बात बीते साल की है, दिसंबर महीने के एक ठंडे दिन बीजिंग के खूबसूरत ग्रेट हॉल ऑफ पीपल में एक खास राजकीय मेहमान को रेड कारपेट का स्वागत दिया गया. जिस गर्मजोशी के साथ चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने मालदीव के राष्ट्रपति यामीन गय्यूम से हाथ मिलाया उसकी गर्माहट ना सिर्फ भारत ने महसूस की बल्कि उसकी जलन को भारत ने अब तक झेला भी । अब मालदीव में नेतृत्व में बदलाव के बाद इस दर्द से आने वाले समय में कुछ राहत तो मिल जाएगी। लेकिन दर्द पूरी तरह खत्म होगा कि नहीं ये आना वाला वक्त ही बताएगा।
कल हुए चुनाव में अब्दुल्ला यामीन को मालदीव की जनता ने भले ही सिरे से नकार दिया हो,लेकिन चुनाव के उठापटक से ये समझना कि मालदीव चीन के पाले से बाहर हो जाएगा…महज बचनकाना विश्लेषण हैं। दरअसल सच्चाई ये है कि चीन ने माले में
दूतावास भले ही 2011 में खोला हो,लेकिन अपने आर्थिक मदद के जाल में इस गति और गहराई से फांसा है कि फिलहाल मालदीव के लिए उससे निकलना मुश्किल दिख रहा है।
यामीन और चीन की दोस्ती से पहले भारत और माले करीब थे। 1998 का ऑपरेशन कैक्टस था। 2004 की सुनामी का वो लम्हा था ..जब इब्राहिम नासिर एयरपोर्ट पर उतरने वाला सबसे पहला डॉर्नियर प्लेन भारतीय कोस्ट गार्ड का ही था।
लेकिन ये बातें पुरानी हो गईं। कुछ यामीन की महत्वकांक्षा और कुछ हमारी विदेश नीति का कच्चापन। मालदीव के लिए इंडिया फर्स्ट,चाइना होता चला गया कैसे….ये समझना मुश्किल नहीं।
यामीन ने मालदीव को चीन के लिए खोल दिया..और क्या खूब खोल दिया। पिछले साल ही एफटीए (फ्री ट्रेड एग्रीमेंट) चीन को गिफ्ट करने के लिए यामीन ने आधी रात में बिना विपक्ष की मौजदूगी के संसद बुलाई । एफटीए पास करवाया। बदले में चीन को 1.3 अरब डॉलर का रिटर्न गिफ्ट मिला। ये लोन मालदीव की एक तिमाही की जीडीपी के बराबर था।
चीन ने पूरे दक्षिण एशिया में मालदीव जैसा ही मॉडल अपना रखा है। अब यामीन आएं या जाएं आर्थिक निवेश की गंगा से खुद को बचाना नई सरकार के लिए इतना आसान नहीं है । इसलिए ये कहना कि भारत का छोटा भाई मालदीव फिर अपने पाले में ऐसे ही आ जाएगा,जैसे कि पहले था…जल्दबाजी का विश्लेषण है। चीन की आर्थिक मदद का प्लान लंबी रेस का वो चक्रव्यूह है,जिससे पार पाना भारत के लिए फिलहाल आसान नहीं।