देश मे चुनाव नजदीक हैं। याद कीजिये 2014 में विपुल मत से जीतने के बाद नरेन्द्र मोदी जी ने कहा था कि चार साल काम होना चाहिये और पांचवे साल राजनीति। ऐसा उन्होंने इसलिए कहा था कि पांचवा साल चुनाव का साल होता है। चार साल काम हुआ। कुछ दिखा कुछ नहीं दिखा। चार सालों में सबसे बड़ा आर्थिक सुधार नोटबंदी और कर सुधार जीएसटी को बताया गया। पर यह नहीं बताया गया कि सुधरा क्या है। एकता प्रतिमा के अनावरण के समय जीएसटी को एक देश एक टैक्स के रूप में प्रधानमंत्री जी ने देसी रियासतों के विलय जैसी उपलब्धि से जोड़ा है। चार साल में जो हुआ है वह तो सब अपने अपने मन में हम जान ही रहे हैं। तो अब अब काम का समय खत्म और अब शुरू होता है समय राजनीति का।
राजनीति बड़ी विचित्र चीज़ है। चाणक्य ने इसे अपने एक श्लोक में वेश्या कहा है तो किसी ने हरामजादों की आखिरी पनाहगाह बताया है। राजनीति के तो चार घोषित, स्थापित और स्वीकृति अनीति मार्ग हैं, साम दाम दण्ड और भेद। यह अनीति मार्ग ही राज की नीति होते है। सत्ता तो अनीति के ही मार्ग से प्राप्त हो सकती है। राजनीति का उद्देश्य ही सत्ता शक्ति और अधिकार प्राप्त करना होता हैं। यह अनीति मार्ग सभी आजमाते हैं। कुछ अपवाद होंगे। पर अपवादों से कहीं नियम बदलते हैं ?
साम यानी समझाना, दाम यानी धन का आदान प्रदान, यह तो राजनीति का अभिन्न अंग है, भला गेहूं बेच कर कौन राजनीति करता है, तीसरा भेद यानी दुश्मन के खेमे में भ्रम फैला कर उन्हें एक दूसरे से दूर कर देना, उनमें अविश्वास फैला देना, अंतिम मार्ग दंड का है यानी विरोधी को दंडित कर देना चाहे सत्ता तंत्र के द्वारा उन्हें रगड़ा जाय या उनका खात्मा ही करा दिया जाय। अब चुनाव नजदीक है तो भेद की बात उठने लगी है। भेद से मेरा तात्पर्य है समाज मे धर्म, जाति क्षेत्र के नाम पर जो भी मतभेद फैलाया जा सके उसे फैलाया जाय और समाज को येन केन प्रकारेण विखंडित किया जाय। समाज मे ध्रुवीकरण हो और उसका लाभ मिले।
सरदार पटेल की मृत्यु के बाद 31 ऑक्टुबर 2018 को मनाई गयी उनकी जयंती जितने शौक़ और गर्मजोशी से मनायी गयी उतना शायद उनके देहांत के बाद कभी नहीं मनाई गयी होगी। वैसे तो सभी महान नेताओ को उनकी जयंती और पुण्यतिथि पर याद किये जाने की एक परम्परा है बस सुभाष बाबू की पुण्यतिथि उनकी मृत्यु की संदेहास्पद तिथि के कारण नहीं मनायी जाती है। संसद से लेकर स्कूलों तक अपनी अपनी तरह से महापुरुषों को हम याद करते रहते हैं। पर इस बार पटेल का जन्मदिन स्टेचू ऑफ यूनिटी के अनावरण के साथ साथ एकता दिवस के रूप में मनाया गया, यह एक अच्छी बात रही।
आज एकता की बहुत जरूरत है। यह बात मैं सामाजिक और धार्मिक एकता के संदर्भ में कह रहा हूँ। हमारे यहां चुनाव एक युद्ध समझा जाता है। इसी लिए हम इसके लिये लड़ना शब्द प्रयोग करते हैं। हम चुनाव फाइट करते हैं। जब लड़ना भाव मन मस्तिष्क में आ जायेगा तो पूरा माहौल ही युयुत्सु भाव मे बदल जायेगा। तब युद्ध का वही चिर परिचित नियम लागू हो जाता है कि युद्ध मे कोई नियम नहीं रहता है। यह भी एक विडंबना है कि जीवन मे कभी भी असत्य न बोलने वाले धर्मराज को भी मिथ्यावाचन करने का उपदेश दिया गया और उन्हें असहजता से बचाने के लिये इसे आंशिक सत्य भी बताया गया।
प्रेम और युध्द में सब कुछ जायज़ है। इसी जायज़पने के तर्क में भेद चाहे वह धर्म के आधार पर फैलाया जाय या जाति के आधार पर या क्षेत्र के आधार पर सब का सब जायज़ मान लिया जाता है। राजनीतिक दलों के टिकट भी इसी आधार पर बंटते है। वे खुले आम कहते हैं जो जीत सकता है उसे ही टिकट मिलेगा। कौन जीत सकता है ? कोई माफिया है या धनपशु या धर्म का ठेकेदार ? सभी दल बेशर्मी से इसी राह ए सियासत पर चलते हैं और अन्य सारी बातें गौड़ हो जाती हैं। बस भेद फैलाओ, लोगों को तोड़ो और अपना हित देखो। ध्रुवीकरण करो।
1940 से 1950 तक का समय भारतीय इतिहास का बेहद उथल पुथल भरा कालखंड रहा है। समाज मे उतना मतभेद, घृणा, एक दूसरे से हिंसक वैमनस्य शायद ही पहले कभी रहा हो। लोग खुल कर एक दूसरे के धर्मो की आलोचना, मज़ाक़ और निंदा करते थे। समाज मे वैमनस्य और घृणा खुलकर फैलाई जा रही थी। अज़ीब ज़हर फैला था। उसका परिणाम भी सबके सामने है। देश बंटा और सबसे लोकप्रिय और मान्य नेता की हत्या हुगी। हत्या ही नहीं हुयी उस हत्या पर कुछ ने जश्न भी मनाया और आज भी उस हत्या को औचित्यपूर्ण ठहराने के निर्लज्ज प्रयास कुछ लोगों द्वारा जारी हैं।
1940 से 1950 तक धार्मिक ध्रुवीकरण चाहने वाली दो ताकतें मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा / आरएसएस एक तरफ, एक साथ, खुल कर ब्रिटिश राज के साथ थी तो दूसरी तरफ आज़ादी की बात करने और इन दोनों ताकतों के खिलाफ मज़बूती से खड़े होने वाले गांधी, नेहरू, पटेल, आज़ाद सुभाष और अन्य दूसरी तरफ थे। जिन्ना मुस्लिम राज्य चाहते थे और सावरकर के नेतृत्व में हिन्दू महासभा तथा संघ हिन्दू राष्ट्र। जिन्ना मुस्लिमों के सर्वमान्य नेता तो बन गए पर सावरकर को हिंदुओं ने नकार दिया। हालांकि मुस्लिमो में आज़ाद, खान अब्दुल गफ्फार खान जैसे अन्य नेता भी थे जो जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद की अवधारणा के बिल्कुल खिलाफ थे पर आम जनमानस में उनका असर जिन्ना के मुक़ाबके कम था। जिन्ना तो मुस्लिम राष्ट्र का अपना मक़सद एक ‘ टाइप राइटर और स्टेनो ‘ के दम पर पा गये पर हिन्दू महासभा के सावरकर हिन्दू राष्ट्र का अपना लक्ष्य नहीं पा सके। उसका कारण जनता में उनकी अस्वीकार्यता थी। इस तथ्य को वे तब भी पचा नहीं पाते थे और उनके मानस पुत्र आज भी नहीं पचा पाते हैं। गांधी नेहरू पटेल से उनकी खीज का यह एक सबसे बड़ा कारण है।
संघ समर्थक और विचारक बडी शैतानी से पटेल को गांधी नेहरू से अलग कर देते हैं। पटेल को वे अपने खांचे में फिट करना चाहते हैं। पर पटेल के विचारों को वे नहीं बताते हैं । ऐसा भी नहीं है कि उन्होंने पढ़ा नहीं है। वे इस मुगालते में जीते हैं कि गोएबेलिज़्म का सिद्धांत उनकी बात सच मान लेगा। पर आज का युग भक्तिभाव का नहीं विवेक तर्क और जिज्ञासा का है। सोशल मीडिया ने इस जिज्ञासु भाव को और सक्रिय ही किया है। पटेल के नेहरू से हुये पत्राचार, गृह मंत्री के रूप में उनके द्वारा निर्गत लिखे गए पत्र आदेश आदि से जो तस्वीर उभरती है वह गांधी नेहरू आज़ाद आदि की मूल सोच पंथ निरपेक्षता की उभरती है। पंथ निरपेक्षता या धर्म निरपेक्षता या सेकुलरिज्म एक ऐसा विचार है जो संघ परिवार को अक्सर असहज कर देता है। वे बार बार यह स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं कि पटेल दिल और दिमाग से कांग्रेस की मूल विचारधारा से अलग हट कर के हैं। आर्थिक मामलों में पटेल ज़रूर नेहरू से थोड़ा अलग दक्षिणपंथी विचारों के थे पर जहां तक सामाजिक और धार्मिक सन्दर्भो का सवाल है उनमें और नेहरू में कोई मौलिक मतभेद नहीं था।
आज सरदार पटेल की बातें, उनके विचार सार्वजनिक हों, इसकी बहुत जरूरत है। 1940 से 1950 के बीच उनके दिए भाषण, लेखों आदि का संदर्भ दुबारा पढा जाना चाहिये और उन्हें नियमित रूप से जनता के बीच फैलाया जाना चाहिये ताकि स्वाधीनता के इस अमर योद्धा के नाम पर कोई दुष्प्रचार न हो सके। गांधी, नेहरू, पटेल, सुभाष,आज़ाद आदि आदि जिन मूल्यों के लिए 1940 से संविधान के लागू होने के साल, 1950 तक जिस मजबूती के साथ हिन्दू मुस्लिम भेदभाव और धर्म ही राष्ट्र है, की कुत्सित अवधारणा द्विराष्ट्रवाद के विरुद्ध पूरी शक्ति और सामर्थ्य के साथ खड़े थे वे मूल्य सुरक्षित रहें । आज जब धर्म, जाति और क्षेत्र के नाम पर रोज़ कहीं न कहीं हम झगड़े और हिंसा देख रहे हैं तो उनके दमन और शमन के लिये सरदार पटेल जैसी ही लौह इच्छाशक्ति की आज महती आवश्यकता है। वे आज अधिक प्रासंगिक हैं।
© विजय शंकर सिंह