हम लोग बिहार के जिस इलाक़े मे पैदा हुए, पले, पढ़े और बढ़े वहां देसना, अस्थावं और गिलानी एक एैसा नाम है जिसे बड़े ही इज़्ज़त से लिया जाता है। जिसकी तआरुफ़ ही इस तरह होती है के ये सैयद सुलैमान नदवी (र.अ.) का गांव है और ये सैयद मनाज़िर अहसन गिलानी साहेब का गांव है, यहां फ़लां सहेब पैदा हुए। ख़ास कर उस वक़्त जब आप उर्दु घरानो से तालुक़ रखते हो; जहां उर्दु बोली, पढ़ी और लिखी जाती हो। अगर आपकी रिशतेदारी बिहार शरीफ़ मे है तो “तारीख़ ए बारह गांवां” ज़रुर सुनने को मिल जाएगा। कभी ज़मीनदारी और दौलत की बात नही होगी; हमेशा यही सुनने को मिलेगा के किस गांव से कौन स्कॉलर पैदा हुआ।
लेकिन जैसे जैसे एक नई जनरेशन आ रही उसे अपने फ़ियुचर की तो फ़िक्र ही नही तो तारीख़ (इतिहास) क्या ख़ाक जानेगी ?? आज गुगल ने डुडल बना कर अब्दुल क़वी देसनवी साहेब को यौम ए पैदाईश पर ख़िराज ए अक़ीदत पेश किया। कुछ लोग इसे बिहार अस्मिता और पहचान से जोड़ रहे हैं तो कुछ उनकी इस बात पर ले रहे हैं और ये कह रहे हैं के अब्दुल क़वी देसनवी को फ़लां फ़लां शहर ने बनाया। लेकिन हक़ीक़त यही है कोई किसी को नही बनाता है, लोग बन जाते हैं।
मगध के इलाक़ो को हमारे बुज़ुर्गों ने अपना मरक़ज़ बनाया और इस इलाक़ो को मज़हबी, समाजी, इल्मी और तहज़ीबी एैतबार से काफ़ी बावक़्क़ार कर दिया। 1800 के बाद बिहार के मुसलिम समाज से जितने भी अहम शख़्सयत और हस्तीयां उभरीं वो इसी इलाक़े मे पैदा हुईं. यही वजह है की अब्दुल क़वी देसनवी मगध के उसी देहात की पैदावार हैं जिसने फ़ज़लेहक़ अज़ीमाबादी (शाहुबिघा), डॉ अज़ीमुद्दीन (क़ाज़ीसराए अमथवा) जसटिस शरफ़ुद्दीन, सैयद अली ईमाम, सैयद हसन ईमाम (नेयोरा), मौलाना मज़हरुलहक़ (बहपुरह), मोहम्मद युनुस (पनहरा), सर सुलतान अहमद (पाली) शाह ज़ुबैर (अरवल) मौलाना अबुल मुहासिन मोहम्मद सज्जाद (पनहस्सा) मौलाना सैयद सुलैमान नदवी (देसना), मौलाना मुनाज़िर हसन (गिलानी) डॉ अब्दुर्रहमान (डुमरांव) जैसे मुजाहिद डाक्टर और हकीम अब्दुल क़्युम (दनियवां) हकीम क़ुतुबुद्दीन (मुक़तीपुर) और हकीम मोहम्मद इदरीस (बहरावां) हकीम अबदुर्रऊफ़ (दानापुर) जैसे अज़ीम लोगो को पैदा किया और जिन्होने अपनी इल्म ओ फ़ज़ल से सिर्फ़ बिहार ही नही पुरे मुल्क को मुनव्वर किया।
आबादी पांच से दस फ़िसद थी लेकिन तहज़ीबी बरतरी की वजह कर इस पुरे इलाक़े मे समाजी तौर पर उनका बड़ा दबदबा और असर रखते थे। चंद घर के छोटे छोटे मुस्लिम बस्तीयों मे भी एैसे आ़लिम व अदीब, हकीम व दनिशवर हस्तीयां मिल जाती थी जो अपनी तहज़ीबी रवायत को सीने से लगाए अपने ख़्दमत ए ख़ल्क़ के जज़बे की बदौलत अपने हमवतनो के लिए ख़ैरो बरकत का सबब बने हुए थे.. लेकिन ये ज़्यादा दिनों तक नही चल सका…!
कलेजा थाम लो, रुदाद ए ग़म हमको सुनाने दो,
तुम्हे दुखा हुआ दिल हम दिखाते हैं, दिखाने दो.
28 अक्तुबर 1946 से 9 नवम्बर 1946 तक चले फ़साद मे सैंकड़ों गांव तबाह कर दिए गए, 30000 ऑन रिकार्ड मारे गए। गैर सरकारी आंकड़े लाख तक जाती हैं। तिलहाड़ा, मुबारकपुर, घोरहवां जैसे कई गांव का नामोनिशान मिटा दिया गया जहां पिछले 500 साल से लोग रहते आ रहा थे। 1946 के फ़साद के बाद सब ख़त्म, बड़ी तादाद में लोग हिजरत (पलायन) कर गए।
अब्दुल क़वी देसनवी भी उसी मे एक थे। आपने या आपके शहर ने अब्दुल क़वी देसनवी को कुछ नही दिया। बल्के उन्हे उनके ही अपने इलाक़े ने उजाड़ दिया। अगर यक़ीन ना आए तो देसना की अल-इस्लाह उर्दू लाइब्रेरी की टुटी चौखटो से पुछ लेना। सच्चाई यही है दोनो साईड के लोग पहले कभी नाम भी नही सुने होंगे, बस क्रेडिट क्रेडिट खेल लिया। मेरे लिए अब्दुल क़वी देसनवी आज भी वही हैं जो पहले थे।
अगर अब्दुल क़वी देसनवी के उरुज की बात होगी तो मगध के ज़वाल की भी बात होगी। क्युंके इस फ़साद ने हमारी पुरानी बस्तीयों को बिलकुल ही ख़त्म कर दिया और बिहार के उस शफ़क़ती मरकज़ को बिलकुल बरबाद कर दिया जिससे हमारे बुज़ुर्ग रौशनी और क़ुवत हासिल करते थे। यहां तक के इस फ़साद मे मगध के के उस देहाती तहज़ीब को ही हमेशा के लिए ख़त्म कर दिया जिस पर यहां के हिन्दु और मुसलमान दोनो को नाज़ था। बाक़ी #जय_मगध