"3 दिसंबर 1984" – जब भोपाल में हर ओर नज़र आ रही थीं लाशें

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उस रात कई आँखें सोने के लिए बंद हुईं, पर हमेशा के लिए वो आँखें बंद हो गई थीं. किसी ने ख्वाबों में भी उस तबाही के बारे में न सोचा था, जो 3 दिसंबर 1984 को भोपाल शहर के कई परिवारों को बर्बाद कर चुकी थी. जब लोग 2 दिसंबर की रात सोये थे, तब सब कुछ ठीक था. पर 3 दिसंबर की उस सुबह भोपाल में अफ़रा तफ़री का ऐसा माहोल था, जिसे उस वक़्त के चश्मदीद बताते हुए सिहर उठते हैं.
लाशों का ढेर, आँखों में जलन और तकलीफ़ के साथ लोग अस्पतालों की तरफ दौड़ रहे थे. हर तरफ से हाहाकार मचा हुआ था. भोपाल के यूनियन कार्बाईड कारखाने के टैंक नंबर E-610 वही टैंक था, जिससे मिथाइलआइसोसाइनाइट (MIC) नामक जहरीली गैस का रिसाव हुआ था. यही टैंक भोपाल शहर में गैस कांड की वजह बना था.
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यूनियन कार्बाईड के कारखाने में कीटनाशक बनाया जाता था. ज्ञात होकि यह कारखाना आबादी के एकदम नज़दीक था. उस समय का जेपीनगर और वर्तमान आरिफनगर में बने इस कारखाने का आबादी के नज़दीक होना ही सबसे ख़तरनाक था. नियम और कानूनी तौर पर इस तरह के कारखाने शहर की आबादी से दूर बनाये जाये हैं. ताकि किसी भी तरह की अनहोनी से बचा जा सके. यूनियन कार्बाईड कारखाने का आबादी के क़रीब बनना ही सबसे बड़ी गलती थी.
नवम्बर 1984 तक कारखाना के कई सुरक्षा उपकरण न तो ठीक हालात में थे और न ही सुरक्षा के अन्य मानकों का पालन किया जा रहा था. स्थानीय अखबारों के अनुसार कारखाने में सुरक्षा के लिए रखे गये सारे मैनुअल अंग्रेज़ी में थे, जबकि कारखाने में कार्य करने वाले ज़्यादातर कर्मचारियों को अंग्रेज़ी नहीं आती थी. साथ ही, पाइप की सफाई करने वाले हवा के वेन्ट ने भी काम करना बन्द कर दिया था. समस्या यह थी कि टैंक संख्या E-610 में नियमित रूप से ज़्यादा मिथाइलआइसोसाइनाइट (MIC)  गैस भरी हुई थी. इसके अलावा गैस का तापमान भी निर्धारित 4.5 डिग्री की जगह 20 डिग्री था. मिथाइलआइसोसाइनाइट (MIC)  को कूलिंग स्तर पर रखने के लिए बनाया गया फ्रीजिंग प्लांट भी पॉवर का बिल कम करने के लिए बंद कर दिया गया था.
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क्या हुआ था उस रात को ?

2 दिसम्बर 1984 की रात को टैंक E-610 में पानी का रिसाव होने की वजह दबाव पैदा हो गया और टैन्क का अंदरूनी तापमान 200 डिग्री के पार पहुँच गया. टैंक दबाव सहन नहीं कर पाया और ज़हरीली गैस का रिसाव शुरू हो गया. 1घंटे में लगभग 30 मीट्रिक टन गैस का रिसाव हो चुका था. भोपाल की हवा ज़हरीली हो चुकी थी. लोग आँखों में जलन और दम घुटने की शिकायत कर रहे थे. भोपाल के आरिफ़ नगर, क़ाज़ी कैम्प और घोड़ा नक्कास से लोग भागकर लाल परेड मैदान की तरफ़ जा रहे थे. जहां इन क्षेत्रों के मुक़ाबले गैस का प्रभाव थोड़ा कम था. देखते देखते लाल परेड मैदान लोगों से भर गया था.
सरकारी आकंडों के मुताबिक़ इस घटना में पंद्रह हजार से ज़्यादा लोग मारे गए थे. वहीं गैर सरकारी आंकड़ों के मुताबिक मरने वालों की तादाद इस संख्या से कहीं ज़्यादा, 50 हज़ार से भी ज़्यादा थी. ताज्जुब की बात तो ये है, कि इतनी बड़ी तादाद में मौतें हुईं, और आजतक इन मौतों के ज़िम्मेदार लोगों को सज़ा नही मिली. यूनियन कार्बाईड का मालिक और भोपाल हादसे के विलेन वारेन एंडरसन को भारत वापिस नहीं लाया जा सका. कुछ समय पूर्व अमेरिका में उसकी मृत्यु हो चुकी है.
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एक बात की चर्चा और होती है, कि भोपाल गैस हादसे के आरोपियों को सजा दिलाने की बजाए सरकार की दिलचस्पी पीड़ितों के लिए कार्बाइड कंपनी से मुआवजा वसूल करने में ज्यादा रही है. जब भी भोपाल में आरोपियों को कानून से बचाने को लेकर हल्ला मचा सरकार बचाव में मुआवजे की बात करने लगती है.
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वर्ष 1989 में हुए समझौते के तहत यूनियन कार्बाइड ने 705 करोड़ रुपए का मुआवजा पीड़ितों के लिए मध्यप्रदेश सरकार को दिए थे. इस समझौते के लगभग 21 साल बाद केंद्र सरकार ने एक विशेष अनुमति याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर कर 7728 करोड़ रुपए के मुआवजे का दावा किया. याचिका मंजूर हो गई पर सुनवाई अब तक शुरू नहीं हुई है.
आजका भोपाल एक बड़ा शहर बन चुका है, यूनियन कार्बाईड कारखाना जिस जगह पर था, वो जगह अब शहर के अंदर का हिस्सा बन चुकी है. पर भोपाल गैस हादसे के निशानात आज भी ज़िंदा हैं. इस हादसे से एक सबक मिलता है, कि औद्योगीकरण ज़रुरी तो है पर सुरक्षा के मानकों को एक तरफ रखकर बिलकुल भी इसे स्वीकार मत करिए. क्योंकि भोपाल गैस कांड जैसे हादसे बताकर नहीं होते. आपकी सुरक्षा आपकी सावधानी में है.

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