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अब वो दीवाली नहीं आती !

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बहुत दिनों बाद कुछ लिखा है, आज 17 तारीख है और परसो है दीपावली और हमारी भाषा में दीवाली,जबसे बारहवीं की परीक्षा पास की और उसके बाद दिल्ली में आया था तो बड़ी चकाचौंध थी यहाँ, मेट्रो में सब कुछ नया था,ठंडी ठंडी हवा चल रही अंदर और सब लोगों के पास बड़े फोन और उनमें लगे इयरफोन या हमारी भाषा में लीड यहाँ की हक़ीक़त बयान कर रहे थे, कि कितना अच्छा है यहाँ सब अपने काम से काम रखते है. हमारे गाँव की तरह नहीं है कि सब एक दूसरे से बिना वजह ही बात करने लग जाएं, खैर जैसे तैसे मैंने भी कोचिंग शुरू की और लग गया अफसर बनने की लाइन में.
इस लाइन में 1 लाख रुपए दो तो वातानुकूलित कमरों में अफसर बनते थे,50 हजार दो तो प्लास्टिक की कुर्सियों पर अफसर बनते थे और 25 हजार में सिर्फ वो ही अफसर बन सकते थे जो जल्दी से जल्दी आकर अपना स्टूल घेर ले. नहीं तो सबसे पीछे टूटे हुए स्टूल पर किताब रखकर खड़े खड़े अफसर बनना पड़ेगा,और जिनके पास अच्छे पैसे होते वो 10- 12 लाख में सीधे भी अफसर बन सकते थे, बिना लाइन के लेकिन ये डायरेक्ट अफसर बनने का ख्याल मन में कभी नहीं आया या सच कहूँ तो आया था. लेकिन बड़ी बहन की शादी भी करनी है और घर में बापू अकेले कमाने वाले हैं और उन पैसों में से आधे तो हर महीने में ही ले लेता हूं कभी कभी एक्स्ट्रा भी माँगा लेता हूँ किताब लेने या मैथ्स की स्पेशल क्लास के बहाने और दुख होता है कि झूठ बोला लेकिन यही इकोनॉमिक्स है जो ले देकर चलती है,एक दिन कमाऊँगा तो सब सही हो जाएगा.
अब दिवाली पर घर जाने की तैयारी मेरी बहुत दिनों से थी लेकिन उत्साह नहीं था आखिरी बार याद नहीं 7 या 8 महीने पहले गया था,रक्षाबन्धन पर भी नहीं गया बहन ने गुस्सा भी किया,माँ ने कहा आजा सालभर का त्यौहार है लेकिन नहीं गया पढ़ना था और आज जब जाने की तैयारी कर रहा था तो 2 4 कपड़े ही थे बैग में शुरू शुरू में तो पूरा बैग भर जाता था सारे गन्दे कपड़ों से लेकिन अब माँ को क्या परेशान करना और 2 दिन का क्या लालच इसलिए खुद ही धो लेता हूँ, मेट्रो में चढ़ा तो घुटन थी,और जल्दी जल्दी भाग कर एक्सिट कर के कश्मीरी गेट से बस पकड़ी चेहरे पर रंगत तो थी ही नहीं फिर मैंने भी अपने इयरफोन निकाले यानी लीड निकाली और लगा सुनने गाने,फेसबुक चलाई तो मित्र हिन्दू मुस्लिम में खुश थे,1 घण्टे बाद जब बस दिल्ली से निकली और सड़क के दोनों और हरियाली दिखी तो याद आया कि अब वो दीवाली क्यों नहीं आती?
वो दीवाली अब नहीं आती जब दीवाली के 1 हफ्ते पहले से दीवाली शुरू हो जाती थी,धनतेरस का तो पता भी नहीं था क्या होता है अब 2 3 साल से लोग इस दिन मोटरसाइकिल,सोना खरीदने लगे हैं पर हमारे घर 4 स्टील के ग्लास या जग आदि आते हैं, अब वो दीवाली नहीं आती जब हमारे ताऊ छुट्टी पर आते थे और कैंटीन से हमारे लिए खाने की चीज़ी लाते थे,वो दीवाली नहीं आती जब मिट्टी के दियों को जलाने पूरे गाँव के बच्चे एक साथ देवता पर जाते थे,वो दीवाली अब नहीं आती जब चूल्हे के आगे बैठा के माँ कचौड़ी खिलाती थी और कहती थी पहले खा ले उसके बाद पटाखे फोड़ना,वो दिवाली अब नहीं आती जब हम दिनभर खाद के कट्टो पर दीवाली के पटाखे सुखाते थे,वो दीवाली अब नहीं आती जब ताऊ हम सब तहरे चचरे भाई बहनों में पटाखे बाँट देते थे और हमारी बहनें दीवाली की शाम को अपने सारे पटाखे हमें ही दे देती थी,वो दीवाली अब नहीं आती जब अम्मा हमें अनार और चरखी चलाते हुए देखकर खुश होती थी और हमें अपनी माँ और दादी अम्मा को फुलझड़ी पकड़ाकर कहते थे “अरि चला के तो देख कुछ ना होने का” और जानबूझकर हमारे लाड़ के लिए डरती थीं, वो दीवाली नहीं आती जब अगले दिन गोवेर्धन पूजा या गोधन होते थे और पूरा परिवार एक साथ पूजता था और उसके बाद नेक का एक पटाखा फोड़ते थे, अब वो दीवाली नहीं आती जब पटाखे फोड़कर पूरा मोहल्ला एक साथ बैठकर रातो रात हंसी मजाक करता था, सही में अब दीवाली सिर्फ छुट्टी रह गई है,दिवाली दिवाली नहीं बची.
अब 3- 4 साल से ये करता हूँ कि दीवाली की शाम को ही जाकर 2 4 पटाखे लाता हूँ और उनमें 1 2 फोड़कर मोहल्ले के बच्चों को दे देता हूँ,1 मिठाई का डिब्बा किसी गरीब को देता हूँ और ये बात किसी को नहीं पता है आजतक,औरों की खुशी में अपनी खुशी ढूंढता हूं. अब सब भी दीवाली मनाओ लेकिन पैसा ना बहाओ, किसी की मदद करो और किसी को ये मत लगने दो कि हमारी दीवाली उनसे बेहतर है,एक साथ बैठो बात करो क्योंकि अब वो दीवाली नहीं आती लेकिन हम सब अपने दिलवाली दिवाली तो मना ही सकते हैं.
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