जब भेदभाव से परेशान इस दलित लीडर ने किया था धर्मपरिवर्तन

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तमिलनाडु के मशहूर दलित लीडर और जातिवाद के ख़िलाफ़ अन्दोलन करने वाले टी एम मणि जिन्होंने 2007 में अपने सैंकड़ो अनुयायियों के साथ इस्लाम क़बूल किया और अपना नाम टी एम उमर फ़ारूक़ रखा, जिन्होंने कई पुस्तकों के साथ End Of Casteism नाम की मशहूर किताब लिखी, जिसका अंग्रेज़ी अनुवाद भी प्रकाशित हुआ, सात साल पहले आज ही के दिन 5 जून 2015 को उनका इंतक़ाल हो गया, उनकी पुण्यतिथि पर टी एम मणि साहब के बारे में संक्षिप्त जानकारी पढ़ें –

हिंदू परिवार में पैदा हुए थे TM मणि

टी एम उमर फारूक तमिलनाडु के तंजावुर जिले में टी एम मणि के रूप में एक हिंदू परिवार में पैदा हुए थे। उनके पूर्वज बंधुआ मजदूर थे और उन्होंने केवल प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की थी। हालांकि, टी.एम. मणि तमिल साहित्य और इसकी दार्शनिक परंपरा में पारंगत थे। एक जाति-विरोधी कार्यकर्ता के रूप में उन्हें मार्क्सवादी विचारधाराओं की भी अच्छी समझ थी। हाशिए पर पड़े लोगों के लिए विरोध करते हुए उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा।

60 के दशक में तमिलनाडु में  जाति विरोधी आंदोलन में थे सक्रिय

1960 में, 16 साल की उम्र में, उन्होंने युवाओं के लिए एक राजनीतिक संगठन शुरू किया, और बाद में 1962 में इसे अम्बेडकर एजुकेशनल एंड डेवलपमेंट सोसाइटी के रूप में स्थापित किया। उन्होंने तमिलनाडु के एक अन्य जाति-विरोधी नेता एल. इलायपेरुमल के साथ मिलकर काम किया। 1990 के दशक में, टी एम मणि ने नीला पुलिगल इयक्कम (ब्लू पैंथर्स मूवमेंट) शुरू किया। उन्होंने अपने ब्लू पैंथर्स आंदोलन के माध्यम से जाति व्यवस्था के खिलाफ दृढ़ता से लड़ाई लड़ी।

तमिलनाडु में जितनी भी क्षेत्रीय जाति विरोधी राजनीतिक पार्टियां थी और जिनका बड़ा जनाधार था वो सब तमिल राष्ट्रवाद की समर्थक थी लेकिन टी एम मणि तमिल राष्ट्रवाद के आलोचक थे और उनका मानना था के तमिल राष्ट्रवाद की जड़ें हिन्दू धर्म मे हैं इसलिए उन्हें तमिल राजनीतिक पार्टियों ने किनारे कर दिया और तमिल सियासत के मुख्यधारा में नही आने दिया।

टी.एम. मणि ने जाति के मुद्दे को संबोधित करने में वामपंथ और तमिल राष्ट्रवाद इन दोनों विकल्पों को खारिज कर दिया। उन्होंने महसूस किया कि तमिल राष्ट्रवादी विचारधारा का आधार हिंदू धर्म में है। उन्होंने चुनावी राजनीति को भी खारिज कर दिया क्योंकि उनका कहना था के अनुसूचित जाति कभी भी बहुमत का वोट हासिल नहीं कर पाएगी और वहां भी राजनीतिक ‘अछूत’ ही बने रहेंगे ।

टी.एम. मणि ने वामपंथ को एक विकल्प के रूप में भी माना लेकिन फिर इस विचार को खारिज कर दिया क्योंकि वह बताते हैं कि भारत में उत्पीड़न वर्ण व्यवस्था से आता है न कि वर्ग संघर्ष से।

धर्म परिवर्तन को दलित मुक्ति का एकमात्र साधन बताया

विभिन्न विकल्पों पर विचार करने के बाद, टी.एम. मणि ने दृढ़ता से धर्म परिवर्तन को दलित मुक्ति का एकमात्र साधन बताया। उन्होंने दलितों को उन देवताओं से मुक्त होने की सलाह दी जिन्होंने उन्हें हिंदू जाति व्यवस्था के माध्यम से गुलाम बनाया था।

टी एम मणि ने अपने हजारों अनुयायियों को इस्लाम में परिवर्तित होने और खुद को मुक्त करने के लिए प्रोत्साहित किया। हालांकि, एक सवाल यह था कि उन्होंने इस्लाम को क्यों चुना, जब जाति-विरोधी आंदोलन के सबसे बड़े नेता अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म अपना लिया।

डॉ अम्बेडकर के द्वारा किये गए धर्म परिवर्तन पर ये थी राय

टी. एम. मणि ने अपनी पुस्तक ‘अम्बेडकर का धर्म परिवर्तन’ में बौद्ध धर्मांतरण के तर्क में कमजोरी की ओर इशारा किया है। टी एम मणि ने माना की बौद्ध धर्म में परिवर्तन के परिणामस्वरूप दलितों की संख्या बल में मजबूती नहीं आई बल्कि समस्या को और बढ़ा दिया क्योंकि बौद्ध भारत में दूसरे सबसे छोटे धार्मिक अल्पसंख्यक बने हुए हैं जिससे दलित संख्याबल में मज़बूत नही हो पाए, उन्होंने पाया की बौद्ध धर्म को सांस्कृतिक रूप से हिंदू धर्म के साथ पहचाना जाता है। उन्होंने भारतीय संविधान में बौद्ध धर्म, जैन धर्म और सिख धर्म को भी इंगित किया (अनुच्छेद 25 (ए) – खंड बी में स्पष्टीकरण II) कानूनी रूप से बौद्ध धर्म को हिंदू धर्म के एक हिस्से के रूप में माना जाता है। इसलिए, उन्होंने अपने अनुयायियों को इस्लाम में धर्म परिवर्तित करने का सुझाव दिया और 1980 के दशक से इस विचार पर चर्चा की।

जब उन्होंने आधिकारिक रूप से इस्लाम को अपनाया

मई 2007 तक टी.एम. मणि ने अपने हज़ारों अनुयायियों के साथ आधिकारिक तौर पर इस्लाम को अपना लिया और टी.एम उमर फ़ारूक़ के रूप में जाना जाने लगे, उनकी पत्नी, अगिलम्मई भी आयशा अम्मल बन गईं। उनका पूरा जीवन जातिवाद के खिलाफ संघर्ष में बीता।

उन्होंने थेनपीसकु थेरवु (अस्पृश्यता के लिए समाधान), और साथी ओझिंधाधु (जाति विनाश अर्थात End Of Casteism) सहित कई किताबें लिखी हैं, जिसमें उन्होंने हिंदू धर्म के त्याग के बारे में बात की है। टी.एम. उमर फारूक का मानना ​​था कि इस्लाम ही एकमात्र ऐसा धर्म है जो दलितों को स्वाभिमान हासिल करने में मदद करेगा। सात साल पहले आज ही के दिन 5 जून 2015 को उनका इंतक़ाल हो गया, अल्लाह उनके क़ब्र को नूर से भर दे, आमीन ।

आख़िर में टी.एम. उमर फारूक साहब की पुस्तक के एक उद्धरण से इस लेख का अंत करते हैं, –

“गर्व से टोपी और दाढ़ी की मुस्लिम पहचान को गले से लगाओ। और ज़ोर से कहो: अल्लाहो अकबर, अल्लाहो अकबर। इस्लाम का आह्वान उन दुश्मनों तक पहुंचें जिन्होंने 2000 से अधिक वर्षों से हम पर अत्याचार किया है।”

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