बचपन उम्र से तय होता है। बचपना कई सवालों की खोज होता है। मनोविज्ञान हमेशा ‘तलाश’ शब्द के इर्द गिर्द घूमती है। जो चीजें समझ नहीं आती बचपन उसके पीछे बेतरतीब हो कर भागता है। एक जवाब ढूंढते ही दूसरे सवाल के जवाब की तलाश में बचपना खोया रहता है।
हामिद एक ऐसे कश्मीरी बच्चे की कहानी है। यहाँ शायद ‘एक’ कहना गलत होगा दरअसल ‘हामिद’ बहुत सारे कश्मीरी बच्चों की कहानी है। हामिद उनका प्रतिनिधि है। सिनेमा कश्मीरियों की जीवटता को दिखाते हुए शुरू होता है यानी “आई स्ट्रगल, आई फाइट, आई विन।“
हामिद सात साल के बच्चे की कहानी है, जिस पर से पिता का साया छुट्टपन में उठ जाता है। पिता को ढूंढने की कोशिश से फ़िल्म शुरू होती है जो कश्मीर और कश्मीर की जिंदगी को रेखांकित करते हुए आगे बढ़ती है।
सात साल का बच्चा गायब हो गए पिता या गायब कर दिए गए पिता की तलाश किस तरह से कर सकता है? हमारे आपके जीवन में बाप बच्चे की तलाश करता है, बाहर जाने पर वापस आने की चिंता हमारे पिता को सताती है। लेकिन हामिद का जीवन उल्टी धारा में बहता है। यानी कि सात साल के बच्चे पर अपने बाप को ढूंढने की जिम्मेदारी है। हामिद किसी सोशल कॉन्ट्रैक्ट के तहत अपने पिता की तलाश नहीं करता,बल्कि पिता के प्यार को पाने की चाहत लिए आँखें पिता की तलाश में खोई रहती है।
हामिद को अपने पिता की तलाश में अल्लाह सबसे बड़ा मददगार दिखाई देता है क्योंकि उसे बताया जाता है अल्लाह कुछ भी कर सकता है, अल्लाह किसी को वापस भेज सकता है या किसी को मौत के घाट उतार सकता है। अल्लाह की तलाश उसे इंडियन आर्मी के जवान तक पहुंचा देती है। यहाँ निर्देशक ने बड़ी ही चालाकी से दिखाने की कोशिश की है कश्मीर मे इंडियन आर्मी ही खुदा का पर्याय है।
फ़िल्म छोटे छोटे दृश्यों के माध्यम से कश्मीर के हालातों को बयां करती है और उसमे सफल भी नजर आती है। हामिद फ़ोन के जरिये इंडियन आर्मी के एक जवान को अल्लाह मान कर बात करता है।जब हामिद को पता चलता है, वह जिसे अल्लाह मान बैठा है, वो दरअसल इंडियन आर्मी का एक जवान है। इंडियन आर्मी के जवान की आवाज हामिद के फ़ोन में गूंजती है- “मैं अल्लाह नहीं तुम्हारा दुश्मन हूँ और तुम मेरे”। निर्देशक इस दृश्य के माध्यम से भारतीय राज्य और कश्मीर के रिश्ते को स्पष्टता प्रदान करने की कोशिश की है।
मैं कभी कश्मीर नहीं गया , कश्मीर को किताबों के जरिये ही देखा है।यूँ भी दिल्ली में बैठ कर कोई राय कायम करना उचित नहीं है। हमारे जहन में कश्मीर में नेहरू हैं, शेख अब्दुल्ला हैं, जिन्नाह हैं और फूल, पौधे, वादी, घाटी का सुन्दरतम दृश्य है। लेकिन हामिद की कश्मीर ये तीनों नहीं हैं, प्राकृतिक सुंदरता तो है लेकिन उसे कुचलने वाली बख्तर बन्द गाड़ियां भी हैं।इन गाड़ियों से न सिर्फ वादी की प्राकृतिक सुंदरता रौंदी है बल्कि, हामिद जैसे कितने ही बच्चों की जिंदगी को जहन्नुम बनाया है।
हामिद के लिए कश्मीर सुखद एहसास नहीं है। कश्मीर का प्रत्येक घर जेल है, जहां किसी न किसी के इंतजार में घर के बाकी सदस्य जिंदगी गुजार रहे हैं। हामिद के कश्मीर मे दीवारें हैं, छत है, चाहे दीवारें इट की हो या लड़की की, छत टिन की हो या कंक्रीट की, सब एक समान है, सभी घरों से कैदखाने की बू आती है। उस कैदखाने मे इंतजार है किसी के लौट आने का। लगता है फ़ैज़ कश्मीर के कश्मीर के सभी घरों में चुकुमालि बैठे हैं और गुनगुना रहे हैं चमन पे ग़ारते-गुलचीं से जाने क्या गुज़री, क़फ़स से आज सबा बेक़रार गुज़री है।
हामिद की कहानी आई से वी की तरफ बढ़ती है। वह वी वांट फ्रीडम की जैसे नारों से आज़ादी की आकांक्षा को दिखाती है। हालांकि यह सवाल जहन में आता है कि परिस्थितियों के हिसाब से क्या यह मांग जायज है? जी हाँ हामिद ऐसे कई सवालों के साथ आपको छोड़ कर जाता है।
हामिद देखते हुए कई बार हैदर मूवी याद आती है। कई बार लगता है हामिद छोटे हैदर की कहानी है। सिनेमा देखते समय मन में सवाल कौंधता है, क्या हामिद से हैदर बनने यही प्रक्रिया है?, मेरा जवाब हाँ है। आपका जवाब क्या है? यह तय करने के लिए फ़िल्म देखना जरूरी है।जरूरी है कि सिनेमाघरों मे या फिर मोबाइल स्क्रीन पर ही सही मगर हामिद देखी जाए।हामिद उन बच्चों की कहानी है, जिनके जवान होते ही हाथों में पत्थर होता है। उनके हाथों में पत्थर क्यों है? इस सवाल का जवाब फ़िल्म देखने पर ही मिलेगा।