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राजद्रोह जैसा आरोप लगाना कुछ ज्यादा नहीं है?

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एक छोटी सी कहानी सुनाना चाहता हूं. यह कहानी आपको याद दिलाएगी कि हम कहां से कहां आ गए हैं. यह हालत हो गई है कि उस मुल्क का नाम सुनते ही इस मुल्क के होश उड़ने लगे हैं. जो अधिकारी अपना काम शायद ही कभी ठीक से कर पाते हों वो तुरंत केस दर्ज कर हीरो बन जाते हैं. राजद्रोह ही लगता है इस वक्त का सबसे प्रचलित अपराध है. पब्लिक लड़की के घर भी चली जाती है और पत्थर मारने लगती है. हम बंगलूरू की अमूल्या को लेकर ही बात करना चाहते हैं लेकिन पहले उस छोटी सी कहानी को सुनाना चाहता हूं. कहानी यह है कि 30 जनवरी 1948 को महात्‍मा गांधी की हत्या के 9 महीने बाद संविधान सभा की पहली बैठक होती है. गांधी जी की हत्या के तीन दिन पहले 27 जनवरी को संविधान सभा की बैठक हुई थी.

उसके बाद 9 महीने बाद संविधान सभा की अगली बैठक होती है, 4 नवंबर 1948. सुबह के 11 बजे रहे थे. कॉन्‍स्टिट्यूशन हॉल में बैठक होती है. संविधान संभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद कहते हैं कि माननीय सदस्यों, इससे पहले कि हम ऑर्डर पेपर के आइटम पेपर्स पर बात करें, मैं आप सभी से अपने स्थान पर खड़े होने का आग्रह करूंगा ताकि हम राष्ट्रपिता को श्रद्धाजंलि और सम्मान दे सकें जिन्होंने हमारे मुर्दा जिस्म में सांस फूंकी थी, जो हमें निराशा के अंधकार से निकाल कर उम्मीद की रोशनी में ले गए. जो हमें गुलामी से आज़ादी की ओर ले कर गए. दुआ है कि वे हमें मार्ग दिखाते रहेंगे. उनकी ज़िंदगी और तालीम हमारी मंज़िल के पथ की रोशनी बनें.

डॉ. राजेंद्र प्रसाद के आग्रह पर सभी सदस्य खड़े होते हैं और बापू को श्रद्धांजलि देते हैं. इसके बाद सदस्य बैठ जाते हैं. फिर डॉ. राजेंद्र प्रसाद सदस्यों से आग्रह करते हैं कि वे सभी क़ायद-ए-आज़म मोहम्मद अली जिन्ना, डी पी खेतान और डी एस गुरुंग को श्रद्धांजलि देने के लिए खड़े हों.

‘मैं आप सभी से अपने स्थान पर खड़े होने का आग्रह करता हूं ताकि हम कायद-ए-आज़म मोहम्मद अली जिन्ना को श्रद्धांजलि दे सकें. जिन्होंने अपनी दृढ़ निश्चय और अडिग निष्ठा से पाकिस्तान की स्थापना की और जिनका इस समय गुज़र जाना हम सभी के लिए एक अपूरणीय क्षति है. हम सीमा के उस पार रहने वाले अपने भाइयों को अपनी सहानुभूति पेश करते हैं.’

30 जनवरी 1948 को गांधी जी की हत्या हुई थी. 11 सितंबर 1948 को जिन्ना का निधन हुआ था. गांधी की हत्या के बाद जिन्ना ने 4 फरवरी 1948 को गांधी जी को श्रद्धांजलि दी थ. तारीफ में कहा था कि हमारे जो भी मतभेद रहे हों लेकिन वह हिन्दु समाज से निकले सबसे महान शख्सियतों में से एक थे. उनका सभी सम्मान करते थे. उनके जैसे महान शख्स की कमी कभी नहीं पूरी हो सकेगी. ये और बात है कि गांधी सभी के नेता थे मगर जिन्ना ने उन्हें श्रद्धांजली दी थी. इसके बाद जब 11 सितंबर 1948 को जिन्ना का निधन हुआ तो भारत की संविधान सभा में गांधी जी के साथ उन्हें भी श्रद्धांजलि दी जाती है. इस कहानी को बताने का मकसद यही है कि विभाजन के बवंडर में भी हमारे नेताओं का किरदार कितना बड़ा था. उस वक्त दोनों तरफ से सभी मज़हबों के बीस लाख लोग मारे गए थे. तब डॉ. राजेंद्र प्रसाद भारत की संविधान सभा में पहले गांधी जी को श्रद्धांजलि देते हैं और फिर जिन्ना को. मुझे श्रद्धांजलि और ज़िंदाबाद के नारे में फर्क पता है तब भी यह कहानी बताती है कि भारत को ख़ुद में कितना भरोसा था. उस समय के नेताओं का दिल कितना बड़ा था. आज कोई ऐसा कर दे तो उनका चेहरा लाल रंग से घेर कर न्यूज़ चैनलों पर चलाया जाएगा और गद्दार से लेकर पाकिस्तानी कह दिया जाएगा. रात होते होते उस चेहरे को देश का सबसे बड़ा दुश्मन बता दिया जाता.

अगर हम ये कहानी जानते तो बंगलुरू की 19 साल की लड़की की बात पर मुस्कुरा कर आगे बढ़ जाते. मगर न्यूज़ चैनलों ने दिन रात गद्दार पाकिस्तानी बताते बताते लोगों का ये हाल कर दिया है कि बंगलुरू की इस सभा में 19 साल की लड़की ने पाकिस्तान को ज़िंदाबाद क्या कहा, आप मंच पर देखिए कि कैसे घबराहट मच गई. ऐसा लगा कि धरती फट गई है. अमूल्या लियोना नरोहना को कोई खींचने लगा तो कोई माइक छिनने लगा. वो अपनी बात पूरी नहीं कर सकी. अमूल्या ने हिन्दुस्तान ज़िंदाबाद के भी नारे लगाए. 3 बार पाकिस्तान ज़िंदाबाद कहा और फिर तुरंत 6 बार हिन्दुस्तान ज़िंदाबाद कहा. लेकिन कोई अफसर तुरंत सक्रिय हो जाता है. उस पर भी इस राजनीति और मीडिया के बनाए दबाव का असर होता है. वर्ना ऐसे अफसरों के दफ्तरों के आगे गरीब लोग दिन रात चक्कर लगाते रहते हैं, उन्हें कम ही मामलों में मदद मिल पाती है. मीडिया ने पांच साल में जो मेहनत की है उसी का नतीजा है कि अमूल्या के घर भीड़ चली जाती है. हमला कर देती है. कुछ लोग चिकमंगलूर में अमूल्या के घर चले गए और पिता से कहा कि भारत माता की जय के नारे लगाओ. पिता ने कहा कि ज़बरन नारे लगवाए गए.

पिता ने द हिन्दू अखबार से कहा है कि मैं एक देशभक्त हूं. मेरे घर कई लेखक और नेता आते रहते हैं. बेटी को लेकर पिता के अलग अलग जगहों पर अलग-अलग बयान छपे हैं. जिनसे पता चलता है कि वे अपनी बेटी के इस बयान का समर्थन नहीं करते हैं लेकिन उनका यह कहना विचित्र लगा कि अमूल्या की ज़मानत के लिए वकील के पास नहीं जाएंगे. जेल में सड़े तो सड़े. मुझे फर्क नहीं पड़ता अगर पुलिस इसकी हड्डियां भी तोड़ दे. भीड़ और मीडिया का दबाव ऐसा हो गया है कि कोई पिता इस तरह से बिखर सकता है. काश वे ऐसा नहीं करते. लेकिन आप इसे अमूल्या और उसके पिता के संदर्भ में भी देखिए और आज के माहौल के संदर्भ में भी. मतलब भीड़ का भय इस कदर हावी है कि जिस बात पर हंसना चाहिए था उस बात पर हम इस हद तक पहुंच जाते हैं. खुलेआम भीड़ के सामने गोली चलाता हुआ नौजवान आया था तब क्या किसी ने उसके घर पर हमला किया था, नहीं. जैसे ही पता चला कि गोली चलाने वाला नाबालिग है सब नाम और चेहरा छिपाने लगे. इस नाबालिग के घर कोई नहीं गया. अच्छा हुआ कोई नहीं गया. कन्नड़ में बातचीत है लेकिन देखिए जब कुछ लोग घर पहुंचे तो क्या होता है.

ये लोग कौन हैं इसे लेकर कई तरह की राय है. इन्हें दक्षिणपंथी हिन्दू संगठन की कैटगरी में रखा गया है. फिर भी ये किसी भी कैटगरी के हों लेकिन क्या कोई कानून इन्हें इजाज़त देता है कि किसी के घर में घुस कर भारत माता की जय बुलवाएं. इन लोगों पर कोई मामला दर्ज नहीं हुआ है. अमूल्या पर राजद्रोह और अन्य दो मामले लगाए गए हैं. अमूल्या को 14 दिनों की न्यायाकि हिरासत में भेजा गया है.

20 फरवरी की इस घटना से पहले अमूल्या ने अपने फेसबुक पेज पर एक पोस्ट लिखा है. इस पोस्ट में अमूल्या ने कई देशों का ज़िंदाबाद किया है और लिखा है कि ‘हिन्दुस्तान ज़िंदाबाद, पाकिस्तान ज़िंदाबाद, बांग्लादेश ज़िंदाबाद, नेपाल ज़िंदाबाद, श्रीलंका ज़िंदाबाद, अफगानिस्तान ज़िंदाबाद, चीन ज़िदाबाद, भूटान ज़िंदाबाद और जो भी देश हैं उनका ज़िंदाबाद. आप बच्चों को सिखाते हैं कि जो देश है वो मिट्टी है. हम बच्चे बताना चाहते हैं कि देश का मतलब है उस जगह में रहने वाले लोग और उन्हें सभी ज़रूरी चीज़ें मिलनी चाहिए. बुनियादी अधिकार मिलने चाहिए. उन सभी को ज़िंदाबाद जो समाज की सेवा करते हैं. सिर्फ इसलिए कि मैं किसी देश को ज़िंदाबाद कहती हूं उसकी नागरिक नहीं हो जाती. कानून के मुताबिक मैं भारत की नागरिक हूं. मुझे अपने देश की इज्जत करनी चाहिए. यहां रहने वाले लोगों के लिए काम करना मेरा फर्ज़ है और मैं यह करूंगी. देखते हैं कि आरएसएस वाले क्या कर सकते हैं. बहुत सारे संगठन गुस्से में होंगे. मुझे जो कहना था कह दिया.’

क्या नेपाल ज़िंदाबाद कहना अपराध है? अगर पाकिस्तान ज़िंदाबाद कहने पर राजद्रोह का आरोप लगा है, दोनों देशों के बीच शत्रुता फैलाने का आरोप लगा है तो फिर श्रीलंका ज़िंदाबाद और नेपाल यहां तक कि चीन और भूटान ज़िंदाबाद लिखना अपराध क्यों नहीं है. इस तरह की बातें कई प्रकार के कवि कर चुके हैं. खासकर वैसे कवि और रचनाकार जो वसुधैव कुटुबंकम की बात करते हैं. जैसे कुछ साल पहले 2016 में श्री श्री रविशंकर ने कह दिया था कि जय हिन्द और पाकिस्तान ज़िंदाबाद साथ साथ चले. ये ध्यान रहे कि रविशंकर ने नारा नहीं लगाया था मगर साथ चलने की बात कही थी. उसके बाद दोनों ने अलग अलग अपने देश के नारे लगाए थे. पाकिस्तान के मुफ्ती मौलाना मोहम्मद सईद खान पाकिस्तान ज़िंदाबाद कहते हैं और श्री श्री रविशंकर जय हिन्द कहते हैं.

उस वक्त भी रविशंकर के खिलाफ ट्विटर पर ट्रेंड होने लगा था कि उन्हें पाकिस्तान भेज दिया जाए और उन्हें सफाई देनी पड़ी थी कि पाक ज़िंदाबाद के नारे नहीं लगाए थे. किसे नहीं पता कि किसी के किसी को ज़िंदाबाद कहने से कुछ नहीं होता. होता तो इस देश में हर दिन सैकड़ों नारे मुर्दाबाद के लगते हैं. सरकार मुर्दाबाद के नारे लगते हैं. अगर किसी दूसरे देश को जिंदाबाद कहना राजद्रोह है तो अपने देश की सरकार को मुर्दाबाद कहना वो भी तो राजद्रोह हो सकता है. क्या भारत ने पाकिस्तान को दुश्मन राष्ट्र घोषित किया है? किसी नेता को कोई फर्क नहीं पड़ता बल्कि वो और बड़ा नेता बनता है. 1995 में सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसला दिया था कि यूं ही नारे लगा देने से यह नहीं माना जा सकता है कि सरकार के खिलाफ नफरत फैलाई जा रही है. मामला यह था कि पंजाब के दो अधिकारियों ने खालिस्तान ज़िंदाबाद और राज करेगा खालसा ने नारे लगाए थे जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश के कई हिस्सों में हिंसा हो रही थी. अभियोजन पक्ष के वकील का दावा था कि इन दोनों ने हिन्दुस्तान मुर्दाबाद के नारे भी लगाए थे. इस मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि दो लोगों के एक दो बार इस तरह से नारे लगा देना भारत के खिलाफ नहीं माना जाएगा. राजद्रोह या सेक्शन 153ए के तहत आरोप लगाने के लिए नारे के अलावा यह भी देखना होगा कि दो समुदायों के बीच शत्रुता बढ़ाने के लिए और भी कोई गंभीर हरकत की है?

इसके बाद बलवंत सिंह और भूपिंदर सिंह को बरी कर दिया गया. आप इस वक्त असम जाइये. भारत के खिलाफ हथियार उठाने वाले हिंसक समूहों के साथ सरकार ही समझौता कर रही है. इसे कामयाबी बताया जा रहा है. यानी कई बार एक समुदाय या समूह विशेष को मुख्यधारा में लाने के लिए यह किया जाता है.

अब आप इन संदर्भों में 19 साल की अमूल्या के ज़िंदाबाद प्रकरण को देखिए. वो अगर कई मुल्कों के ज़िंदाबाद की कल्पना करती है तो क्या यह राजद्रोह है. उसे पूरी बात कहने का मौका नहीं मिला वरना वो माइक पर उसे विस्तार से रखती जो उसने अपने फेसबुक पोस्ट में लिखा है.

‘खुद भी जीतो और जिताओ सबको ये धर्म है. ये प्यार का लफ्ज है. पाकिस्तन से 100 से अधिक लोग आए हैं.’ अब तो कोई बवाल कर दे कि रविशंकर पाकिस्तान को भी जिताने की बात कर रहे हैं. क्या ये अपराध है, क्या ये रोजद्रोह है. उन्हें तो सिर्फ भारत के जीतने जिताने की बात करनी चाहिए थी. यही समझ बना रही है न आज की राजनीति और न्यूज़ चैनल. आपको पीयूष मिश्रा का एक गीत सुनाता हूं. पीयूष मिश्रा कई जगहों पर गाते हैं. इस गाने में एक प्रेमी है जो हिन्दुस्तानी है. जो अपनी प्रेमिका को याद कर पूछता है कि क्या पाकिस्तान में भी पतझड़ के मौसम में पत्ते झड़ते हैं. अब आज इस गाने को लेकर पता नहीं कब भीड़ आ जाए और पीयूष को जेल में बंद कर दे कि आप भारत में रहते हुए पाकिस्तान में रहने वाली को कैसे याद कर सकते हैं.

शायरों, कवियों और लेखकों की यह लड़ाई अब भी जारी है. इस पार फैज़ को लाखों लोग गा रहे हैं, उस पार लोग बिस्मिल को गाने लगे हैं. इसी दौर में जब नफरत और दुश्मनी चरम पर है. उस दौर में भी कोई मंटो था, कोई टोबा टेक सिंह था तो विभाजन की खींची लकीर का मज़ाक उड़ा रहा था. कोई कृष्णा सोबती थीं. कोई इंतज़ार हुसैन थे. इंसानियत की चाह रखने वाला यही तो करता है. उस पार से आने वाली हवा को इस पार से जाने वाली हवा से पैगाम भेजता रहता है. न्यूज़ चैनल आपके भीतर के आत्मविश्वास को कमज़ोर करने लगे हैं. भारत कोई पत्ता नहीं है कि किसी 19 साल की लड़की के किसी मुल्क के ज़िंदाबाद कह देने से हवा में उड़ जाए. यह पूरा प्रकरण बताता है कि हम घबारहट के शिकार हो गए हैं. मैं कह रहा हूं आप टीवी देखना बंद कर दीजिए. शांति मिलेगी. टीवी को चलाने दीजिए एक लड़की को अपराधी बता कर देशद्रोही बता कर, आप इस घबराहट में बसंत के मौसम में पूस की रात की तरह मत कांपिए.

2019 के विश्व कप में जब दक्षिण अफ्रीका और पाकिस्तान के बीच मैच हो रहा था तब भारतीय दर्शकों ने पाकिस्तान के लिए ताली बजाई थी. पाकिस्तान की जरसी पहन ली थी. अपना पड़ोसी ही तो है. होता है न चाचा से पटती नहीं है लेकिन जब रिश्ते में बारात आती है तो बहुत से लोग समधी बनकर दरवाज़े पर खड़े हो जाते हैं. यही मामला था 2019 में. क्या पाकिस्तान की जरसी पहनने वाले गद्दार हो गए. उसी विश्व कप मैच के दौरान जब भारत इंग्लैंड से खेल रहा था तो पाकिस्तान के दर्शक भी भारत के लिए ताली बजा रहे थे.

अमूल्या लियोना नरहोना को पता है कि आज का भारत बदल गया है. बल्कि भारत वैसा ही है जैसा वह क्रिकेट मैच के वक्त होता है. लेकिन मीडिया और राजनीति ने नौकरशाही को ये सब कर देशभक्त बनने का मौका दे दिया है जिसके दरवाज़े पर जनता आज भी उसे माई बाप समझते हुए हाथ जोड़े खड़ी रहती है. मैं जिन चैनलों की बात कर रहा था हाल हाल तक पाकिस्तान के सभी खिलाड़ी वकार यूनुस, वसीम अकरम, शोएब अख्तर, इमरान खान एक्सपर्ट बन कर आया करते थे. आतंकवाद तब भी था. तब भी भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव होता था लेकिन ऐसा नहीं होता था. एक नेता हैं जो कब से लोगों को पाकिस्तान भेज रहे हैं आज तक किसी को भेज नहीं पाए.

गिरीराज सिंह की इस इच्छापूर्ति के लिए सारा काम छोड़ कर लोगों को पाकिस्तान भेजने का ट्रैवल एजेंट की दुकान खोलनी पड़ेगी. आप गिरीराज सिंह को ज़्यादा कुछ न कहें, कांग्रेस के सिद्धारमैया ने भी कहा है कि अमूल्या को सबक सि‍खाने की ज़रूरत है. शाहीन बाग से तो किसी ने कुछ नहीं कहा फिर भी उसे पाकिस्तानी कहा जाने लगा. जो हिन्दुस्तानी हैं उन्हें पाकिस्तानी कहना ठीक है, क्या ये राजद्रोह नहीं है? जहां इस वक्त सुप्रीम कोर्ट के वार्ताकार प्रदर्शनकारियों से बात कर रहे हैं. अमूल्या के साथ जो हुआ है उस पर एक बार सोचिएगा. मुझे पता है कि पाकिस्तान से दुश्मनी है. इस उम्मीद में कि यह कभी खत्म होगी प्रधानमंत्री जन्मदिन मनाने चले गए थे. इस उम्मीद से कभी दुश्मनी खत्म हो मुमकिन है कोई पाकिस्तानी नागरिक को खत लिख दे. क्या यह सब अपराध है. उस लड़की के मनोवैज्ञानिक को जो ठेस पहुंची है उसकी कल्पना कीजिए. आप पंजाब से सीखें. 1947 में हत्या का मंज़र पंजाब ने देखा था, उस पंजाब ने अपने लिए एक गलियारा बनाया है.

इसी दौर में 19 साल की एक लड़की राजद्रोह के आरोप में जेल भेजी जाती है, सैकड़ों लोग हर दिन इस गलियारे से भारत से पाकिस्तान जाते हैं. पंजाब के लोगों ने उसी सीमा में एक गलियारा हासिल कर लिया जिसके दोनों तरफ बंदूक की संगीनें तनी रहती हैं. पंजाब के सीने पर विभाजन का ज़ख्म बहुत गहरा है. अमृता प्रीतम की ‘आज आक्खां वारिस शाह नूं’ भी इन लोगों के साथ चलती नज़र आती होगी. जिन्होंने 1947 के पंजाब में लाशों के ढेर बिखरे देख यह कविता लिखी थी, उस पंजाब के लोगों ने करतारपुर साहिब का गलियारा हासिल किया है.

सिख धर्म की 80 फीसदी विरासत सरहद के उस पार है. वहां जाकर इबादत की जा सकती है. आज भी उस पार से लोग इस पार आते हैं अपना घर देखने. इसी दिल्ली में कई लोग हैं जो उस पार जाते रहे हैं अपना गांव देखने. गुलज़ार की कविता है न. आंखों की वीज़ा नहीं लगता. सपनों की सरहद होती नहीं. अमूल्या का फेसबुक पोस्ट क्या गुलज़ार की इस रचना से अलग है जो उन्होंने अहमद फराज़ साहब और मेहदी हसन के लिए लिखी थी. करतारपुर अचरज की तरह है. मोहब्बत की तरह है. इसी दौर में. अगर ये सारी कहानियां झूठी हैं तो फिर आप करतारपुर को ही सच मान लें. ठीक है कि बर्लिन की दीवार गिरी है लेकिन इन 70 सालों के अविश्वास के दौर में हमने करतारपुर साहिब का गलियारा बनाया है.

हर दौर का नौजवान अलग तरीके से सोचता है. नए तरीके से सोचता है. उम्मीद है आप भी सोचेंगे. देर तो हो चुकी है लेकिन इतना भी मत डरिए कि एक लड़की के बयान से जैसे जलजला आ गया हो. खुद वो मुल्क आतंकवाद के अतीत और वर्तमान को लेकर इतना परेशान है कि अगर उसने जून 2020 तक आतंक को रोकने के लिए 27 निर्देशों का पालन नहीं किया तो उसे ब्लैक लिस्ट कर दिया जाएगा. फाटा ने निर्देश दिए हैं. फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स.

बंगलरू के टाउनहाल में एक प्रदर्शन शुरू हो गया अमूल्या के बयान के विरोध में. अचानक वहां हंगामा खड़ा हो गया. एक लड़की सामने आ गई. एक पोस्टर लेकर. उस पर लिखा था फ्री कश्मीर, फ्री दलित और फ्री मुस्लिम. उस पोस्टर को देखते ही भगदड़ मच गई. पुलिस किसी तरह उसे बाहर ले आई और समझिए कि जान बच सकी. अरुदा नाम है. पुलिस के अनुसार अरुदा ने कोई नारे नहीं लगाए. आज के दौर में फ्री कश्मीर, फ्री दलित और फ्री मुस्लिम के स्लोगन को ऐसे पढ़ा जाएगा कि भारत से आज़ाद ही कर देने की मांग हो रही है. जबकि कश्मीर में 200 दिनों से इंटरनेट बंद है. अभी अभी राजस्थान के नागौर में एक दलित नौजवान को किस तरह मारा गया. पैसे चुराने के शक के आधार पर दो युवकों को पीटा गया. उन्हें टार्चर किया गया. मोटरसाइकिल एजेंसी के कर्मचारियों ने रबर की बेल्ट से मारा है. दोनों दलित हैं. जब पीटा जा रहा था तो उसकी जाति को लेकर गालियां दी गईं. ऐसे आरोप लगे हैं. सात कर्मचारी गिरफ्तार हैं. तो कई सोचने समझने वाली लड़की या लड़का फ्री दलित का नारा लगा सकता है. फ्री का मतलब उस मानसिकता से भी मुक्ति का हो सकता है लेकिन अब इसका एक ही मतलब निकाला जा रहा है कि भारत के खिलाफ नारे लग रहे हैं. मीडिया लोगों को यही सि‍खा रहा है. क्या हम कहीं और से ऐसे मामलों में सीख सकते हैं.

अंध राष्ट्रवाद अच्छा नहीं है. अब तो संघ प्रमुख मोहन भागवत भी कहने लगे हैं कि नेशनलिज़्म आज दुनिया में अच्छा शब्द नहीं है. नेशनलिज्म का मतलब होता है हिटलर, नाज़ीवाद फासीवाद.

भागवत जिस नेशनलिज़्म की बात कर रहे हैं वो ज़ेनोफोबिया है. जिंगोइज़म है. राष्ट्रवाद के जिन रूपों से फासीवाद हिटरवाद निकलता है वो नेशनलिज़्म नहीं बल्कि उसके नाम पर आगे खड़े किए जाने वाले खतरों के भूत हैं. अब ऐसा तो हो नहीं सकता है कि हम नेशन कहें और उसी से निकले नेशनलिज़्म न कहें. पर जो भी है उनकी चिन्ता में अगर यह बात है कि हिटलर नाज़ीवाद की याद दिलाने वाले शब्दों से बचा जाए तो सुना जाना चाहिए. उस माहौल को भी देखा जाना चाहिए जिस माहौल में देशभक्ति इस तरह का रूप धर लेती है कि अपने ही नागरिकों को पाकिस्तानी कहा जाता है और 19 साल की लड़की पर राजद्रोह का मामला दर्ज हो जाता है.

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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