डॉ स्टैंटन की अवधारणा के अनुसार, नरसंहार के दस चरण इस प्रकार होते हैं
- पहला चरण “हम बनाम उनके” का “वर्गीकरण” था। यानी इस चरण में समाज मे दो पाले बंटने शुरू हो जाते हैं, यह पहचान, धर्म के आधार पर भी हो सकती है और नस्ल के आधार पर भी।
- दूसरे चरण, “प्रतीकात्मकता” ने पीड़ितों को “विदेशी” नाम दिया। जो पीड़ित पक्ष है, उसे विदेशी कह कर उसे अलग पहचान देने की यह स्टेज होती है।
- तीसरा चरण, “भेदभाव”। “नागरिकता के लिए स्वीकार किए गए समूह से [पीड़ितों] को वर्गीकृत किया गया” ताकि उनके पास “नागरिकों के मानवाधिकार या नागरिक अधिकार” न हों ताकि, उनके साथ “कानूनी रूप से भेदभाव” किया जा सके। इस चरण में, पीड़ितों के नागरिक होने पर ही सवाल खड़ा कर दिया जाता है और उनसे नागरिक होने के सुबूत मांगे जाते हैं। नागरिकता पर संशय उठाते ही, पीड़ितों के संवैधानिक नागरिक अधिकारों का क्षरण शुरू हो जाता है।
- चौथा चरण, अमानवीकरण। “जब नरसंहार सर्पिल रूप में नीचे की ओर जाने लगता है। आप दूसरों को अपने से बदतर रूप में वर्गीकृत करते हैं। आप उन्हें ‘आतंकवादियों’ या जानवरो जैसे नाम देने लगते हैं। उन्हें राजनीतिक शरीर में कैंसर के रूप में संदर्भित करना शुरू कर देते हैं। आप उनके बारे में एक ऐसी बीमारी के रूप में बात करते हैं जिससे किसी तरह निपटा जाना चाहिए।” यानी पीड़ितों का समाज से बहिष्करण की यह स्टेज होती है, जिसमे वे बिलकुल अलग थलग कर दिए जाते हैं।
- पांचवां चरण, नरसंहार करने के लिए एक “संगठन” का होना ज़रूरी होता है। अलग थलग कर देने के बाद, नरसंहार को अंजाम देने के लिये एक कोर संगठन की ज़रूरत होती है। इस चरण में ऐसा ही एक संगठन खड़ा किया जाता है। पहले के चार चरण, पीड़ितों या नरसंहार के लिये लक्षित या टारगेटेड समूह पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव डाल कर उन्हें हतोत्साहित करते हैं, और यह पांचवा चरण, उस नरसंहार के कृत्य को पूरा करने के लिये एक संगठन का गठन करता है।
- छठा चरण “ध्रुवीकरण” का होता है। मनोवैज्ञानिक रूप से नरसंहार की अपरिहार्यता बनाये जाने के बाद, दुष्प्रचार की भूमिका और महत्वपूर्ण हो जाती है। इसे आप गोएबेलिज़्म कह सकते हैं। यह प्रचार के संगठित तंत्र द्वारा प्राप्त किया जाता है।
- सातवां चरण था “तैयारी” का होता है।
- आठवां चारणव”उत्पीड़न” का कहा गया है। जहां ऐसे टारगेटेड धार्मिक या नस्ली समूह, जिनका नरसंहार या खात्मा किया जाना है, का लगातार, जानबूझकर उत्पीड़न किया जाता है और उत्पीड़न के नए नए बहाने ढूंढे जाते हैं। यहां पर बचपन मे पढ़ी गयी, झरने के ऊपर खड़ा मेमना और झरने के नीचे खड़ा भेड़िये की कहानी प्रासंगिक हो जाती है, जिसमें भेड़िया, यह जानते हुए भी पानी, नीचे से ऊपर नहीं बह सकता है, पर यही अकल्पनीय तर्क देकर, मेमने को हड़प जाता है।
- नौवां चरण “विनाश” का है।
- दसवां चरण “इनकार” का है, जब नरसंहार को रोकने के लिये उठने वाली हर आवाज़, नकार दी जाती है।
फिर जो होता है, वह वैसा ही होगा, जैसा कि कभी जर्मनी में हिटलर के समय यहूदियों का हुआ था और कुख्यात रेडियो रवांडा के कारण रवांडा में हुआ था। डॉ. स्टैंटन ने, नरसंहार पर, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों का भी मसौदा तैयार किया है, जिस आधार पर, रवांडा मामले में, अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायाधिकरण और बुरुंडी जांच आयोग का गठन किया गया। इन दोनों स्थानों पर भयानक नरसंहार हुए थे। इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ जेनोसाइड स्कॉलर्स के एक पूर्व अध्यक्ष ने, कंबोडिया, रवांडा और रोहिंग्याओं में नरसंहार पर एक बेहद महत्वपूर्ण शोध किया है, जिसे दुनियाभर के मानवाधिकार संगठनों ने मान्यता दी है।
देश की सरकार भले ही हरिद्वार धर्म संसद की भड़काऊ बयानबाजी पर चुप हो या देश मे पांच राज्यों की विधानसभाओं में इस मामले में की जाने वाली विधिक कार्यवाही का चुनावी गणित के दृष्टिकोण से गुणा भाग कर रही हो लेकिन, दुनियाभर में भारत के इस नवआतंकी स्वरूप पर हैरानी जताई जा रही है।
देश के लगभग सभी क्षेत्रों में, चाहे वह सेना का क्षेत्र हो, या वकीलों बुद्धिजीवियों का, या मैनेजमेंट के सबसे कुशाग्र विद्यार्थियों की जमात हो, हर जगह इस आतंकी शब्दावली, नरसंहार के आह्वान, संविधान विरोधी शपथ की न केवल भर्त्सना की जा रही है, बल्कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री को चिट्ठियां लिखी गयी हैं, और सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिकायें दायर की गयीं हैं। सुप्रीम कोर्ट ने उस याचिका पर संज्ञान भी लिया है और, सुनवाई भी शुरू कर दी है। सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई का ही यह परिणाम है कि उत्तराखंड पुलिस हरकत में आयी है और अब कुछ गिरफ्तारियां शुरू हुयी हैं।
एक और याचिका, सशस्त्र बलों के तीन सेवानिवृत अधिकारियों ने भी सुप्रीम कोर्ट में दायर कर के यह मांग की है कि, “हरिद्वार और दिल्ली के धर्म संसदों में मुसलमानों के खिलाफ दिए गए नफरती भाषणों की जांच के लिए विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन किया जाए।” इन तीन याचिकाकर्ताओं के नाम हैं, मेजर जनरल एसजी वोम्बटकेरे, कर्नल पीके नायर और मेजर प्रियदर्शी चौधरी हैं।
अमूमन सेना के पूर्व अधिकारी इस तरह के मामलों म नहीं पड़ते हैं। पर उल्लेखनीय है कि, सबसे पहले, धर्म संसद को हेट कॉन्क्लेव यानी घृणासभा सम्बोधित करते हुए, पांच पूर्व सेनाध्यक्षों ने ही, सशस्त्र सेनाओं के सर्वोच्च कमांडर, राष्ट्रपति को इस मामले की गम्भीरता से अवगत कराया है। उनके साथ अन्य सुरक्षा बलों के भी वरिष्ठ अफसर भी इस मुहिम में शामिल हैं। इस पत्र की प्रतिलिपि प्रधानमंत्री को भी भेजी गयी है। इसके बाद तो ऐसे पत्रों का सिलसिला ही शुरू हो गया।
इन तीन पूर्व सैन्य अफसरों द्वारा दायर इस जनहित याचिका में कहा गया है कि, ” देशद्रोही और विभाजनकारी भाषणों ने न केवल देश के आपराधिक कानून का उल्लंघन किया, बल्कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 पर भी हमला किया है। यह भाषण राष्ट्र के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने पर दाग लगाते हैं और पब्लिक ऑर्डर (लोक व्यवस्था) पर प्रतिकूल प्रभाव डालने की गंभीर क्षमता रखते हैं।” याचिका में यह एक गम्भीर विंदु उठाया गया है कि, इससे लोकव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
दरअसल आईपीसी की जिन धाराओं में यह मुक़दमे दर्ज किए गए हैं, वे सज़ायाबी या अपराध की गंभीरता को देखते हुए गम्भीर कानूनी धाराएं नहीं है, पर उन भाषणों और शपथ के भड़काऊपन से समाज मे वैमनस्यता फैल सकती है, हिंसक प्रतिक्रिया हो सकती है, जिससे पब्लिक ऑर्डर या लोकव्यवस्था भंग हो सकती है। ऐसे मामलों में एनएसए यानी, राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत कार्यवाही की जानी चाहिए जो अब तक नहीं की गयी है।
याचिकाकर्ताओं ने कहा है कि, “अगर ऐसी घटनाओं पर ध्यान नहीं दिया जाता है तो इससे सशस्त्र बलों के सैनिकों के मनोबल और देश की एकता व अखंडता पर गंभीर दुष्प्रभाव पड़ सकता है, क्योंकि सेना में, विविध समुदायों और धर्मों के सैनिक हैं।”
याचिकाकर्ताओं ने इस बात की ओर भी ध्यान आकर्षित किया है कि, “ऐसे नफरती भाषण हमारे सशस्त्र बलों की लड़ने की क्षमता पर भी दुष्प्रभाव डाल सकते हैं, जिसकी प्रतिक्रियास्वरूप राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता करना होगा।”
याचिका में दिल्ली और हरिद्वार की धर्म संसदों में कही गईं उन पंक्तियों का भी हवाला दिया गया है, जिनमें कथित तौर पर मुसलमानों के जनसंहार का आह्वान करते हुए देश की पुलिस, नेताओं, सेना और हर हिंदू से मुसलमानों के खिलाफ हथियार उठाने की अपील की गई थी। यह अपने आप मे ही सेना और सुरक्षा बलों को धर्म के नाम पर भड़काना और उन्हें संविधान की शपथ के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह के लिए उकसाना हुआ। इसे हल्के में लेना या जैसा कि एक केंद्रीय मंत्री ने कहा है कि, इसे नज़रअंदाज़ किया जाना चाहिए, सर्वथा अनुचित होगा। याचिका में यह भी कहा गया है कि, “इस तरह के असंवैधानिक और नीच चरित्र के अभद्र भाषण आज़ादी के बाद शायद पहली बार दिए गए हैं।”
इस प्रकार, दिन प्रतिदिन, हरिद्वार धर्म संसद की घृणावादी रवैये को लेकर, देश और दुनियाभर में आलोचना और इसके आयोजकों के खिलाफ कार्यवाही करने की मांग ज़ोर पकड़ रही है। पुलिस ने मुख्य आयोजक यति नरसिंहानंद को गिरफ्तार भी कर लिया है और एक अन्य आरोपी वासीम रिज़वी उर्फ जितेंद्र त्यागी को पहले ही जेल भेजा जा चुका है। लेकिन संविधान की अवहेलना और निंदा के दुस्साहस का यह भी एक उदाहरण है कि, गिरफ्तारी के समय, यति नरसिंहानंद ने न केवल भारतीय संविधान बल्कि देश की सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ भी, बेहद अपमानजनक और अभद्र भाषा मे न्यायपालिका की शक्तियों और अधिकार तथा संविधान की मूल आत्मा के खिलाफ विषवमन किया। नरसिंहानंद का वह वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल है और उसे देश तथा दुनियाभर में देखा जा रहा है।
इस वीडियो के बाद, एक एक्टिविस्ट शची नेल्ली ने भारत के अटॉर्नी जनरल को पत्र लिखकर, हरिद्वार ‘धर्म संसद’ में भड़काऊ बयान और नरसंहार का आह्वान करने वाले, नेता यति नरसिंहानंद द्वारा की गयी, भारत के संविधान और सर्वोच्च न्यायालय के खिलाफ उनकी एक ‘अपमानजनक टिप्पणी’ पर, संज्ञान लेने और न्यायालय के अवमानना की कार्यवाही शुरू करने के लिए, सहमति मांगी है। उल्लेखनीय है कि अवमानना वाद दाखिल करने की सहमति, भारत के अटॉर्नी जनरल देते हैं।
अटॉर्नी जनरल को संबोधित, शची नेल्ली के पत्र में कहा गया है कि
“14 जनवरी को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ट्विटर पर वायरल हुए, विशाल सिंह को दिए गए एक साक्षात्कार में, यति नरसिंहानंद, जो अपने मुस्लिम विरोधी नफरत भाषणों के कारण इधर चर्चित हो रहे हैं, ने सुप्रीम कोर्ट और भारत के संविधान के लिए अत्यंत आपत्तिजनक और अपमानजनक बातें कहीं हैं। अटॉर्नी जनरल को, इसे देखते हुए, न्यायालय की अवमानना का वाद चलाने की सहमति दी जानी चाहिए।”
शची नेल्ली के पत्र में, इस कथन के पूरे उद्धरण और संदर्भ को इस प्रकार बताया गया है,
” हरिद्वार धर्म संसद में, भड़काऊ भाषण के बारे में, हो रही कानूनी और सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई के मामले मे पूछे जाने पर, यति नरसिंहानंद ने कहा कि “हमें भारत के संविधान और सर्वोच्च न्यायालय पर कोई भरोसा नहीं है। संविधान इस देश के 100 करोड़ हिंदुओं को खा जाएगा। जो इस संविधान को मानते हैं, वे सब मारे जाएंगे। जो इस न्यायिक प्रणाली, इस राजनीतिक सिस्टम, सेना पर भरोसा करते हैं, वे सभी कुत्ते की मौत मरेंगे।”
इसके अतिरिक्त पत्र में उसी बातचीत की एक अन्य क्लिप का उल्लेख किया गया है, जहां यति नरसिंहानंद से जब मामले में पुलिस द्वारा की गई गिरफ्तारी के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि,