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अमरीका और इज़राईल के विरुद्ध भारत की वोटिंग के मायने

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संयुक्त राष्ट्र संघ में यमन और टर्की द्वारा अमेरिका का जेरूसलम को इजराइल का राजधानी घोषित करने के विरोध में लाये गए प्रस्ताव के पक्ष में भारत ने वोट दे दिया है. इसका सीधा सा मतलब यह हुआ की भारत ने अमेरिका और इजराइल का सीधे तौर पर विद्रोह किया है.
इसके सियासी मायने समझने और अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य के बदल जाने की सम्भावना पर हम इस लेख में चर्चा करेंगे. भारत की हाल के दिनों में इजराइल और अमेरिका के प्रति बढ़ी नजदीकी से यह चर्चाएं गर्म थी शायद भारत इस प्रस्ताव में किसी भी पक्ष की तरफ से वोट नहीं देगा, लेकिन सबको चकित करते हुए भारत ने अमेरिका और इजराइल के खिलाफ वोट दिया.
अगर बात पूरे विश्व की की जाए तो यह साफ़ हो रहा था की ज्यादातर राष्ट्र अमेरिका के फैसले से खुश नहीं थे जहाँ उसने जेरूसलम को इजराइल की राजधानी घोषित कर दिया और अपनी एम्बेसी जेरूसलम स्थानांतरित करदी और अप्रत्यक्ष रूप से यह सन्देश दिया की वह फलीस्तीन के द्वारा जेरुसलम के पूर्वी क्षेत्र को अपना बताने के दावे को नकारता है.

आखिर क्या है इजराइल-फलीस्तीन का जेरूसलम को लेकर विवाद?

  • 1948 में जब इजराइल नामक राष्ट्र का जन्म हुआ था तब से ही इजराइल और फलीस्तीन के बीच जेरूसलम को लेकर विवाद है.
  • 1967 तक जेरूसलम के पश्चिम क्षेत्र पर इजराइल का कब्ज़ा था और पूर्वी क्षेत्र जॉर्डन के अधिपत्य में था.
  • लेकिन फिर 6 दिवसीय युद्ध के दौरान इजराइल ने पूर्वी जेरूसलम पर भी अपना अधिकार हासिल कर लिया
  • फलीस्तीन नेशनल अथॉरिटी (PNA) ने जेरूसलम के पूर्वी क्षेत्र को अपनी राजधानी घोषित कर दिया.
  • हालाँकि फलीस्तीन नेशनल अथॉरिटी (PNA) यह मानता है की अगर जेरूसलम को स्वतंत्र करके इजराइल और फलीस्तीन को बराबर अधिकार क्षेत्र दे दे तो वह जेरूसलम को अपनी राजधानी न मानने के प्रस्ताव को स्वीकार कर सकता है.

क्या रहा है, भारत का रुख

  • भारत ने हमेशा से जेरूसलम पर दोनों राष्ट्रों के द्वारा बराबर से अधिपत्य देने की बात को इस मसले का हल माना है.
  • अगर भारत इस प्रस्ताव के विरोध में वोट कर देता तो वह भारत की जेरूसलम के सम्बन्ध में अबतक की ली गयी पोजीशन के खिलाफ हो जाता.
  • आपको बता दें की इस प्रस्ताव के पक्ष में 135 राष्ट्रों ने वोट दिया, 9 ने विपक्ष में और 35 राष्ट्र ने किसी भी तरह वोट न करने का निर्णय लिया.

संयुक्त राष्ट्र की जनरल असेम्ब्ली ने अमेरिका के कदम की निंदा की और इस बात पर जोर दिया की जेरूसलम विवाद आपसी सहमति से ही सुलझेगा,जिस सम्बन्ध में संयुक्त राष्ट्र संघ ने जरुरी निर्देश जरुरी निर्देश जारी कर रखे हैं.

क्या है “मोदी डॉक्ट्रिन” ?

  • भारत के नेतृत्व करने वाली भूमिका भारत के लिए अमेरिका के खिलाफ वोट देना चौंकाने वाला फैसला जरूर था, लेकिन अब हमे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों को अच्छे से समझ जाना चाहिए, जिसे अब ‘मोदी डॉक्ट्रिन’ के नाम से भी जाना जाता है.
  • इस डॉक्ट्रिन को विदेश सचिव एस. जयशंकर समझाते हुए कहते हैं की, “मोदी डॉक्ट्रिन के अंतर्गत हम भारत को एक बदला हुआ स्वरुप प्रदान करना चाहते हैं.
  • विश्व में भारत की बदलती भूमिका सबकी नजर में आये इसके लिए हम तत्पर हैं और हमारा मकसद है की हम भारत को एक ‘संतुलन करने वाली ताकत’ से ‘नेतृत्व करने वाली ताकत’ बनायें”.
  • डोनाल्ड ट्रम्प की ‘राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति’ भी भारत की इस नीति को स्वीकारती है.
  • भारत का रवैया हमेशा गुट निरपेक्ष राष्ट् का रहा है लेकिन इस प्रस्ताव के पक्ष में वोट करके भारत ने कई संकेत दिए हैं, इस वोट को इसी साल भारत द्वारा उठाये दो कदमो के साथ जोड़कर देखना चाहिए.
  • पहला स्थिति वह जहाँ भारत ने मॉरिशस के उस प्रस्ताव के पक्ष में वोट दिया था जहाँ मॉरिशस ब्रिटिश अधिकृत इंडियन ओसियन में ‘शैगोस आर्किपेलागो’ पर अपने अधिपत्य का दावा करते हुए अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय, हेग पहुंच गया था, जिसका अमेरिका ने विरोध किया था.
  • दूसरी स्थिति वह जहाँ भारत ने अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय, हेग में एक सीट हासिल की थी, जिसका भी विरोध अमेरिका ने किया था.
  • आपको बता दें की अगर भारत ने अमेरिका और इजराइल के साथ जाकर प्रस्ताव के विरोध में वोट किया होता तो वह 7 राष्ट्र की लीग में शामिल हो जाता जिनके नाम हैं, ग्वाटेमाला, होंडुरस, मार्शल आइलैंड, माइक्रोनेशिया, नॉरू, पलाउ और टोगो और यह जानना रोचक है की इनमे से 4 देशों की जनसँख्या से भी ज्यादा वोट प्रधानमंत्री मोदी ने अपने 2012 में तत्कालीन विधानसभा क्षेत्र मणिनगर से जीते थे.
  • यह भी साफ़ है की इन देशों का नेतृत्व करने की कोई मंशा भारत की नहीं होगी, क्यूंकि भारत इजराइल और अमेरिका के बाद इन देशों की अगुवाई करने के लिए दूसरा डिप्टी नहीं बनेगा.
  • भारत के पास न वोट करने का भी एक विकल्प था, ऐसी स्थिति में भारत एंटीगुआ-बारबुडा, अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, बहमास, बेनिन, कनाडा, कैमरून, क्रोएशिया, हैती, जैसे देशों की लीग में शामिल हो जाता.
  • भारत के लिए वोट न करना कोई विकल्प इसलिए नहीं था क्यूंकि अगर भारत को अगुवाई करने वाले देश के रूप में पहचान चाहिए तो वह तभी मिलेगी जब भारत कोई स्टैंड लेना शुरू करेगा और कई स्थितयों में यह जरूरी हो सकता है की भारत को अन्तराष्ट्रीय ताकतों के विरोध में जाना पड़े.

इस कदम से भारत को होंगे कई फायदे

  • इस प्रस्ताव के पक्ष में वोट करने वाले राष्ट्र में से कुछ हैं, शंघाई कोऑपरेशन आर्गेनाईजेशन (SCO) और ब्रिक्स (ब्राज़ील, रूस, इंडिया, चीन, साउथ अफ्रीका) में शामिल राष्ट्र.
  • यह जानना भी रोचक हो सकता है की साउथ कोरिया और जापान, जोकि अमेरिका के नार्थ कोरिया के खिलाफ न्यूक्लियर अटैक की स्थिति में होने वाले किसी भी प्रकार की जवाबी कार्यवाही के लिए आपसी समझौते से प्रतिबद्ध हैं ने भी अमेरिका के खिलाफ वोट दिया है.
  • अंतर्राष्ट्रीय माहौल को अगर देखा जाए तो यह बात अब समझ आती है की किसी भी राष्ट्र को अब किसी दूसरे राष्ट्र का अँधा अनुयायी नहीं बनना चाहिए.
  • नेहरू की विचारधारा यह कहती थी की राष्ट्रों को गुट-निरपेक्ष होना चाहिए लेकिन अगर वो कोई निर्णय लेते हैं तो उसे किसी दूसरे का अनुयायी होना नहीं समझना चाहिए बल्कि राष्ट्रों की स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता को पहचान मिलने के तौर पर देखा जाना चाहिए.
  • इस कदम के बाद यह समझ लेना चाहिए की भले भारत की इजराइल और अमेरिका से नजदीकी है लेकिन भारत की उनसे असहमतियां भी हो सकती हैं.
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