रवीश कुमार उन चंद शख़्सियतों में से एक है जिन्होंने मुझे उस वक़्त मुतासिर किया था जब मैं ग्यारहवीं क्लास में था और हिस्ट्री और पोलिटिकल साइंस को अपना फेवरेट सब्जेक्ट बनाने की कोशिश कर रहा था,और जर्नलिज़म(पत्रकारिता) का मतलब न के बराबर समझता था।
लेकिन फिर एक दिन टीवी चैनल्स बदलते हुए मुझे एनडीटीवी पर एक शख्स दिल्ली की झुग्गियों में लोगों से बात करता दिखा मैने चैनल रोक दिया और रिमोट हाथ से रख दिया,मैं बहुत गौर से देख रहा था कि कैसे इतने बड़े न्यूज़ चैनल में काम करने वाला शख़्स एक माइक लिए लोगों से समस्याओं को जान रहा था।
मेरे लिए यह रोमांचक था,अजीब था,अलग था,क्यूंकि आखिर कैसे कोई “पत्रकार” यह सब कर रहा है,इतनी मेहनत कर रहा है,यह सोचने वाली बात है,और यह बात मैं तब और बेहतर तरह से समझ पाया जब मैं खुद पत्रकारिता पढ़ने दिल्ली यूनिवर्सिटी गया,मैंने वहां पत्रकारिता पढ़ी,समझी जानी और देखी तब बहुत कुछ समझ आया।
उस वक़्त मैं रवीश कुमार को समझ पाया कि यह शख़्स और बहुत बड़ी भीड़ से अलग है,बहुत अलग है,यह शख्स गरीब की झोपड़ी मे जाकर उसकी समस्या को बता सकता है, इलेक्शन के वक़्त लाखों रुपये के बने ऑफिसेस में बैठकर जीत हार का फैसला नही करता है,चाय की टपरी,चौक, चौराहों और गलियों में जाकर लोगों से उनकी राय जान सकता है।
जब मैंने कल प्रेस डे वाले दिन “बोलना ही है” अमेज़न से आने के बाद उठाकर उसकी भूमिका पढ़ी तो जैसे मेरे करियर के पिछले चार से पांच साल मेरी आंखों के सामने घूमते हुए नज़र आये,की सच मे रवीश कुमार “उम्मीद” है, और सेकड़ों पत्रकारों में उन चुनिंदा में से एक है जिनमे गैरत बाकी है।
लेकिन इन सब के बावजूद “मैं रवीश कुमार का फैन नहीं हूं”, मैं इस बात को ईमानदारी से कबूल करता हूँ क्योंकि मैं एक उम्मीद बनाये रखना चाहता हूं,वो उम्मीद जिसकी कोशिश मे खुद रवीश कुमार है भी, अभी किताब की भूमिका पढ़ी है तो ही इतना सब कुछ बयान कर दिया बाकी पूरी किताब के बाद..
“बोलना ही है” ज़रूर ख़रीदीये और पढिये क्यूंकि यह एक डॉक्यूमेंट है जो बार बार पढा जायगा.