वो इंडियन काफी हाउस की दोपहर ही थी जब दिग्विजय सिंह ने हम पत्रकार मित्रों के बीच फोन लगाकर प्रदेश के मुख्य सचिव को कहा था कि अब्दुल जब्बार के जल्दी भोपाल से बाहर देश के किसी अच्छे अस्पताल में आज ही ले जाने की व्यवस्था करो। उसके बाद उन्होंने दो बार चिरायु अस्पताल के डाक्टर अजय गोयनका से भी फोन पर बात की और हिदायत दी कि देर नहीं करो, उसे जल्दी मुंबई या दिल्ली के किसी अस्पताल में एयर एंबुलेंस से भेजो और वो वहां से उठकर अस्पताल जब्बार को देखने भी गये। तब भी हमें अहसास नहीं था कि जब्बार भाई के इतने चाहने वालों की कोशिशों के बाद भी उनके नहीं रहने की दुखद खबर आज रात को ही आ जायेगी।
वैसे पिछले कुछ अर्से से उनकी और उनकी सेहत के बारे में अच्छी खबरें नहीं मिल रही थी। लंबे समय से वो बीमार चल रहे थे। कुछ साल पहले उनकी आंख में दिखना कम हुआ फिर मधुमेह बहुत बढ गया और फिर स्कूटर से गिरे तो पैर में चोट लगी, फटे जूते पहने तो अंगुलियों में घाव हुआ और ये घाव गेंगरीन में बदल गया। तो अंगुलियें कटने की नौबत आ गयी। दिल तो उनका कमजोर इतने लंबे अर्से से हजारों गैस पीडितों के दुख दर्द का बोझ उठाते उठाते हो ही गया था। यही वजह थी कि इस बार वो बिस्तर से लगे तो अपने सभी साथियो के प्रयासों के बाद भी उठ ना सके।
भई वो अपनी सेहत की परवाह कभी करता ही नहीं था, अनेक गैस पीडितों का अस्पतालों में ले जाकर इलाज कराने वाला जब्बार जब कभी अस्पताल में भर्ती हुआ, तो डाक्टर उसे हफते भर रूकने को कहते मगर वो तो एक दो दिन बाद ही किसी को भी बिना बताये स्कूटर उठाकर निकल लेता था। जब तक लोग उसे अस्पताल देखने जाते वो अपने दफतर में तब तक पहुंचकर काम में जुट जाता था, उस तोते की जान तो अपने गैस पीडित साथियों के बीच ही बसती थी। ये वरिष्ठ पत्रकार राजकुमार केसवानी थे जो उनके लंबे समय से साथी रहे। और भारी मन से जब्बार भाई की बातें जनाजा उठते वक्त बता रहे थे।
पिछले कुछ सालों में भोपाल के पत्रकार जगत में शायद ही कोई ऐसा रिपोर्टर होगा जिसे जब्बार भाई जानते ना हों और जिसे उन्होंने कोई बढिया खबर करने में मदद ना की हो। हम टीवी पत्रकारों की हर गैसकांड की खबर बिना उनकी बाइट लिये बनती ही नहीं थी। मैं स्वयं याद करने बैठा कि जब्बार भाई भोपाल में वो शख्स होंगे जिनकी बाइट मैंने सबसे ज्यादा ली होगी। यही हाल और दोस्तों का भी होगा मगर ये अलग बात है कि पिछले कुछ सालों में टीवी की खबरों के कंटेंट में बदलाव आया और गांव गरीब के साथ गैस पीडितों की खबरें टीवी चैनलों पर चलनी बंद हुयी तो हमारा जब्बार भाई से मिलना भी उतना ही कम हो गया। मगर इस सबके बावजूद वो उनका मीठी सी आवाज में फोन करना सुबह सबेरे में छपे मेरे लेख की तारीफ करना और गैस पीडितों की समस्याओं पर लंबी लंबी बातें करना कम नहीं हुआ।
कई दफा तो हम सब हैरान रह जाते थे, कि इस आदमी को गैस पीडितों की समस्याओं के अलावा कुछ सूझता ही नहीं है। यदि वो किसी शादी ब्याह और दूसरे आयोजनों में मिलते भी तो हाथ मिलाने के बाद खाना पीना छोडकर अपने स्नेह भरे अंदाज में शुरू हो जाते थे अरे आपको बताना भूल ही गया कि एक नया केस फाइल कर दिया है कोर्ट में जिससे ऐसा हो जायेगा वगैरह वगैरह।
दरअसल वजह वही थी कि वो तो देवास में नलों की बोरिंग का काम धंधा जमाये हुये थे और जब तीन दिसंबर 1984 को भोपाल में गैस रिसी तो गैस खायी और गैस पीडितों की दुख तकलीफ उठाने वाले बन गये। एनजीओ क्या होता है वो जानते भी नहीं थे ना ही समाज सेवा के लिये उन्होंने सोशल साइंस का कोई कोर्स किया था, बस जो तकलीफ में दिखा उसकी आवाज उठायी और खासकर उन महिलाओं की जिनकी आवाज उनके घरों में ही नहीं सुनी जा रही थी, उन औरतों के लिये भोपाल गैस पीड़ित महिला उदयोग संगठन बनाया और बदनसीब औरतों को उनके पैरों पर खड़ा किया और बाकी पीड़ितों को उनका हक दिलवाया।
गैस कांड का फैसला तो हत्यारी यूनियन कार्बाइड ने अपने पक्ष में तभी करवा लिया था, जब कोर्ट के बाहर मुआवजा बंटवारे का समझौता सरकार और कंपनी के बीच हो गया। मगर अब्दुल जब्बार अड़े थे, कि हज़ारों लोगों की मौत का ज़िम्मेदार कौन है? साबित होना चाहिये। और फिर बाद में कार्बाइड से जुडे लोगों पर चला आपराधिक मुकदमा अब्दुल जब्बार भाई की लंबी कानूनी लडाई की जीत था।
गैस पीड़ितों के बीच भोपाल में सक्रिय अन्य संगठन दिसंबर की दो तीन तारीख को ही सालाना जलसा मनाते थे, तो जब्बार इस सबसे जुदा पूरे साल पीड़ितों के पक्ष में कोर्ट और सरकार से जूझते रहते थे। अर्जुन सिहं से दिग्विजय सिंह और कमलनाथ तक प्रदेश के आठ मुख्यमंत्री बदले, मगर नहीं बदले तो अब्दुल जब्बार के तेवर। हां जिन गैस पीडितों के लिये उन्होंने रात दिन एक किया वो ज़रूर इतने सालों में पाले बदलते रहे, कभी इस संगठन तो कभी उस संगठन, मगर जब्बार ने कभी उनका सबका ज़िक्र करने पर भी गुस्सा नहीं दिखाया। यही उनकी ताकत थी कि अपने सीमित क्षमताओं के बाद भी जो संघर्ष किया उसका नतीजा झेला उनकी सेहत ने।
अब्दुल जब्बार पहचान थे भोपाल के हजारों गैस पीडितों की आवाज़ की, मगर वो पहचान हम भोपाली सहेज ना सके। जब वो बीमार पडे तो ये अस्पताल वो अस्पताल होते रहे और नतीजा ये हुआ, कि जब उनके दोस्तों और शासन की नजर गयी, तब तक वो भोपाल से रूखसत होने की तैयारी में आ गये। अब्दुल जब्बार भाई की ये जहां छोडने की उम्र नहीं थी मगर वो जहां भी होंगे अपनी मीठी आवाज और तीखे तेवरों वाले अंदाज में गैस पीडितों के लिये संघर्ष करते दिखेंगे। अलविदा जब्बार भाई हम भोपाल के बाशिंदे शर्मिदा हैं जो आपको सहेज ना सके।