नज़रिया – नफरत के वायरस से भी लड़ो भाई !

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ये पंक्तियां लिखे जाने तक देश द्वारा कोरोना के विरुद्ध छेड़ी गई लड़ाई में सफलता के आसार नजर आने लगे हैं। लाॅकडाउन से पहले के लिहाज से देखें तो इस वायरस के संक्रमण की रफ्तार आधी से भी कम रह गई है। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार संक्रमितों की जो संख्या पहले हर तीसरे दिन दोगुनी हुई जा रही थी, अब साढ़े सात से ज्यादा दिनों में दो गुनी हो रही है। स्वाभाविक ही इससे देशवासियों का यह विश्वास प्रबल हुआ है, कि आज नहीं तो कल हम इस वायरस को उसकी हैसियत बता ही देंगे।

लेकिन इस बीच एक और खतरनाक वायरस हमारी सामाजिक सुख-शांति का दुश्मन बनकर तेजी से बढ़ता चला आ रहा है और काबू में आने को तैयार नहीं है। यह नफरत का वायरस है, जिसके बारे में हम किसी और देश पर यह आरोप भी नहीं लगा सकते कि उसने इसे अपनी प्रयोगशाला में बनाया और हमारे देश में फैला दिया।

दुर्भाग्य से यह हमारे ही देश की उन शक्तियों द्वारा अपनी प्रयोगशालाओं में किये गये बदनीयत अनुसंधान की संतान है, जो अपने हर कौतुक के लिए धर्मों व सम्प्रदायों के बीच दुश्मनी के नुक्ता-ए-नजर पर ही निर्भर करती हैं। इन शक्तियों की ‘अनुकम्पा’ से आज यह वायरस न सिर्फ बड़ी संख्या में नागरिकों के मन-मस्तिष्क को दूषित कर रहा बल्कि परस्पर भय व अविश्वास के तरह-तरह के गुल खिलाता हुआ कोरोना को भी हिन्दू-मुसलमान बनाने पर आमादा है और बहुत हद तक अपने मन्सूबे पूरे करता नजर आ रहा है।

इसके चलते यह सवाल कहीं ज्यादा धारदार होकर हमारे सामने है कि इसको रोका नहीं गया तो देश और समाज के तौर पर हमारा भविष्य क्या होगा? खासकर तब, जब सरकारें अपनी सारी शक्ति कोरोना से लड़ने में ही खर्च कर दे रही हैं और इस को लेकर गम्भीर नहीं हैं। उनके पास इस पर काबू पाने की कोई सुविचारित कार्ययोजना नहीं ही है, कई बार वे उसके पक्ष में या उसके प्रति बहुत सहिष्णु भी दिखाई दे रही हैं।

उनकी यह ‘सहिष्णुता’ नफरत को कितनी आगे खींच लाई है, इसे इस तथ्य से समझा जा सकता है कि गुजरात में अहमदाबाद के सिविल अस्पताल में कोरोना संक्रमित मरीजों और संदिग्धों के धर्म के आधार पर उनके अलग-अलग वार्ड बना दिये गये हैं, जिनमें हिंदू मरीजों को अलग और मुस्लिम मरीजों को अलग वार्ड में रखा गया है। पिछले दिनों कुछ पत्रकारों ने इसे संविधान विरुद्ध बताकर इस पर सवाल उठाया तो अस्पताल प्रशासन ने निडर होकर कह दिया कि उसने प्रदेश सरकार के कहने पर ऐसा किया है और इसके कारण उसी से पूछे जाने चाहिए। लेकिन प्रदेश सरकार से पूछा गया तो उसने यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि  उसे तो मामले की जानकारी ही नहीं है।

यह और बात है कि जानकारी मिलने के बाद भी उसने अस्पताल प्रशासन के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया, जिससे मामले को लेकर दोनों की मिलीभगत का पता चलता है। इसका भी कि दोनों में से किसी को भी इस तरह अलग-अलग वार्ड बनाये जाने में कुछ अनुचित नहीं लगता। यह बताये जाने से भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा है कि नागरिकों में धर्म और मान्यता के आधार पर ऐसा पृथक्करण संविधान के अनुच्छेद 14,15 और 51ए (सी,ई,एफ,एच) का साफ उल्लंघन है।

लेकिन अफसोस कि जो महामारी अमीर नहीं देख रही, गरीब नहीं देख रही, जाति या धर्म भी नहीं देख रही और पूरी मानव सभ्यता पर कहर बनकर टूट रही है, उसको भी देश की सांप्रदायिक राजनीति के लिए इस्तेमाल करके हिंदू-मुसलमान की बहस में बदलने की यह पहली या एकमात्र नजीर नहीं है।

नफरत के वायरस ने कोरोना के संक्रमण के लिए किसी को नस्ल या सम्प्रदाय के आधार पर दोषी बताने की ‘ह्वाट्स ऐप यूनिवर्सिटी के विद्वानों द्वारा प्रवर्तित ऐसी महामारी फैला रखी है, जो संयुक्त राष्ट्र संघ के दिशानिर्देशों का अंकुश भी नहीं मान रही। संयुक्त राष्ट्र संघ अपने निर्देशों में ऐसे संबोधनों की साफ-साफ मनाही करता है जिनसे किसी व्यक्ति या सम्प्रदाय पर जानबूझकर संक्रमण फैलाने का दोष मढ़ा जाता प्रतीत होता हो। मसलन: ‘वे कोविड-19 संचारित कर रहे हैं’, ‘दूसरों को संक्रमित कर रहे है’ या ‘वायरस फैला रहे हैं।’

लेकिन कई नेता और मीडिया का एक बड़ा हिस्सा रुचिपूर्वक ऐसे ब्लेम गेम खेल रहे हैं और इसके परिणामों की बाबत बिलकुल गम्भीर नहीं हैं। क्या आश्चर्य कि दर्जनों लोग कोरोना संदिग्ध मान लिए जाने को लेकर आत्महत्या कर चुके हैं और कोरोना को हरा चुके कई अन्य व्यक्ति सामाजिक बहिष्कार से आजिज आकर अपने घर तक बेचने को मजबूर हो रहे हैं। देश मे ऐसा माहौल बना दिया गया है कि पड़ोसी, पड़ोसी का दुश्मन हो गया है।

बात इतनी-सी होती तो भी गनीमत थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन कहता है कि कोरोना के मरीजों को नस्लीय, जातीय और धार्मिक आधार पर वर्गीकृत नहीं किया जाना चाहिए। फिर भी केन्द्रीय स्वास्थ्य विभाग दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के एतराजों को दरकिनार करके तब्लीगी जमात से जुड़े कोरोना के मामलों को अलग से जारी कर रहा है। महामारी को भी धर्म व सम्प्रदाय के नजरिये से देखने वाले उसकी बिना पर एक समुदाय को लगातार टारगेट कर रहे हैं। कहीं इसे ‘कोरोना जिहाद’ कहा जा रहा है तो कहीं इस तोहमत को सही सिद्ध करने के लिए झूठी खबरें व वीडियो दिखाये जा रहे हैं। नफरत की यह आग सर्वथा एकतरफा भी नहीं है। कई ‘जले-भुने’ लोग दिल्ली के उस पिज्जा डिलीवरी ब्वाय का धर्म बताये जाने की भी मांग कर रहे हैं, जिसके कोरोना संक्रमित पाये जाने के बाद कई हलकों में हड़कम्प मचा हुआ है।

ऐसे में जहां छाछ भी फूंक-फूंककर पीने की जरूरत है, नफरत का यह वायरस लोगों को शंकालु ही नहीं, डरपोक भी बना रहा है। इतना डरपोक कि खुद को सभ्य कहने वाले कई लोग उन डाॅक्टरों व स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को अपने पड़ोस, सोसायटी या अपार्टमेंन्ट में नहीं देखना चाहते, जो अपनी जान जोखिम में डालकर व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों के अभाव में भी कोरोना संक्रमितों का इलाज कर रहे हैं।

इन ‘सभ्यों’ द्वारा अनेक कोरोना फाइटरों को भी शक की निगाह से देखा जा रहा है। कहीं उन्हें कोरोना से अपनी लड़ाई छोड़ देने या मकान खाली करने को कहा जा रहा है तो कहीं राशन देने तक से मनाकर दिया जा रहा है। विडम्बना यह कि देश का बड़ा हिस्सा इसे लेकर चुप है और अपनी बालकनी में ताली या थाली बजाने अथवा दीये जलाने से ही उनके प्रति अपने कर्तव्यों की इतिश्री माने हुए है।

नफरत के इस वायरस ने देश की राजधानी दिल्ली से लेकर उत्तर प्रदेश के महोबा तक में सब्जी व फल बेचने वालों के आधार कार्ड चेक करने वाले स्वयंभू स्वयंसेवकों की नई प्रजाति भी पैदा कर दी है। यह प्रजाति उनके आधारकार्ड देखकर साम्प्रदायिक आधार पर उन्हें गली-मुहल्लों में घुसने की अनुमति दे रही या उससे मना कर रही है। अपने हुक्म का पालन न होने पर वह उन्हें मारने-पीटने व उनके ठेले पलट देने की धमकी भी दे रही है। ऐसे एक मामले में तो लाउडस्पीकरों से खुल्लम-खुल्ला एलान किया गया कि ये सब्जी व फल विक्रेता अपने साथ अनिवार्य रूप से अपना आधारकार्ड लेकर चला करें और एक खास धर्म से ताल्लुक रखते हैं तो गली व मुहल्लों से दूर ही रहें।

जाहिर है कि हालात संगीन हो गये हैं और इस अपेक्षाकृत ज्यदा शातिर वायरस के खिलाफ लड़ाई कल पर टाली गई तो इसकी महामारी हमें कोरोना से भी ज्यादा त्रास दे सकती है।

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