ये जो झारखंड, बिहार और बंगाल में दंगे हो रहे हैं. इससे पहले तीन सालों में यही चीज़ मध्यप्रदेश, राजस्थान यूपी और हरियाणा में देखी जा रही थी. कि लोग नफ़रत का हर दम प्रदर्शन कर रहे थे. इसकी हज़ार वजह हो सकती हैं, पर एक मुख्य वजह जो मेरी नज़र में निकल कर सामने आई है. वो है “इस्लामोफ़ोबिया”. जी हाँ, इस्लाम और मुसलमानों के ताल्लुक से पैदा किया गया एक बेवजह का डर. जो बाद में नफ़रत में तब्दील कर दिया जाता है.
इस बीमारी से दुनिया का एक बड़ा हिस्सा ग्रसित है, मुझे यह बोलने से क़तई परहेज़ नहीं है, कि इस इस्लामोफोबिया को पैदा करने के लिए जितने ज़िम्मेदार दक्षिणपंथी ताक़तें रही हैं, उससे ज़्यादा ज़िम्मेदार देश का मीडिया और कुछ वो वामपंथी विचारधारा के लोग भी शामिल हैं जो धर्म के विरोध के नाम पर कुछ भी सोशलमीडिया में परोसे चले जाते रहे हैं.
बहुत पहले मैंने एक लेख में लिखा था, कि वामपंथ में दो तरह के लोग हमारे देश में पाए जाते हैं. पहले तो वो जो वामपंथ के फ्रांसीसी और चाईनीज़ वर्ज़न के फ़ोलोवर रहे हैं. दूसरे वो जो सिर्फ किसान, मज़दूर और शोषितों के लिए आवाज़ बुलंद करते नज़र आते हैं.
एक बड़ा तबक़ा है, ख़ास तौर से सोशलमीडिया में जिसका काम है मुस्लिमों को किसी दूसरे ग्रह से आये प्राणी की तरह प्रदर्शित करना. मुस्लिम समुदाय के ताल्लुक से ऐसे झूठी और मनगढ़त प्रथाओं का ज़िक्र करना, जिसका इस्लाम और मुसलमानों से कोई वास्ता नहीं है.
अगर कहीं कोई आतंकवादी घटना हो जाए, तो उसके लिए पूरे इस्लाम और मुसलमानों को कटघरे में खड़ा करने का काम भी इन महानुभावों के ज़रिये आप देख सकते हैं.
ऐसा नहीं है, कि इस्लामोफोबिया की ये बीमारी आज की बीमारी है. दरअसल ये बीमारी बहुत पहले से है. यह बीमारी इस्लाम के हर दौर में रही, हर नबी और पैगंबर व उनकी उम्मत को इस इस्लामोफोबिया की बीमारी से ग्रसित लोगों का शिकार होना पड़ा.
इस्लाम दीने इब्राहीमी (अब्रहामिक रिलीजन) है, इसकी जड़ें पैगंबर आदम अ.स.(एडम) से जा मिलती हैं. एक दौर था जब पैगंबर नूह एक ईश्वर की उपासना के लिए अपनी कौम के लोगों को बोल रहे थे, तब उन पर पत्थर बरसाए जाते थे. आपको पैगंबर यूसुफ़ अ.स. (जोसेफ़) और पैगंबर याक़ूब अ.स. (जैक़ब) का दौर भी पता होगा. मूसा, ज़करिया और ईसा मसीह अलैहिस्सलाम के दौर के बारे में भी आपने पढ़ा होगा, इन सभी पैगम्बरों को इसी तरह के झूठ का सामना करना पड़ा था.
मक्का में हज का समय था, लोग बाहर से आने वालों को बोला करते थे, कि मुहम्मद नामक शख्स के पास न जाना. उसका कलाम न सुनना, वो जादूगर है, कोई कहता कि शायर है. पर लोग सुनकर कहते, कि ये किसी शायर का कलाम नहीं हो सकता, जादूगर कहते कि ये जादू नहीं है. उस दौर में भी लोग हद दर्जे की कोशिशें किया करते थे, को नमाज़ पढ़ते समय ऊंट की ओझडी डालता था, तो कोई रास्तों में कांटे बिछाता था. ताईफ़ में तो पत्थर तक बरसाए गए थे. हज़रत बिलाल को तपती रेत में लिटा दिया जाता था.
जानते हैं, ये सब क्यों होता था, सिर्फ और सिर्फ इसलिये कि इस्लाम और मुसलमानों के ताल्लुक से वैसे ही झूठ और अफवाहें फैलाई जाती थीं. जैसा कि आज के दौर में सोशलमीडिया में हम देखते हैं. एक और बड़ी बात, कि वो इस्लाम के ऐसे फ़ोलोवर थे, कि उन्हें देखकर और उनसे मिलकर लोगों की गलतफहमियां दूर हो जाती थीं. पर आज ऐसा नहीं है, आज आप देखेंगे कि लोग नाम मुस्लिम रखते हैं, पर वो सारे काम अंजाम देते हैं. जिनसे इस्लाम रोकता है.
खैर अब बात करें – आज के दौर में फ़ैल रहे इस्लामोफ़ोबिया के संबंध में , यह बीमारी आज पूरी दुनिया में आम हो चुकी है. इसके संबंध में तरह – तरह से झूठ फैलाए जाते हैं. सबसे बड़ा डर आतंकवाद फैलाया जाता है. फिर हमारे देश के दक्षिणपंथी विचारधारा के लोगों ने एक नया टर्म गढ़ा ” लव जिहाद”. ये एक ऐसा बकवास मुद्दा था, जिसे न सिर्फ सोशलमीडिया बल्कि मेनस्ट्रीम मीडिया ने भी हवा दी. जबकि इनका वास्विकता से कोई लेना देना नहीं था, इस मुद्दे को इस तरह से हवा देने में ज़ी न्यूज़, आज तक और इंडिया न्यूज़ जैसे चैनल्स का बड़ा रोल रहा था. दरअसल लव मैरिजेज़ को धर्म के साथ जोड़कर एक साज़िश की तरह दिखाकर बेवजह का हव्वा खड़ा किया गया था.
आपने देखा होगा, पिछले कुछ समय से टीवी चैनल्स में रोज़ रात की डीबेट मुस्लिम समुदाय से संबंधित होती है. कभी -कभी किसी अन्य मुस्से में हो जाती हो तो वो दिन अपवाद होता है. इन डीबेट्स में कभी पर्दा, तो कभी तलाक़, तो कभी आतंकवाद और न जाने किन-किन मुद्दों पर बहस आम बात हो गई है. इसमें जो सबसे वाहियात बात लगती है. मौलवियों का इन डीबेट्स में हिस्सा लेना और बेवजह की बहस का हिस्सा बनना.
इन डीबेट्स में एक संघ प्रचारक, एक व्हीएचपी और बजरंग डाल का प्रवक्ता, टीवी एंकर और भाजपा प्रवक्ता मिलकर सिर्फ और सिर्फ एक काम करते नज़र आते हैं. वो है, कि इस्लाम ऐसा है. मुस्लिम समुदाय ये क्यों नहीं करता, वो क्यों नहीं करता. इस तरह की बयानबाज़ी से टीवी देख रहे लोगों के मन में इस्लाम और मुस्लिमों के लिए नफ़रत भरी जाती है. बची कुची कसर फ़िल्मों और टीवी सीरियल्स के विलेन की टोपी और आँख का काजल कर देता.
दरअसल वो इंसान जिसका मुस्लिमों से कोई नाता न रहा हो, या रहा भी हो तो कम रहा हो. बार-बार इन्हें देखकर वही सोच पैदा कर लेता है. उसकी नज़र में मुस्लिम मतलब दाऊद इब्राहीम है, उसकी नज़र में मुस्लिम मतलब फ़िल्म में दिखाया जाने वाला गनी भाई का कैरेक्टर है. आज की पीढ़ी की नज़र में मुस्लिम मतलब न्यूज़ चैनल में दिखाया जाने वाले आतंकवादी हैं. वो तो ये समझते हैं, कि बस ये जो दाढ़ी वाला शख्स है, ये बगदादी का रिश्तेदार है. उनकी नज़र में ये मांस खाने वाला बड़ा ही खूंखार है, इसलिये इसे गाय ले जाते देखो तो “अहिंसात्मक हिंसा” का प्रदर्शन करके उसे मार डालो. यही धर्म की रक्षा होगी. वो ये सिर्फ इसलिए करता है, क्योंकि उसके दिमाग में ये बैठा दिया गया है. ये जो लोग हैं ये तुम्हारे दुश्मन हैं. ये तुम्हे चैन से जीने नहीं देंगे.
उन्हें बताया जाता है, कि औरंगज़ेब ने मंदिर तोड़ा, पर ये नहीं बताया जाता कि उसने मस्जिद भी तोड़ा. उन्हें ये बताया जाता है कि महाराणा प्रताप और अकबर के बीच जंग हुई. पर ये नहीं बताया जाता है, कि अकबर की तरफ़ से मान सिंह लड़ रहे थे. उन्हें शिवाजी और अफज़ल खान की मुलाक़ात के बारे में ज़रूर बताया जाता है, पर उन्हें ये नहीं बताया जाता कि शिवाजी का अंगरक्षक और आईबी प्रमुख एक मुसलमान था. उन्हें ये बताया जाता है, कि टीपू सुलतान ने अंग्रेज़ों के अलावा मराठाओं से भी युद्ध लड़ा, पर ये नहीं बताया जाता है, कि जब मराठा फ़ौज हारकर लौट रही थीं, तो उन्होंने श्रृंगेरी मठ को नुकसान पहुँचाया तो मठ की हिफाज़त और जीर्णोद्धार के लिए श्रृंगेरी मठ के शंकराचार्य ने टीपू सुलतान को ख़त लिखा. जिसके बाद टीपू सुलतान ने न सिर्फ जीर्णोद्धार करवाया बल्कि मठ को सुरक्षा भी प्रदान की.
ऐसे बहुत से तथ्य हैं, जिनका प्रचार नहीं किया जाता. किया भी क्यों जायेगा. अगर इनका प्रचार किया जाने लगा, लोगों के दिलों से नफ़रत और बेवजह का डर ख़त्म नहीं होगा. वो जो अपने दिलों में ये डर पाले बैठे हैं, कि मुस्लिम ज़बरदस्ती धर्मपरिवर्तन करा देंगे. उन्हें बताईये कि इस देश में मुस्लिम 800 साल शासन किये हैं. अगर ज़ोर और तलवार की धार पर लोगों को मुस्लिम बनाया जा सकता, तो आज देश में 90 प्रतिशत से ज़्यादा लोग धर्म परिवर्तन कर लिए होते. क्योंकि उन्हें तलवार की ज़ोर पर मुस्लिम बना लिया जाता. पर याद रखियेगा धर्म और आस्था का संबंध दिल से होता है. यह इंसान तब ही परिवर्तित करता है, जब उसके दिल में उस धर्म के लिए आस्था का निर्माण हो जाता है. यह भी एक ऐसा टॉपिक है, जिसका उपयोग इस्लामोफ़ोबिया के लिए किया जाता है.
ऐसी बहुत सी बातें हैं, जो इस विषय पर लिखी जा सकती हैं, अगले लेख में इस्लामोफ़ोबिया के लिए वामपंथ और खुद को नास्तिक कहने वाला समाज किस तरह ज़िम्मेदार है, यह बताने की कोशिश करूँगा. तब तक इस लिख को ज्यादा से ज़्यादा शेयर करें.