कविता – कुछ मुसलमान भी , सीने से लगाने होंगे – "सतीश सक्सेना"
इनके आने के तो कुछ और ही माने होंगे ! जाने मयख़ाने के, कितने ही बहाने होंगे ! हमने पर्वत से ही नाले भी निकलते देखे ! हर जगह...
इनके आने के तो कुछ और ही माने होंगे ! जाने मयख़ाने के, कितने ही बहाने होंगे ! हमने पर्वत से ही नाले भी निकलते देखे ! हर जगह...
अति सुकोमल साँझ- सूर्यातप मधुर; सन्देश-चिरनूतन, विहगगण मुक्त: कोई भ्रांतिपूर्ण प्रकाश असहज भी, सहज भी, शांत अरु उद्भ्रांत… कोई आँख जिसको खोजती थी! पा सका न...
मैं एक बात कहना चाहता हूँ। जन्मान्तरों की हमारी यात्रा है। पिछले किसी मोड़ पर कभी न कभी कहीं न कहीं हमारा कोई न कोई रिश्ता...
गुज़र गई है मिरी उम्र खुद से लड़ते हुए मुहब्बतों से भरे वो खतों को पढ़ते हुए धुएं की तरह बिखरता रहा फज़ाओं में के उम्र...
तू अपनी जान पे तलवार बन के बैठा है अमीर हो के भी नादार बन के बैठा है मेरी अना ने ही मगरूर कर दिया मुझको...
अगर तुम रहे कुछ दिन भी सरदारी में , बहुत शीघ्र गांधी, सुभाष के गौरव को गौतम बुद्ध की गरिमा कबिरा के दोहे , सर्वधर्म समभाव...