नज़रिया – कोरोना वारीयर्स से मारपीट पर, क्या आप धर्म देखकर प्रतिक्रिया देते हैं ?

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कल इंदौर में कोरोना जांच के लिए स्वास्थ्य विभाग की सर्वे टीम जिसमे डॉक्टर, टीचर, पैरामेडिकल और आशा कार्यकर्ता शामिल थे, उस पर पलासिया क्षेत्र में चाक़ू से हमला किया गया। लेकिन मुरादाबाद और टाटपट्टी बाखल की तरह इस घटना को मीडिया ने नहीं उछाला। क्योकि चाक़ू मारने वाला एक हिन्दू था, दुखद घटना है..लेकिन यह दोहरा रवैया क्यों है? और बात सिर्फ मीडिया तक ही सीमित नहीं रही, अपने आसपास के ही बहुत से लोगो का व्यहवार आप देखे तो वो पिछले कुछ दिनों से बिलकुल बदल गया है। कोरोना जैसे संक्रामक रोग से उपजे भय को मीडिया ने बहुत शातिराना तरीके से मुस्लिम समाज के खिलाफ इस्तेमाल किया है और अच्छे अच्छे लोग भी इस षणयंत्र के शिकार हो गए है। पर यह कुछ ही दिनों में बना नेरेटिव नहीं है इसके पीछे एक संगठन पिछले 95 सालो से मेहनत कर रहा है और अब उसकी मेहनत सफल हो गयी है।

मित्र श्याम मीरा सिंह इसे और स्पष्ट रूप से समझाते है, वे कहते है। ‘सच तो ये है कि भारतीय बहुसंख्यक समाज मान चुका है कि मुसलमान स्वभाव से ही द्रोही है और हिन्दू घटनावश ही अपराधी हो सकता है लेकिन वह स्वाभाविक द्रोही नहीं है। यही कारण है कि मीडिया के लिए मुसलमान पत्थरबाज, सिर्फ एक पत्थरबाज नहीं होता बल्कि उसके लिए वह सिर्फ “मुसलमान” होता है। लेकिन पत्थरबाज यदि हिन्दू हो तो मीडिया के लिए वह हिन्दू नहीं होता तब वह सिर्फ एक “पत्थरबाज” ही होता है।

एंकर द्वारा रची-बसी भाषा से इस भाषा साधारण नागरिकों के मन में धीरे धीरे बैठने लगता है कि पत्थरबाजी तो मुसलमानों का स्वभाविक कार्य है। यही कारण है कि पत्थरबाजी की खबर पढ़ते ही हम पत्थरबाजों के नाम ढूंढने लगते हैं। यदि हिन्दू हुआ तो वह कोई आकस्मिक घटना मान ली जाती है। यदि वह मुसलमान हुआ तो इस पूर्वाग्रह को और अधिक ईंधन मिलता है कि मुसलमान तो स्वभाव से ही द्रोही है।

इसका दूसरा उदाहरण आप निजामुद्दीन की घटना से लीजिए। यदि कोई नागरिक मस्जिद में फंसा हुआ हो तो वह फंसा हुआ न होकर “छुपा” हुआ होता है। वहीं फंसा हुआ तबका बहुसंख्यक समाज से हो तो वह “फंसा” हुआ ही होता है। यहां मुसलमानों के लिए “छुपा” हुआ शब्द उपयोग करने के पीछे व्याकरण वही है, जो मुसलमान को हर हाल में अपराधी साबित करना चाहता है। जो इस पूर्वाग्रह को बढ़ावा देता है कि अपराध तो मुसलमान के स्वभाव में है।

आप बंगलुरू में एक डॉक्टर के साथ हुई नृशंस घटना को याद कीजिए. उसमें एक मुसलमान युवक का नाम बार बार उछाला गया। जबकि बाकी 3 युवक हिन्दू ही थे। लेकिन ये विचार किसी के मन में नहीं डाला गया। सबका ध्यान उस मुस्लिम युवक पर ही था जो इस पूर्वाग्रह को पुष्ट करे कि मुसलमान तो स्वभाव से ही अपराधी हैं।

यही कारण है कि यदि हिन्दू ने चोरी की होती है, तो वो सिर्फ एक “चोर” होता है, हिन्दू ने बलात्कार किया होता है तो वह सिर्फ एक “बलात्कारी” होता है, हिन्दू ने पत्थर फैंका होता है तो वह सिर्फ एक “पत्थरबाज” होता है। लेकिन वही चोर, बलात्कारी, पत्थरबाज यदि मुसलमान होता है तो वह सिर्फ मुसलमान होता है, तब उसके अपराध से अधिक प्रमुख उसका धर्म हो जाता है।

चूंकि भारतीय बहुसंख्यक समाज मान चुका है कि मुसलमान स्वभाव से द्रोही होता है जबकि हिन्दू आकस्मिक अपराधी हो सकता है स्वभाविक नहीं। दिक्कत हमारे साथ तो है ही, लेकिन हमारी भाषा के व्याकरण में भी बड़ी गम्भीर समस्या है जो हमेशा बहुसंख्यकों और ताकतवरों के हिसाब से साजिशन रची जाती है, जिसका शिकार अब तक स्त्री, दलित, वंचित होते आए थे, अब मुसलमान हो रहे हैं।’