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क्या नागरिकता संशोधन कानून का सारा खेल वोटिंग डेमोग्राफी को बदलने के लिए है ?

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जब आप कहते हैं कि धर्म आधारित नागरिकता देने से आप पर या छात्रों पर क्या असर पड़ता है तो या तो आप बेहद मूर्ख हैं या हद से ज़्यादा शातिर। कौन नहीं जानता कि नागरिकता संशोधन क़ानून का मक़सद क्या है?
इस काले क़ानून ने हिंदू-मुसलमानों के बीच विभाजन और अविश्वास बढ़ाने का अपना प्राथमिकता मक़सद तो बहुत हद तक हासिल कर लिया है, लेकिन इसका हिडन ऐजेंडा अब काम करेगा। दरअसल सीएबी और एनआरसी के पीछे पूरा गणित चुनाव जीतने और चुनाव जीतनू लायक़ निर्वाचन क्षेत्र तैयार करना है। हाल के वर्षो में हमने देखा है, कि ईवीएम और ईवीएम संचालित वालों की कृपा, पैसे के अथाह निवेश, साम्प्रदायिक/जातीय/भाषाई/इलाक़ाई ध्रुवीकरण, मोबाईलाइज़ेशन और नए परिसीमन के बावजूद कई निर्वाचन क्षेत्र ऐसे हैं। जहां इनका गणित सही नहीं बैठ पा रहा। सीएबी/एनआरसी इस मक़सद को बहुत हद तक कामयाब कर सकता है।
हाल के वर्षो में कम से कम गुजरात, कर्नाटक, दिल्ली, त्रिपुरा और महाराष्ट्र के चुनाव इस बात की शानदार नज़ीर हैं, कि डेमोग्राफी यानि स्थानीय जनसंख्या में हल्की सी छेड़छाड़ कितना फर्क़ डाल सकती है। पिछले गुजरात विधानसभा चुनाव में राज्य स्तर पर ख़राब प्रदर्शन के बावजूद सिर्फ चार शहरों, अहमदाबाद, सूरत, वडोदरा और राजकोट की 55 में से 44 जीतीं और सरकार बचा गई। इनमें अधिकतर सीटों पर हारजीत का फैसला स्थानीय गुजरातियों ने नहीं बल्कि यूपी बिहार के लोगों ने किया।
त्रिपुरा में बीजेपी को बिहार, बंगाल और ओडिशा के प्रवासियों से जीत मिली जो हिंदी पट्टी का अधकचरा राष्ट्रवाद लेकर वहां जा बसे हैं। असम और पूर्वोत्तर के दूसरे राज्यों में बंगाली और बांग्लादेशी हिंदू जीत का साधन हैं। गोवा, बंगाल और केरल में स्थानीय जनता को मज़हबी चरस से कुछ लेना देना नहीं मगर हिंदी पट्टी के गोबरीले वहां वोटों की फसल उगा रहे हैं। यही हाल जम्मू में भी है और चेन्नई, बेंगलुरू, सिकंदराबाद में भी। देश भर में कम से कम तीस से चालीस लोकसभा सीट ऐसी हैं जहां अब भी हारजीत का फासला पांच हज़ार वोट से कम है।
सीएबी/एनआरसी 2024 और शायद 2029 के चुनाव में इस समस्या का हल हो सकता है। मान लीजिए हर निर्वाचन क्षेत्र में अगर दस से पंद्रह साल आठ से दस हज़ार लोगों को नागरिकता के सवाल में उलझा लिया जाए और नागरिकता साबित करने तक डिटेंशन सेंटर में डालने के बजाय उनका वोटिंग अधिकार छीन लिया जाए? इतने भर से सत्ताधारी पार्टी चुनाव में हारी 50-60 पुरानी सीटों की भरपाई कर सकती है। गोधरा जैसी विधानसभा सीट जहां महज़ 98 वोट से जीत हासिल हुई है वहां दो हज़ार पाकिस्तानियों को नागरिकता देकर ये लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। तो कुल मिलाकर लक्ष्य बड़ा है। वो लोगों की परेशानी नहीं अगले पचास साल सत्ता में बने रहने की तमाम तिकड़मों पर काम कर रहे हैं।

नोट:- यह लेख लेखक की फ़ेसबुक वाल से लिया गया है और लेख की मूल भाषा से कोई भी छेड़छाड़ नहीं किया गया है
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