बंकिम चंद्र चटर्जी – जब मुस्लिमों ने इनका लिखा “वंदे मातरम” गाया

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बंकिम चंद्र चटर्जी का नाम आते ही, हम हिंदुस्तानियों की ज़ुबान पर “वंदे मातरम” मातरम अपने आप आ जाता है। बंकिम चंद्र एक विद्वान लेखक थे। वह सिर्फ लेखक होने के साथ अंग्रेजों को सरकार में एक अधिकारी भी थे। बंकिम चन्द्र जा जन्म 26 जून 1938 पश्चिम बंगाल के परगना जिले के कंठालपाड़ा गांव में हुआ था।

इस बात में कोई दोराय नहीं है कि अगर क्रांतिकारियों  ने भारत की आजादी को अपने खून से सींचा है, तो भारत को एकता के सूत्र में पिरोने का काम साहित्यकारों, कवियों और पत्रकारों ने किया। जिनमें बंकिम चंद्र चटर्जी का सबसे महत्वपूर्ण योगदान रहा।

ग्यारह वर्ष की उम्र में उनकी शादी हो गई थी। लेकिन उनकी पत्नी ज्यादा दिन जीवित नहीं रह पाईं। जिसके बाद उन्होंने राजलक्ष्मी देवी से उनका दूसरा विवाह हुआ।

पहली बार कोई भारतीय प्रेसीडेंसी कॉलेज पहुंचा

1857 में  पहली बार  ऐसा हुआ कि किसी भारतीय ने प्रेसीडेंसी कॉलेज स्नातक पूरी की थी। इसके बाद बंकिम चंद्र ने 1869 में कानून की डिग्री हासिल की। कानून की पढ़ाई पूरी करते ही उन्हें तुरंत डिप्टी मजिस्ट्रेट की सरकारी नौकरी मिल गई।

कुछ सालों तक उन्होंने बंगाल की सरकार में सचिव के पद पर भी काम किया। इसके अलावा बंकिम चन्द्र ने रायबहादुर और सीआईए जैसे उपाधियां हासिल की। फिर 1891 में वह अपनी सेवाओं से रिटायर हो गए।

अंग्रेज़ी भाषा में की पहली कृति की रचना

यह बात काफी कम लोग जमाते हैं कि बंकिम चंद्र ने बंगला और हिंदी के अलावा अंग्रेजी भाषा में भी अपनी लेखनी चलाई है। उनकी पहली कृति ‘राजमोहन्स वाइफ़’ अंग्रेजी में थी। इसके अलावा उनकी पहली बांग्ला कृति का नाम ‘दुर्गेशनंदिनी’ था। ये कृति 1865 प्रकाशित हुई थी।

‘दुर्गेशनंदिनी’ एक गद्य रचना थी। जिसके बाद बंकिम चंद्र ने अपनी लेखनी काव्य के क्षेत्र में चलाई।  जब ‘दुर्गेशनंदिनी’ का प्रकाशन हुआ, तब बंकिम चंद्र और उनके लेखन की कोई खास चर्चा नहीं हुई। लेकिन एक वर्ष के बाद जब उन्होंने  एक ही वर्ष के भीतर ‘कपालकुंडला’ की रचना की। और बंकिम चंद्र की यह कृति काफी विख्यात हो विख्यात हुई।

इसके बाद 1872 में बंकिम चंद्र ने बंगदर्शन नाम की पत्रिका निकलनी शुरू की। जिसके द्वारा उन्होंने गंभीर सांस्कृतिक, सामाजिक और साहित्यिक मुद्दे उठाए। अब तक बंकिम चंद्र केवल साहित्य लिख रहे थे। लेकिन यह उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण मोड़ था। जब वो एक पत्रकार की भूमिका में लिख रहे थे।

राष्ट्रवाद का प्रतीक कैसे बना वंदे मातरम

बंकिम चंद्र चटर्जी ने आनंदमठ की रचना में ही वंदे मातरम लिखा था। जब इसकी रचना हुई तब ये बात बंकिम चंद्र की भी नहीं पता थी कि यह एक स्लोगन या गीत पूरे भारत की आजादी की ‘मशाल’ बन जायेगा। और लोग इस ‘मशाल’ को हाथों में लिए अपनी आजादी की मंजिल पा लेंगे। आनंदमठ की रचना के बाद देखते ही देखते वंदे मातरम राष्ट्रवाद की भावना का प्रतीक बन गया।

बंकिम चंद्र द्वारा रचित वंदे मातरम के शब्दों को जब गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर अपनी धुन में सजाया तो इसकी लोकप्रियता और ज्यादा तेजी से बढ़ने लगी।

बंगाल का बंटवारा और “हिन्दू मुस्लिम एकता” का नारा मातरम का नारा

1905 में अंग्रेजों ने हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच बंटवारे की कोशिश करते हुए बंगाल का विभाजन का ऐलान किया,जिससे हिन्दू बाहुल्य इलाकों को अलग किया जाए और मुस्लिमों की आबादी वाले इलाके अलग,लेकिन अंग्रेजों की ये चाल उल्टी उन पर चली।

इसी पर बिपिन चन्द्र लिखते हैं कि “बंग भंग आंदोलन के नेताओं ने इस दिन को पूरे बंगाल में शोक दिवस के रूप में मनाया,इस अवसर के लिए रवींद्रनाथ टैगोर ने अपना प्रसिद्ध गीत “आमार सोनार बंगला” जिसे सड़कों पर चलने वाली भीड़ गाती,कलकत्ता की सड़कें “वन्दे मातरम के गीत की आवाज़ के साथ गूंज उठी और यह गीत रातों रात बंगाल का राष्ट्रीय गीत भी बन गया।

वंदे मातरम के गीत का इतिहास भी काफी ज्यादा दिलचस्प है। बंकिम चंद्र चटर्जी ने वंदे मातरम की रचना सन् 1870 में की थी। इसमें उन्होंने भारत मां को दुर्गा का प्रतीक माना और देशवासियों को उस मां की संतान बताया है।

उन्होंने भारत को उस मां की तरह माना है जो अंधकार और पीड़ा में घिरी हुई है और उसका शोषण किया जा रहा है। बंकिम उसके बच्चों से आग्रह करते हैं कि वह अपनी मां की वंदना करें, और उन्हें शोषण से मुक्ति दिलाएं।

देश को दुर्गा मां का प्रतीक मानने से आगे चल कर मुस्लिम लीग और मुस्लिम समुदाय के कुछ लोगों को वंदे मातरम का उपयोग उचित नहीं लगा। दरअसल, आनंदमठ की कहानी  1772 के काल में पूर्णिया, दानापुर और तिरहुत में अंग्रेज़ और स्थानीय मुस्लिम राजा के ख़िलाफ़ सन्यासियों के विद्रोह की घटना पर आधारित है।

इसका सीधा सा सार यह है कि किस प्रकार से हिंदू सन्यासियों ने मुसलमान शासकों को से विद्रोह किया और जीत हासिल की। आनंदमठ में बंकिम चंद्र ने बंगाल के मुस्लिम राजाओं की कड़ी आलोचना की है।

एक जगह बंकिम ने लिखा है, “हमने अपना धर्म, जाति, इज़्ज़त और परिवार का नाम खो दिया है। हम अब अपनी ज़िंदगी ग़वाँ देंगे। जब तक हम इनको भगाएँगे नहीं, तब तक हिंदू अपने धर्म की रक्षा कैसे करेंगे”। इसी कारण उन्हें कई बार मुस्लिम विरोधी के कह कर भी बुलाया जाने लगा था।

इसके अलावा अगर आजादी के समय की बात करें, तो जब भारत को आजादी मिली और भारत की सर्वोच्च कानूनी ग्रंथ संविधान का निर्माण किया जा रहा था। उस समय इसे न तो राष्ट्रगान के रूप में अपनाया गया और न ही इसे राष्ट्रगीत का दर्जा मिला। आजादी के तीन साल बाद भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने 24 जनवरी 1950 को ‘वंदे मातरम’ को राष्ट्रगीत के रूप में मान्यता दी।

निधन

अप्रैल 1894 में बंकिम चंद्र चटर्जी का निधन हो गया। उनके निधन के करीब 12 वर्ष बाद क्रांतिकारी बिपिन चंद्र पाल ने एक राजनीतिक पत्रिका की शुरुआत की जिसका नाम वंदे मातरम” रखा।

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