हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वह क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता
भारतीय मुसलमानों की प्रतिनिधि संस्था आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा प्रत्येक जिले में “दारुल कुजा” या शरई अदालतों के गठन के एलान के साथ भारत की मीडिया विशेषकर चैनलों ने ऐसा दिखाने अजुर समझाने का प्रयास शुरू कर दिया है जैसे मुस्लिमों की इस संस्था ने देश की न्याय व्यवस्था को नकार कर एक समानान्तर न्याय व्यवस्था अपना लेने का एलान कर दिया हो यह चैनल हों या अन्य कथित “राष्ट्रवादी” संगठन उनको तो जैसे बोर्ड के इस एलान के साथ ही मुंह मांगी मुराद मिल गयी हो तुरंत फुरंत मुस्लिमों पर अलगाव वाद का इलज़ाम लगा के इस को देश की एकता अखंडता के लिए एक बड़ा खतरा बताने ही नहीं बल्कि आम आदमी को उस पर पूर्ण विश्वास कर लेने का पूरा जोर लगाया जा रहा है.
सब से पहले तो यह बात समझ लेनी चाहिए की इस से पहले भी दारुल कुजा या शरई अदालतों को ले कर ऐसा ही विवाद खड़ा करने की कोशिश की गयी थी और उन्हें सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज किया गया था २०१४ के अपने एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने यह पेटिशन खारिज करते हुए साफ़ कहा था कि यह समानातर अदालतें नही है और इनकी हैसियत केवल सुलह सफाई कराने वाले केन्द्रों जैसी है.
दरअसल इस प्रकार की अदालतें बल्कि इनको अदालत कहना ही गलत है इस प्रकार की संस्थाएं समानांतर अदालत नही हैं बल्कि मुस्लिम परिवारों में उठ खड़ी हुई घरेलु समस्याएं विशेषकर शादी तलाक़ आदि के मामलों में सुलह सफाई और बीच बचाव कराने के कम करती हैं यह दोनों पक्षों के सामने धार्मिक स्थित रख कर उनसे मध्य मार्ग निकालने का प्रस्ताव रखती हैं जिस से परिवार टूटने से बच जाएँ आम तौर से संवादहीनता की स्थिति में ही परिवार टूटने की नौबत आती है कभी पति ज़रा सी मामूली बात पर पत्नी को तलाक़ देने की धमकी दे देते हैं. कभी पत्नी ज़रा सी कहा सुनी पर न केवल अपने मायके वालों बल्कि पुलिस तक को बुला लेती हैं गुस्सा उतरने के बाद दोनों पक्षों को अपनी अपनी गलती का एहसास होता है लेकिन नाक ऊंची रखने के चक्कर में बात बिगड़ने लगती है, यह संस्थाएं इसी स्थित में संवादहीनता खत्म कर के सुलह सफाई का रास्ता निकालती हैं हाँ कभी कभी इन्हें धर्म के अनुसार स्थित भी साफ़ करनी पड़ती है लेकिन चूँकि इन संस्थाओं के पास कोई अधिकार तो होता नहीं है इस लिए यह केवल धार्मिक स्थिति ही साफ़ बता सकती हैं जिसे मानना या न मानना सम्बन्धित पक्ष पर निर्भर करता है.
यह संस्थाएं किसी को बाध्य नहीं कर सकतीं और अगर इनके सुझाए हुए समाधान से कोई पक्ष संतुष्ट नहीं होता तो वह समान्य अदालतों में जाने को आज़ाद होता हैI कुछ लोग इन संस्थाओं की खाप पंचायतों से तुलना करते हैं जो पूर्णतयः गलत है अव्वल तो यह संस्थाएं कभी फौजदारी या क्रिमनल केसेज़ अपने हाथ में नहीं लेतीं मसलन अगर लव मेरिज, बल, बलात्कार, आदि के मामला उनके पास तो वह उसे अदालत ले जाने को ही कहती हैं उन पर न अपना फैसला देती हैं और न ही राय आज तक ऐसा कभी सुन्ने में नहीं आया कि किसी “दारुल कुजा” या शरई अदालत ने अपना फैसला न मान्ने वालों के खिलाफ कोइ गैर कानूनी क़दम उठाया हो या किसी के समाजी वहिष्कार आदि की बात की हो.
एक बैठक में तीन तलाक़ के मामले पर बोर्ड की जो किरकिरी हुई है उस के बाद बोर्ड ने इन अदालतों के द्वारा एक बैठक में तीन तलाक़ के खिलाफ देश व्यापी मुहीम चलाने का फैसला किया था हालांकि यदि बोर्ड सुप्रीम कोर्ट में ऐसे तलाक को अमान्य मान लेता तो उसकी प्रतिष्ठा में चार चाँद लग जाते लेकिन ऐसी भयंकर भूल कर के बोर्ड ने अपनी साख पर बट्टा क्यों लगवाया यह समझ से परे है लेकिन अब बोर्ड ने मुस्लिम नवजवानों को एक बार में तीन तलाक़ के खिलाफ शिक्षित करने को जो मुहीम इन शरई अदालतों द्वारा शुरू करने का फैसला किया है उसका स्वागत करने के बजाय उसे बड़ी धूर्तता के साथ ध्रुवीकरण के लिए प्रयोग किया जा रहा हैI
बोर्ड को शायद अब भी यह एहसास नहीं हुआ है की यह मोदी का भारत है नेहरु इंदिरा और राजीव का नहीं, वरना शायद वह देश काल और समाजी हालात का ध्यान करते हुए अपने इस फैसले को किसी और तरह प्रस्तुत करता हो सकता है बोर्ड के मोलवी साहिबों ने सोचा भी न हो के एक सुलह सफाई केंद्र स्थापित करने के उनके फैसले को आज का भारतीय मीडिया और समाज इस तरह लेगा और देश में ध्रुवीकरण की मुहीम शुरू कर देगा हालांकि अगर विगत चार बरसों में वह बदलते भारत को नही समझ पाए है तो उन्हें इतनी बड़ी और महत्वपूर्ण संस्था में बने रहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट में एक बार में तीन तलाक के मसले पर इतनी किरकिरी के बाद बोर्ड को अपना हर क़दम बहुत फूँक फूँक रखना चाहिए था अगर वह इन केन्द्रों या संस्थाओं को “दारुल कुजा” या शरई अदालत जैसे मोटे मोटे अरबी उर्दू नामों के बजाय “सुलह केंद्र” “समझौता घर” “परिवार बचाओ केंद्र” आदि रखता तो शायद इसका प्रभाव कुछ दूसरा होता हालंकि बात बात पर ध्रुवीकरण की कोशीश में लगे चैनल पत्रकार और राजनीतिज्ञ इसका भी गलत प्रयोग करते लेकिन आम आदमी को मुगालते में डालना तब इतना आसान न होता.
शर्मनाक और अफसोसनाक स्थिति यह है के शहर शहर गाँव गाँव शाखाएं लगा कर बंदूक तलवार लाठी भांजने की ट्रेनिग दे कर एक वर्ग विशेष के खिलाफ ज़हरीला प्रोपगंडा करने वालों की जहरिली हरकतें इन चैनलों, पत्रकारों सियासी लोगों को नहीं दिखाई देतीं जबकि सुलह सफाई करा के परिवारों को टूटने से बचाने और अदालतों पर मुक़दमों का बोझ कम करने की देश हित में की गयी यह कोशिशें इन्हें देश विरोधी दिखाई देती है.