एक तरफ भाजपा ने अगर मेहनत करके राहुल गांधी की छवि पप्पू जैसी बनाई है तो दूसरी तरफ भाजपा के बहुत सारे विरोधियों को राहुल गांधी की कार्यशैली पसंद नहीं है। ऐसे लोग अपनी पसंद-नापसंद बताते रहते हैं पर मुझे नहीं लगता कि राहुल गांधी को फर्क पड़ता है। फर्क पड़ना होता तो ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस नहीं छोड़ते। और फर्क पड़ना होता तो सचिन पायलट यहां तक नहीं पहुंचते। आप कह सकते हैं कि राहुल गांधी की कार्यशैली ठीक नहीं है और उन्हें इसका नुकसान होगा। मुझे लगता है कि हो चुका। अमेठी से हार जाना साधारण नहीं है। पर क्या उससे भी फर्क पड़ा।
मुझे नहीं लगता कि सत्ता के लिए वे भाजपा या नरेन्द्र मोदी जैसी राजनीति करेंगे। किसी अमित शाह को सलाहकार बनाएंगे। हो सकता है उन्हें इसकी जरूरत नहीं लगती हो और जिस राजनीति से वे सत्ता पाना चाह रहे हैं उससे उन्हें सत्ता नहीं मिले। पर सत्ता के लिए वे अपनी राजनीति नहीं बदलेंगे। वे अपनी राजनीति बताते-दिखाते रहते हैं। वे अपना फर्जी प्रचार करके, झूठ बोलकर और खुद को काबिल या 56 ईंची वाला नहीं बताएंगे। उसका समय निकल गया। जुमलों से कुर्सी पाकर, विधायक खरीदकर सरकार बनाना होता तो वे मनमोहन सिंह की जगह बन गए होते और पांच साल यही सब करते।
पैसे या पद के लिए काम करने वाले उनके साथ भी हो सकते थे। अगर उन्हें इसकी जरूरत होती तो ऐसा कोई उनका साथी होगा। आप उनके साथियों को देख लीजिए। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस में चाणक्यों या रंगा-बिल्ला की कमी है। यहां तो जरूरत पड़ने पर तुरंत हवाई जहाज हाईजैक करने वाली प्रतिभा रही है। और भाजपा ने हाईजैक को कैसे हैंडल किया और कैसे हिल गए थे यह सब किसी से छिपा नहीं है। राहुल गांधी ने चुनाव से पहले अपनी न्याय योजना, कोरोना के मौके पर अपने ट्वीट से पूर्व योजना की जरूत, चीन के मामले में सख्ती और राजीव गांधी फाउंडेशन पर आरोप लगने तथा जांच बैठाए जाने पर अपनी प्रतिक्रिया से अपना व्यक्तित्व दिखा दिया है।
वह लिजलिजा या हवा भरा हुआ नहीं है। ठोस लगता है। ठोंकने-बजाने के लिए तैयार। पर आप फूंकना चाहेंगे तो मुंह लगाने की जगह नहीं मिलेगी। जब कांग्रेस मुक्त भारत की बात की जा रही हो तब भाजपा को हराने की बात कोई साक्षी बख्शी जैसा ‘लोकप्रिय’ नहीं कर सकता है। लोकतंत्र में जिस आस्था की जरूरत है उसे दिखाना और जीना पीएम केयर्स वालों के बूते का नहीं है। जहां तक इनकी ईमानदारी उनके भ्रष्टाचार की बात है, यह कहने की जरूरत ही नहीं है कि कौन कम और कौन ज्यादा भ्रष्ट है। मेरा सवाल यह है कि इनकी ईमानदारी से हमें क्या मिला और उनके भ्रष्ट होने से हमारा क्या गया?
अगर अपने आने जाने की बात करूं तो 1987 में नौकरी शुरू करके मैंने 2002 में 23 लाख का फ्लैट खरीद लिया था और 2014 से पहले 12 लाख का कर्ज लौटा दिया था। वह फ्लैट 2014 में डेढ़ करोड़ का था, 2016 में एक करोड़ 35 लाख में नहीं बिका और अब सवा लाख में नहीं बिकेगा। अगर आप समझना जानना चाहें तो अपने ऊपर लागू करके देख लीजिए आपने क्या गवांया क्या पाया। सरकार चलाने, हर नागरिक के लिए कुछ काम करने और अच्छा भाषण देने में फर्क है। प्रचार से आप फेयर एंड लवली बेच सकते हैं पर बिकना उसे भी पड़ा। चुनना आपको है। जो भाषण नहीं देना चाहता वह भाषण क्यों दे और आपको काम की जरूरत नहीं है तो उसे विदेश नहीं जाना। घूमने का शौक नहीं हो, डिजाइनर सूट पहनना नहीं हो या उपहार देने के लिए मां, बहन ही पर्याप्त हो तो वह नाटक-नौटकी क्यों करे। मैं नहीं कह रहा कि मुझे राहुल गांधी शत प्रतिशत पसंद या ठीक लगते हैं। पर आपके पास विकल्प नहीं है। अगर नरेन्द्र मोदी से खुश हैं तो खुश रहिए। राहुल के बदलने की उम्मीद मत कीजिए।