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भारतीय अर्थव्यवस्था “महान मंदी” (द ग्रेट डिप्रेशन ) की ओर बढ़ रही है

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भारत का निर्यात पिछले साल के इसी महीने के 26.07 अरब डॉलर से घटकर 25.98 अरब डॉलर रह गया। अक्टूबर के मुकाबले भी नवंबर में निर्यात कम हुआ है। इस साल अक्टूबर में भारत ने 26.38 अरब डॉलर मूल्य की वस्तुओं का निर्यात किया था। यह लगातार चौथा महीना है जब देश के निर्यात में गिरावट आई है। वर्ष 2014 से लेकर मार्च 2018 तक के चार वर्षों के दौरान निर्यातों में शुद्ध वृद्धि शून्य रही है।
साल 2013-14 में भारत का निर्यात 314.88 अरब डॉलर के शीर्ष स्तर पर पहुंच गया था, पाँच सालो के बाद 2018-19 में जैसे तैसे यह 331 अरब डॉलर को छू पाया था, लेकिन 19-20 में हालात फिर से खराब हो गए हैं। भारत का निर्यात सरकार द्वारा उठाए गए दो महत्वपूर्ण कदमों (जीएसटी-नोटबंदी) की वजह से प्रभावित हुआ है। यह बात पीएचडी चैम्बर ऑफ कॉमर्स ने भी अपनी रिपोर्ट में कही है।
मोदी सरकार में कुछ साल पहले तक मुख्य आर्थिक सलाहकार की जिम्मेदारी निभाने वाले अरविंद सुब्रमण्यन ने स्पष्ट रूप से कह दिया है, कि भारतीय अर्थव्यवस्था “महान मंदी” (द ग्रेट डिप्रेशन the-great-depression ) की ओर बढ़ रही है। देश की अर्थव्यवस्था ICU में जा रही है। उन्होंने दोहरे बैलेंस शीट की समस्या को इंगित करते हुए सरकार को बड़ा खामियाजा भुगतने की चेतावनी दी है। सुब्रमण्यन ने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट के एक ड्राफ्ट वर्किंग पेपर में कहा है, कि वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था को ट्विन (दोहरे) बैलेंस शीट (टीबीएस) संकट की “दूसरी लहर” का सामना करना पड़ रहा है, जो कि “महान मंदी” के रूप में है।
ग्रेट डिप्रेशन 1930 की मंदी को कहा जाता है जो विश्व का सबसे बड़ा आर्थिक संकट माना जाता है। अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व की गलतियों के चलते 1929 से 1933 के बीच देश की मौद्रिक आपूर्ति में 30 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई थी।  जिसके चलते वैश्विक मंदी की शुरुआत हुई थी। यह सन 1929 से के लगभग शुरू हुई और 1940 तक चली इस घटना ने पूरी दुनिया में ऐसा कहर मचाया था, कि उससे उबरने में कई साल लग गए। उसके बड़े व्यापक आर्थिक व राजनीतिक प्रभाव हुए। फासीवाद के उभार के लिए भी इस महामंदी को जिम्मेदार ठहराया जाता है।
पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे अरविंद सुब्रमण्यम पहले भी लगातार इस तरह की चेतावनी जारी करते रहे हैं, वह पहले भी बोल चुके हैं कि ‘भारत को कुछ समय की आर्थिक मंदी के लिए तैयार रहना चाहिए’। पिछले साल ऑफ काउंसेल : द चैलेंजेज ऑफ द मोदी-जेटली इकोनॉमी के विमोचन के मौके पर उन्होंने कहा था, कि नोटबंदी और जीएसटी लागू किये जाने से देश की अर्थव्यस्था की रफ्तार मंद हुई। उन्होंने कहा कि बजट में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) से राजस्व वसूली का लक्ष्य तर्कसंगत नहीं है। “बजट में जीएसटी से वसूली के लिए जो लक्ष्य रखा गया है, वह व्यवहारिक नहीं है। मैं स्पष्ट तौर पर कहूंगा कि बजट में जीएसटी के लिए अतार्किक लक्ष्य रखा गया है। इसमें 16-17 प्रतिशत (वृद्धि) की बात कही गयी है।”
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है, कि अब बड़े बड़े अर्थशास्त्री भी यह बात स्वीकार कर रहे हैं कि यह साइक्लिकल स्लोडाउन या चक्रीय आर्थिक सुस्ती नही है। यह शार्ट टर्म की सुस्ती नही है, जो अर्थव्यवस्था की गतिविधियों के कमजोर पड़ने के दौर में आती है। कारोबारी चक्र में बदलाव के साथ ही खत्म हो जाती है। यह स्ट्रक्चरल स्लोडाउन है, यह ऐसी मंदी है जो लंबे समय तक चलती यह संरचनात्मक सुस्ती ज्यादा जड़ तक घुसी समस्या होती है। यह अर्थव्यवस्था में व्यापक बदलाव की वजह से होती है। और  नोटबन्दी ओर जीएसटी लागू किये जाना वैसे ही बदलाव है…….. देश ग्रेट डिप्रेशन में फंसने वाला है यह एक तल्ख हकीकत है।

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