिक संस्था है और संविधान के अंतर्गत इसे असीमित अधिकार प्राप्त हैं। लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई भरी अदालत में न्यायपीठ पर बैठ कर यह कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट को धन और अधिकार के बल पर निष्क्रिय करने की चाल चली जा रही है तब चिंतित होना स्वाभाविक है। आज सबसे आखरी शरणस्थली न्यायपालिका है। न केवल मुकदमों के संबंध में बल्कि जनहित याचिकाओं के रूप में जनता को एक ऐसा तंत्र सुलभ है जो जनता को उनका असल अधिकार दिला सकता है और किसी भी प्रशासनिक और सत्ता के दमन के खिलाफ उपलब्ध एक सबल मंच है। अब जब सुप्रीम कोर्ट के जजों को यह आभास हो गया है कि वे धनबल, राजबल, और ऐश्वर्यबल के शातिर निशाने पर हैं तो उन्हें अपने संस्थान को ऐसे आघात से बचाने के लिये सन्नद्ध रहना चाहिये, और उम्मीद है वे होंगे भी।
अब एक और संवैधानिक संस्था रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया की बात करें। आरबीआई देश का सेंट्रल बैंक है और बैंकिंग व्यवस्था को तो नियंत्रित करता ही है बल्कि वह देश की अर्थव्यवस्था में मौद्रिक अनुशासन को बनाये रखता है। 8 नवम्बर 2016 को रात 8 बजे प्रधानमंत्री ने जिस नोटबंदी की घोषणा की वह कार्य मूल रूप से आरबीआई का था। पर अब जब बहुत सी बातें सामने आ गयीं हैं तो यह स्पष्ट हो गया है कि यह निर्णय केवल प्रधानमंत्री और उनके बेहद नज़दीक कुछ लोगों का था। आरबीआई को यह आदेश पालन करने के लिये कहा गया। परिणामस्वरूप बिना किसी तैयारी के की गयी इस नोटबंदी ने प्रशासनिक दुरवस्था के कीर्तिमान गढ़ दिए और 150 लोग इस प्रशासनिक दुरवस्था के शिकार हो मर गए। नोटबंदी के समय इसके घोषित लक्ष्य काला धन, नक़ली मुद्रा का चलन, और आतंकी फंडिंग पर लेशमात्र भी फर्क नहीं पड़ा। बदलते गोलपोस्ट की तरह लेशकैश और कैशलेस के जुमले भी हवा हो गए। अब जो खुलासे हो रहे हैं उनसे यह लगता है यह एक सोचा समझा घोटाला है जिसकी जानकारी रिज़र्व बैंक को नहीं थी। नोटबंदी का कोई भी लाभ देश को नहीं हुआ बल्कि इससे विकास की गति प्रभावित हुयी, औद्योगिक उत्पादन में कमी आयी और 4 करोड़ लोग बेरोजगार हो गए।
इसका एक कुप्रभाव यह हुआ कि आर्थिक क्षेत्र में मंदी जैसे हालात बन गए और तभी बिना किसी तैयारी के लागू की गयी जीएसटी कर प्रणाली ने नोटबंदी से आहत हो रही अर्थगति को और नुकसान पहुंचा दिया । इससे कर संग्रह घटा, व्यापार और राजकोषीय घाटा बढ़ा, अंत मे तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का ढिंढोरा पीटने वाली सरकार को आरबीआई के रिज़र्व धन की ज़रूरत पड़ने लगी। नोटबंदी पर साष्टांग हुये आरबीआई के तत्कालीन गवर्नर की अंतरात्मा जागृत हुयी और उन्होंने त्यागपत्र दे दिया फिर आरबीआई के इतिहास में जो कभी नहीं हुआ वह हुआ। आरबीआई अधिनियम के आपात प्राविधान के अंतर्गत सरकार ने रिजर्व फंड से पैसा लिया। यह एक और संस्था की अवज्ञा थी।
सीबीआई कोई संवैधानिक संस्था नहीं है। यह संस्था सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण जांच एजेंसी होने के कारण अनेक संवैधानिक संस्थाओं से भी अधिक महत्व रखती है। सीबीआई में भी सरकार ने उसके अंदरूनी झगड़े में जैसे कदम उठाए उससे यह साफ लगा कि सरकार कानून के प्रति अवज्ञाभाव से ग्रसित है। इस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा और सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद सीबीआई की स्थिति भले ही पटरी पर आ गयी हो, पर अंततः सीबीआई की जो साख गिरी वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है।
एक अन्य जांच एजेंसी एनआईए की स्थिति भी बहुत संतोषजनक नहीं है। एनआईए, आतंकी घटनाओं और बड़े संगठित अपराधों की विवेचना के लिये गठित की गयी है। पर इधर समझौता धमाका सहित कुछ अन्य मामलों में इस जांच एजेंसी की जांचों पर जो सवाल अदालतों ने उठाये हैं उनसे यह साफ दिखता है कि यह एजेंसी अपराधों की विवेचना के प्रति कोई प्रोफेशनल दृष्टिकोण न रख कर सत्ता के लाभ हित से प्रेरित होकर अपना काम करती है। समझौता ब्लास्ट के फैसले में मुल्ज़िम के छूटने पर एनआईए ने बड़ी अदालत में अपील करने से मना कर दिया, क्योंकि सभी मुल्ज़िम संघ और सत्तारुढ़ दल से जुड़े हैं। इसी प्रकार गुजरात मे जिन मामलों में अमित शाह मुल्ज़िम हैं उनमें भी सीबीआई ने बड़ी अदालतों में नियमानुसार अपील करने से मना कर दिया। दोनों ही एजेंसियों का यह कदम उनके स्वतंत्र और प्रोफेशनल होने पर सवाल खड़े करता है। ऐसा करके जांच एजेंसियों ने खुद ही निर्धारित कानूनी प्रक्रिया की अवहेलना और अवेज्ञा की।
चुनाव के समय सबसे बड़ी और महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्वाचन आयोग की होती है। चुनाव की घोषणा से लेकर परिणामो की घोषणा होने तक आयोग की भूमिका न केवल सबसे महत्वपूर्ण होती है बल्कि वह हर व्यक्ति, हर दल और मीडिया के नज़र में रहती है। आयोग सबकी आलोचना के निशाने पर तो रहता ही है और वह एक  मानसिक दबाव में भी रहता है कि उसके फैसलों पर कोई सवाल न उठे।
किसी भी संस्था के साख की परख, संकट काल मे ही होती है। संकट काल से अर्थ जब वह संस्था ऐसी स्थिति में हो कि उसके फैसले से देश के भविष्य या हालात पर असर पड़ सके। आजकल सबसे अधिक साख के सवाल से निर्वाचन आयोग जूझ रहा है। निष्पक्ष निर्वाचन के लिये संविधान की धारा 224 में उसे असीमित शक्तियां प्राप्त हैं और वर्तमान आयोग के पूर्व जब टीएन शेषन और लिंगदोह मुख्य निर्वाचन आयुक्त थे तो उन्होनें उन शक्तियों का उपयोग करके चुनाव के दौरान होने वाले कदाचार को काफी हद तक रोका भी था। आयोग की तब हैसियत धमक और धाक थी। पर आज उन्ही शक्तियों के रहते आयोग रोज ही किसी न किसी की आलोचना झेल रहा है। अंत मे जब आयोग की अकर्मण्यता का मामला सुप्रीम कोर्ट गया तो, सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप पर आयोग ने कार्यवाही की। आज भी आयोग के पास प्रधानमंत्री और सत्तारूढ़ दल के अध्यक्ष के खिलाफ आचार संहिता उल्लंघन के 35 मामले लंबित है और आयोग ने कोई कार्यवाही नहीं की। एक बार तो यह खबर आयी कि किसी तकनीकी खराबी से पीएम के खिलाफ सभी शिकायतें डेटा बेस से उड़ गयीं हैं। अब यह मामला फिर सुप्रीम कोर्ट विरोधी दलों द्वारा ले जाया जा रहा है।
अक्सर यह सवाल उठता है कि जब संवैधानिक संस्थाओं के प्रमुखो को संविधान ने खुद ही पर्याप्त संरक्षण दे रखा है तो ये अफसर सरकार या सत्तारूढ़ दल के इशारे पर अपने संस्थान को क्यों गिरवी रख देते हैं ? यह पुराना एहसान है या भविष्य में कुछ बेहतर प्राप्त होने की आशा। संविधान निर्माता यह जानते थे कि सत्तारूढ़ दल इन संस्थानों पर अपना नियंत्रण ज़रूर रखना चाहेंगे तभी उन्होंने इन संस्थानों को यह संरक्षण प्रदान किया है। लेकिन आज भी और पहले भी जो भी सरकार रही हो वह जब मज़बूत और तानाशाही प्रवित्ति की रही है तो संस्थाओं ने मुश्किल से ही प्रतिरोध किया है। लोकतंत्र का अर्थ संसद और लोकसभा का चुनाव ही नहीं होता है बल्कि इसका अर्थ सभी संवैधानिक संस्थाओं का विधिपूर्वक काम करना है। अब यह गुरुतर दायित्व इन संस्थाओं के प्रमुखों का है कि वे अपने अधिकार और शक्तियों का कैसे निर्वहन करते हैं जिससे देश, लोकतंत्र और उनकी खुद की गरिमा बनी रहे।
आज सुप्रीम कोर्ट पर सवाल उठ रहे हैं, आरबीआई में जो हुआ है वह सबको ज्ञात है, कंट्रोलर और ऑडिटर जनरल ( सीएजी ) पर भी राफेल मामले में सरकार ने उसे सुप्रीम कोर्ट में अपनी दलीलों और हलफनामे से असहज किया, निर्वाचन आयोग तो प्रत्यक्षतः सरकार और सत्तारूढ़ दल के दबाव में दिख ही रहा है, जांच एजेंसियों की तफ़्तीशें गैर प्रोफेशनल तरह से की जा रही है, मीडिया लगभग मैनेज है, यह तो भला हो सोशल मीडिया, कुछ मीडिया संस्थानों और अखबारों का कि कुछ छुप नहीं पा रहा है, संघ लोकसेवा आयोग पर भी उंगली उठने ही वाली है अभी लैटरल इंट्री वाले संयुक्त सचिवों की नियुक्ति पर लोगों का ध्यान तो जाने दीजिए।
यह स्थिति इसलिए उतपन्न हो रही है कि राजनीतिक स्वार्थ पर जहां जो भी कानून बाधा बन रहा है उसकी अवज्ञा की जा रही है और यह प्रवित्ति जब सरकार में बैठे वरिष्ठतम लोगो की हो चली है तो कानून की धज्जियां उड़ेंगी ही। अक्सर कहा जाता है कि कानून सबके लिये बराबर है, पर कानून तभी तक दम खम रखता है जब तक कि उसका पालन हो और उसे उसी के प्राविधानों के अनुसार समाज मे लागू किया जाय। अन्यथा वह केवल नियम उपनियम अधिनियम आदि का पुलिंदा बनकर रह जायेगा । कानून के प्रति बढ़ते अवज्ञाभाव को रोकने की जिम्मेदारी उन संस्थाओं पर अधिक है जो इन कानूनों को लागू करने के लिये संविधान की तरफ से अधिकृत और शक्तिसम्पन हैं । कानून के प्रति बढ़ता हुआ यह  अवज्ञाभाव लोकतंत्र, समाज और देश तीनो के लिये हानिकारक है।

© विजय शंकर सिंह