नज़रिया- न्याय व्यवस्था के ढह जाने का प्रतीक है बुलडोज़र

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लम्बे समय से देश के क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम या आपराधिक न्याय प्रणाली की विफलता, खामियों और जन अपेक्षाओं के अनुरूप उसे लागू न करने को लेकर सवाल उठते रहे हैं और यह सवाल जनता और, भुक्तभोगी ही नही बल्कि वे भी उठाते रहे हैं जो, इस तंत्र के प्रमुख अंग हैं। जैसे, जज, बड़े पुलिस अफसर और विधायिकाओं में बैठे कानून गढ़ने वाले महानुभाव। क्या यह हैरानी की बात नही लगती कि, जिन्हें इस तंत्र को संचालित करने का अधिकार प्राप्त है, वे ही इस तंत्र की विफलता का स्यापा कर रहे हैं ? पर यहीं यह सवाल उठता है कि, आखिर ऐसी स्थिति आई कैसे और क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के संचालक उसे ठीक से संचालित क्यों नही कर सकें ? एक बात तो तय है कि जब न्याय दिलाने के कानूनी रास्ते लम्बे, महंगे, समयसाध्य और जटिल हो जाते हैं तो, त्वरित न्याय दिलाने वाले विधिविरुद्ध समूह की ओर लोग अनायास ही मुड़ने लगते हैं। क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम की विफलता न केवल माफिया गिरोहों को पनपने के लिये एक अवसर प्रदान करती हैं बल्कि वह पुलिस को भी विधिविरुद्ध दिशा में जाने की ओर प्रेरित करती है और तब जो गैरकानूनी रूप से एक नया न्याय प्रदाता तंत्र या जस्टिस डिलीवरी सिस्टम विकसित होता है वह अपराध को एक प्रकार से मान्यता देकर उसे संस्थाकृत ही करता है। यह कानून के राज के लिये न केवल घातक है बल्कि लोगो के मन मे कानून के प्रति एक गहरा उपेक्षा भाव भर देता है। कानून के प्रति अवज्ञा या उपेक्षा का यह भाव कानून लागू करने वाली मशीनरी को धीरे धीरे अप्रासंगिक कर देता है।
हाल के ही उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में एक अजीबोगरीब मुद्दा उठ गया था बुलडोजर का। यह मुद्दा उठाया था, भारतीय जनता पार्टी ने और उनके अनुसार, यह मुद्दा यानी बुलडोजर, प्रतीक बन गया है गवर्नेंस का, यानी शासन करने की कला के नए उपकरण का। अब कानून, संसद द्वारा पारित कानूनी प्राविधानों और अदालती प्रक्रिया के द्वारा नहीं बल्कि ठोक दो, तोड़ दो, फोड़ दो, के प्रतीक, बुलडोजर से लागू किये जायेंगे। बुलडोजर, मूलतः ध्वस्त करने वाली एक बड़ी मशीन है जो तोड़फोड़ करती है। दरअसल भाजपा के राज में कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिये जिस आक्रामक नीति की घोषणा 2017 में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के द्वारा की गयी थी, वह थी ठोंक दो नीति। यह अपराधियों और कानून व्यवस्था को बिगाड़ने वालों के प्रति अपनाई जाने वाली एक आक्रामक नीति है, जो लोगों में लोकप्रिय और सरकार की छवि को एक सख्त प्रशासक के रूप में दिखाने के लिये लाई गई थी। ठोंक दो की नीति, हालांकि इस नीति का कोई कानूनी आधार नहीं है और न ही कानून में ऐसे किसी कदम का प्राविधान है, के लागू करने से, अपराधियों पर इसका असर भी पड़ा और जनता ने इसकी सराहना भी की।
कुछ हद तक यह बात सही भी है कि, इस आक्रामक ठोंक दो नीति के अनुसार, भू माफिया और संगठित आपराधिक गिरोह के लोगों के खिलाफ कार्यवाही करने से, न केवल कुछ संगठित आपराधिक गिरोहों का मनोबल गिरा बल्कि जनता को भी उनके आतंक से कुछ हद तक राहत मिली। पर इसी नीति और बुलडोजर पर पक्षपात के आरोप भी लगें। एक धर्म विशेष के माफिया सरगनाओं के खिलाफ जानबूझकर कार्यवाही करने के तो, एक जाति विशेष के कुछ माफियाओं पर कार्यवाही न करने के आरोप भी सरकार पर लगें। कार्यवाही का आधार, प्रतिशोध है, यह भी आरोपों में कहा गया और अब भी कहा जा रहा है। यहीं यह  सवाल भी उठता है कि, क्या कानून व्यवस्था को लागू और अपराध नियंत्रण करने के लिये, कानूनी प्राविधानों को बाईपास कर के ऐसे रास्तो को अपनाया जा सकता है, जो कानून की नज़र में खुद ही अपराध हो ?
यह सवाल, उन सबके मन मे उठता है जो कानून के राज के पक्षधर हैं और समाज मे अमन चैन, कानूनी रास्ते से ही बनाये रखना चाहते हैं। इसलिए विधिनुरूप शासन व्यवस्था में रहने के इच्छुक अधिकांश लोग, चाहे बुलडोजर हो या ठोंक दो की नीति के अंतर्गत की जाने वाली इनकाउंटर की कार्यवाहियां, इन्हें लेकर अक्सर पुलिस पर सवाल उठाते रहे हैं और ऐसे एनकाउंटर्स की, सरकार जो खुद भी, भले ही ठोंक दो नीति की समर्थक और प्रतिपादक हो, न केवल जांच कराती है बल्कि दोषी पाए जाने पर दंडित करने के लिए मुक़दमे भी चलाती रहती है।
एमनेस्टी इंटरनेशनल से लेकर जिले स्तर तक गठित सरकारी और गैर सरकारी, मानवाधिकार संगठन इस बात पर सतर्क निगाह रखते हैं कि, कहीं सरकार की जबर नीति के कारण, व्यक्ति को प्राप्त, उसके संवैधानिक और नागरिक अधिकारों का हनन तो नहीं हो रहा है। फिर बुलडोजर और ठोक दो नीति की बात करने वालो के निशाने पर, पुलिस और कानून लागू करने वाली एजेंसियों के वे अफसर ही रहते हैं जो सरकार की इन्ही नीतियों के अंतर्गत कानून और कानूनी प्रक्रियाओं को दरकिनार कर के, कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिये, कानून को बाईपास करके, खुद ही एक गैर कानूनी रास्ता चुनते हैं, जिसे कानून अपने प्राविधानों में, अपराध की संज्ञा देता है।
अब कुछ आंकड़ों की बात करते हैं। मानवाधिकार संगठनों की माने तो, उत्तर प्रदेश, पिछले कुछ वर्षों से न्यायेतर हत्याओं यानी एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल किलिंग यानी बुलडोजर या ठोंक दो की नीति की एक प्रयोगशाला जैसा रहा है। 2017 के मार्च के बाद से, जब से भारतीय जनता पार्टी राज्य में सत्ता में आई है तब से, एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल हत्याओं की संख्या में वृद्धि हुई है। एक आंकड़े के अनुसार, 2017 से बाद, 2020 तक के कालखंड में, यूपी पुलिस ने कम से कम 3,302 कथित अपराधियों को गोली मारकर घायल किया है। मानवाधिकार आयोगों की रिपोर्ट के अनुसार, पुलिस फायरिंग की घटनाओं में मरने वालों की संख्या 146 है। यूपी पुलिस का दावा है कि ये 146 मौतें जवाबी फायरिंग के दौरान हुईं और सशस्त्र अपराधियों के खिलाफ आत्मरक्षा में की गयी हैं। लेकिन नागरिक संगठनों ने इन हत्याओं पर सवाल उठाए और आरोप लगाया कि ये सुनियोजित हैं और जानबूझकर कर की गयी, न्यायेतर हत्याएं हैं।
यह तो आंकड़े हैं पर बुलडोजर के यूपी मॉडल की नकल अभी हाल ही में मध्यप्रदेश के खरगौन में की गयी है। रामनवमी पर खरगौन में एक शोभायात्रा निकाली गई और वह शोभायात्रा जब मुस्लिम इलाके से निकल रही थी तो कहते है कि उस पर पथराव हुआ और फिर साम्प्रदायिक दंगे की स्थिति उत्पन्न हो गयी। पथराव करने वाले कुछ घरों को वहां के प्रशासन ने चिह्नित किया और फिर उनके घरों को बुलडोज़र से गिरा दिया। यहीं यह कानूनी सवाल उठता है कि, यदि वे पथराव के दोषी भी थे तो क्या उनका घर गिरा दिया जाना विधिसम्मत है ? कानून के अनुसार उनके खिलाफ अभियोग पंजीकृत कर के उन्हे अदालत मे ले जाना चाहिए था और न्यायालय जो दंड देता वह मान्य था। प्रशासन यहां शिकायतकर्ता भी है, जांचकर्ता भी, अभियोजक भी है और न्यायाधीश भी। यह एक मध्यकालीन राजतंत्रीय आपराधिक न्याय प्रणाली की ओर लौटना हुआ, न कि एक सभ्य, प्रगतिशील और विधि द्वारा स्थापित क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के अनुसार न्याय की आकांक्षा करना।
मध्यप्रदेश के खरगौन मामले में मुंबई के एक आईटीआई एक्टिविस्ट, साकेत गोखले ने जिला मैजिस्ट्रेट खरगौन को एक कानूनी नोटिस भेज कर यह जानकारी चाही कि ‘खरगौन में जिन व्यक्तियों के घर बुलडोजर से गिराए गए वे किस कानून के अन्तर्गत गिराए गए हैं।’ क्योंकि, ऐसा कोई कानून नहीं है जो सरकार को न्यायपालिका की भूमिका में आने और उसे यह अधिकार देता हो, कि वह खुद ही किसी को दोषी ठहरा दे और उसे दंडित कर उसका घर गिरा दे। साकेत की नोटिस में यह भी कहा गया था कि, ‘यदि विधिक प्रविधानो के अनुसार, 24 घंटे के भीतर जिला मैजिस्ट्रेट कोई जवाब नहीं देते हैं तो इस विंदु पर, मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में याचिका दायर की जायेगी।’

साकेत की नोटिस और आरटीआई के जवाब में जो कहा गया, उसे पढ़िए। जवाब के अनुसार

“जिला मजिस्ट्रेट खरगोन ने मुझे (साकेत गोखले को) एक आरटीआई जवाब में बताया है कि, उनके कार्यालय द्वारा कोई  ध्वस्तीकरण आदेश जारी नहीं किया गया था। डीएम का यह भी दावा है कि ध्वस्तीकरण अभियान केवल “अनधिकृत अतिक्रमण” के लिए था, जो कि सच नहीं है। सच तो यह है कि, खरगोन में घरों को भूमि राजस्व अधिनियम, 1959 के तहत ध्वस्त किया गया है।”
यहीं यह सवाल उठता है कि, प्रशासनिक व्यवस्था में, जिलाधिकारी, भू-राजस्व मामलों के प्रभारी अधिकारी होते हैं। यदि, डीएम ने यह आदेश जारी नहीं किये हैं तो फिर यह आदेश किसने जारी किया है ?
एमपी के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने दावा किया था कि कथित “पत्थरबाजी के आरोपियों” के घरों को ध्वस्त कर दिया गया है। अब डीएम, इस पर यू-टर्न ले रहे हैं और यह कहते हैं कि केवल “अनधिकृत घरों” को तोड़ा गया। लेकिन डीएम का यह भी दावा है कि जिला प्रशासन की ओर से कोई आधिकारिक आदेश जारी नहीं किया गया था। एक तरफ तो डीएम का यह कहना कि अनधिकृत घरों को ही तोड़ा गया है और दूसरी तरफ यह कह देना कि, उनका ऐसा कोई आदेश नहीं था। मुस्लिम घरों का यह ध्वस्तीकरण, स्पष्ट रूप से अवैध और कानून के प्रविधानों के विपरीत किया गया कार्य था और सरकार अब, आलोचना और कानूनी रूप से घिरने के बाद तरह तरह के बहाने बना रही है।
यदि बुलडोजर से घर गिराने का कोई वैधानिक और लिखित आदेश किसी सक्षम प्राधिकारी द्वारा नहीं दिया गया था तो फिर खरगौन में इतने मकान टूटे कैसे और राज्य के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्र ने कैसे कथित बलवाइयों के खिलाफ तुरन्त कार्यवाही करने की बात कैसे कह दी ? मैं सिस्टम में रहा हूँ और सिस्टम जब राजनीतिक गुणा भाग और द्वेष से प्रेरित ऊपर के आदेश, जो अधिकतर राजनीतिक आकाओं के लिये एक सामान्य शब्द है, को लागू करवाता है तो ऐसे आदेश किसी कागज़ या फाइल पर नहीं बल्कि ज़ुबानी दिए जाते हैं। ऊपर से लेकर नीचे तक हर अफ़सर यह जानता है कि, यह आदेश अवैध है पर वह उन्हें किसी भी वैध आदेश की तुलना में अधिक गम्भीरता और मनोयोग से लागू करता है और आदेश के अनुपालन के बारे में तुरन्त सूचित भी करता है। आदेश पालन की यह तीव्र गति उसे ऊपर की नज़रों में कुछ विशिष्ट तो ज़रूर बना देती है, पर इससे कानून और विधि के शासन का जो नुकसान होता है, वह सिस्टम के लिये बेहद खतरनाक होता है।
अब इसी मामले में देख लें कि जिलाधिकारी को मुंह चुराना पड़ रहा है और कहना पड़ रहा है कि उन्होंने ऐसा कोई आदेश नहीं दिया था। यदि हाईकोर्ट में कोई याचिका दायर होती है तो निश्चय ही जानिये कि इस मामले की जांच जिलाधिकारी ही करेंगे और कोई छोटा अफसर ही दंडित होगा या फंसेगा, जिसका इस मामले में, सिवाय एक आदेश के, पालन के और कोई भूमिका नहीं है। यह भी खबर है कि सुप्रीम कोर्ट में इस आशय की एक जनहित याचिका भी दायर की गयी है और अब यह देखना है कि सुप्रीम कोर्ट उस जनहित याचिका पर क्या रुख़ अख्तियार करता है। बुलडोज़र के बारे में यह तर्क अक्सर दिया जाता है कि पुलिस की जांच गति और अदालतों में ट्रायल इतना धीमा है कि न्याय का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। यह तर्क गलत है भी नहीं। पर यदि क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में कोई खराबी है तो उसकी पहचान कर के उसे दूर किया जाना चाहिए न कि एक समानांतर विधिविरुद्ध सिस्टम को ही स्थापित कर दिया जाय। समय समय पर कानून और सिस्टम का परीक्षण करने के लिये केंद्र और राज्य के विधि आयोग गठित होते है और नए कानून बनाये भी जाते हैं। पर यह सब समयसाध्य होता है जिसमे राजनीतिक आक़ाओं की न तो कोई रुचि होती है और न ही वे इस ‘पचड़े’ में पड़ना चाहते है।
सच तो यह है कि, बुलडोजर, कानून का प्रतीक नहीं है। यह विधिक शासन के ध्वस्त हो जाने और सिस्टम की विफलता से उपजे फ्रस्ट्रेशन का प्रतीक है। सरकार, विधिसम्मत राज्य की स्थापना के लिये गठित तंत्र है, न कि आतंकित कर, राज करने के लिये बनी हुयी कोई व्यवस्था। कानून की स्थापना, कानूनी तरीके से ही होनी चाहिए न कि डरा धमका कर, भय दिखा कर। वह कानून का नहीं, फिर डर का शासन होगा जो एक सभ्य समाज की अवधारणा के सर्वथा विपरीत है। बुलडोजर का भी गवर्नेंस में प्रयोग हो सकता है, और होता भी है। पर वह भी किसी न किसी कानूनी प्रक्रिया के अंतर्गत पारित न्यायिक आदेश के पालन के रूप में, न कि, एक्जीक्यूटिव के किसी, मंत्री या अफसर की सनक और ज़िद से उपजे मध्यकालीन शाही फरमान के रूप में। यदि कानून और निर्धारित विधिक प्रक्रियाओं को दरकिनार कर के बुलडोजर ब्रांड ‘न्याय’ की परंपरा डाली गयी तो, यह एक प्रकार से, राज्य प्रायोजित अराजकता ही होगी।
अराजकता, यानी ऐसा राज्य जिंसमे राज्य व्यवस्था पंगु हो जाय, केवल जनता के द्वारा ही नहीं फैलाई जाती है, ऐसा वातावरण, राज्य द्वारा प्रायोजित भी हो सकते हैं। ऐसे राज्य जो पुलिस स्टेट कहा गया है जहां शासन पुलिस या सेना के बल पर टिका होता है, न कि किसी तार्किक न्याय व्यवस्था पर। ऐसी कोशिश, कभी कभी राज्य द्वारा सायास की जाती है, तो यह कभी अनायास भी हो जाता है। राज्य का मूल कर्तव्य और दायित्व है, जनता को निर्भीक रखना। उसे भयमुक्त रखना। अभयदान राज्य का प्रथम कर्तव्य है, इसीलिए इसे सबसे प्रमुख दान माना गया है। राज्य इस अभयदान के लिये एक कानूनी तंत्र विकसित करता है, जो विधायिका द्वारा पारित कानूनो पर आधारित होता है। इसमे पुलिस, मैजिस्ट्रेसी, ज्यूडिशियरी आदि विभिन्न अमले होते है। इसे, समवेत रूप से, क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के नाम से जाना जाता है। यह सिस्टम, एक कानून के अंतर्गत काम करता है और अपराध तथा दंड को सुनिश्चित करने के लिये, एक विधिक प्रक्रिया अपनाता है।
क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम को भी यदि निर्धारित कानूनी प्रक्रिया के अनुसार, लागू नही किया जाता है तो इसका दोष सम्बंधित अधिकारी पर आता है और उसके खिलाफ कार्यवाही कर दंडित करने की भी प्रक्रिया, कानून में हैं, जिसका पालन किया जाता है। कहने का आशय यह है कि, कानून को कानूनी तरह से ही लागू किया जाना चाहिये। यदि कानून, कानूनी प्राविधान को दरकिनार कर के, मनमर्जी से लागू किया जाएगा तो, उसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह होगा कि सिस्टम, विधि केंद्रित न होकर व्यक्ति केंद्रित हो जाएगा, और यदि उसे लागू करने वाला व्यक्ति अयोग्य, सनकी और जिद्दी रहा तो राज्य एक अराजक समाज मे बदल जाएगा। यदि कानून को लागू करने वाले सिस्टम में कोई खामी है तो, उसका समाधान किया जाना चाहिए, नए कानून बनाये जा सकते हैं, पुराने कानून रद्द किए जा सकते हैं और विधायिकाएं ऐसा करती भी हैं। पर कानून का विकल्प, बुलडोजर या सनक या ज़िद कदापि नही हो सकता है, इससे अराजकता ही बढ़ेगी।
© विजय शंकर सिंह
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