हम भारत के लोग,यानी हम भारतीय,130 करोड़ भारतीय वही भारतीय जो अब “आज़ादी” के सत्तर साल पुरे करने जा रहें है,अपने देश के “बड़ों” की विरासत को आगे ले जा रहें है और,दिन दूनी रात चोगुनी तरक्की करने की कामना से काम रहें है,सब अपनी अपनी जगह काम कर रहें है,यानि सब अपना काम कर रहें है,और देश तरक्की भी कर रहा है.
लेकिन इस आज़ादी के सत्तर सालों के बीच और इस तरक्की के बीच कहीं हम कुछ भूलें तो नहीं है? अगर भूल गएँ है तो क्यूँ न याद कर लें,क्यूंकि देश के लिए चल रहें जश्न में देश ही को याद किया जाएगा ,क्यूंकि जो संविधान हम 130 करोड़ की आबादी को “हम भारत के लोग” कहने की आज़ादी देता है वही सबके बराबर हक को अदा करने की बात को भी कहता है तो चलिए आज़ादी के सत्तर सालों के जश्न के माहोल में कुछ सवाल खुद से ही करते है,क्यूंकि ये सवाल “देश” के लिए है.
हम भारतीय बहुत फख्र से खुद को “कृषि” प्रधान देश कहते है और कहा जाना भी ज़रूरी है क्यूंकि हमारे देश में करोड़ों की तादाद में किसान है और खेती करते है,लेकिन क्या “कृषि प्रधान” देश के कृषि करने वालों पर हम ध्यान देते है? क्या हम ध्यान देतें है की वो क्यूँ मर रहें है? क्या हम इस बात को ध्यान में रख रहें है की देश को “अन्न” देने वालों के घर में “अन्न” है भी या नही?
ये सवाल नही पूछता हूँ कुछ और पूछता हूँ ,की क्या आप ध्यान दे रहें है की किसानों पर कितनी खबरें आपने पढ़ी है? शायद पढ़ी भी न हो क्यूंकि सुबह सुबह व्हात्सैप पर जोक पढ़ा जाना ज्यादा ज़रूरी है,किसानों की बात नही,चलिए आप ध्यान मत दीजिये इस बात पर क्यूंकि “आज़ादी” के सत्तर साल के जश्न में तिरंगी फोटो अपने फोन में लगायें आप कही नकारात्मक न हो जाएँ.
किसानों की बात से हट जातें है,’विश्वगुरु’ बनने की कामना रखने वाले हम भारतीय हम 130 करोड़ भारतीय कितने जागरूक है क्या इस बात का अंदाजा है हमे? नहीं है तो थोडा जागरूक हो जाएँ और सड़कों पर हो रहें है.
“इंसाफ” की बात करें जो सरकार,संविधान,कानून और लोकतंत्र के लिए भयंकर होता जा रहा है,इस देश के इतिहास पर,इस देश के अमनपरस्त इतिहास को छन्नी कर रहा है,और खुद ही न्यायालय के “जज” की भूमिका में आ गया है,क्या बात करें उस “भीड़” पर जो “खून की प्यासी” हो रही है? आखिर केसे बात न हो “गाँधी” का ये देश सवाल तो करना जानता ही है,सत्तर साल की आज़ादी के बाद भी ऐसा क्यों ?
देश की आज़ादी को सत्तर साल होने को आयें है,और एक वक़्त देश के प्रधानमन्त्री ने कहा था की “सरकारें आएँगी जाएँगी,पार्टियाँ बनेगी बिगडेंगी लेकिन ये देश रहना चाहिए” और इस लिए इस देश की तमाम अवाम से सवाल है की जो आज़ादी हमे मिली थी उस पर हम कितनी ईमानदारी बरत रहें है.
देश के आज़ाद होने का हम कितना हक अदा कर रहें है? या सिर्फ “प्रवक्ता” बन रहें है पार्टियों के,विचारधाराओं के और सरकारों के? क्यूँ हम देश के लोकतंत्र को जिंदा रखने में कतरा रहें है? क्यूँ हर एक बात का जवाब सरकारों से नहीं मांग रहें है?
क्यूँ हम किसी भी पार्टी के “गुलाम” बन रहें है? और अगर सिर्फ पार्टी के गुलाम बन रहें है और किसी भी एक को नुकसान पहुंचा रहें है और उसे सवाल करने,बात करने से रोक रहें है तो जाने या अनजाने में ही सही हम खुद ही “अम्बेडकर” के बनायें संविधान के विरुद्ध जा रहें है,’गाँधी’ के विचारों के विरुद्ध जा रहें है और ‘भगत सिंह’ के खिलाफ खड़ें हो रहें है क्यूंकि हम खुद ही सब कुछ तय कर रहें है, और खुद ही फैसला कर रहें है और इस तरह “आजादी” की कीमत पर लोकतंत्र को खत्म कर रहें है.
ये सब सवाल आप से है सुनने वालों से है,पढने वालों से है ट्विटर पर फेसबुक पर “दरोगा” बनने वालों से है,और “देशभक्ति और देशद्रोही” होने से लेकर “भीड़” बन रहें है उनसे है, और उस आज़ाद भारत के लिए है हर एक शहीद स्वतंत्रता सेनानी,आंदोलनकारी के लिए है जो देश को “आज़ाद” करना चाहते थे लेकिन सिर्फ हमारे ही लिए इस दिन को देखें बिना ही देश के लिए कुर्बान हुए,उनके लिए है क्यूंकि देश जितना बेहतर है हमे उसे उतना ही बेहतर बनाना है.
क्यूंकि ये देश सभी का है,बराबर है इसलिए देश के लिए देशी ही की बात देश ही के दिन करना ज़रूरी है,बहुत ज़रूरी है बहुत अहम है,क्यूंकि हम भारतीय 130 करोड़ एक साथ एक ‘गुलिस्तां’ की तरह है जहाँ अलग अलग तरह के फूल खुबसुरत लगते है,और जिस तरह हर एक फूल एक जेसा बेहतर नही सकता है.
लेकिन सब अपनी अपनी जगह खुबसुरत है इसलिए अगर इस गुलिस्तां को हमे खुबसुरत बनाना है तो हमे हर एक का ध्यान रखना है और इस आज़ादी के दिन हमें हर एक “फूल” को खुबसुरत बनाना होगा और याद रखिये हमे ही बनाना होगा.
शुक्रिया.
(यह लेख लेखक के पर्सनल ब्लॉग “हम हिन्दुस्तानी” पर भी पढ़ा जा सकता है)
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