1947 में भारत से अलग हुए पाकिस्तान (Pakistan) के हुक्मरानों ने उसे डेमोक्रेटिक यानी लोकतांत्रिक घोषित किया था। लेकिन इतिहास गवाह है कि पाकिस्तान में कभी स्थाई लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं रही। यहां तक आज भी ये माना जाता है, पाकिस्तान में लोकतंत्र बस एक दिखावट भर है। कोई भी प्रधानमंत्री बिना पाकिस्तानी सेना की मदद के इस गद्दी तक नहीं पहुंच सकता। सेना ने इस देश में आजादी के बाद से अब तक कुल तीन बार तख्ता पलट के दिया है। पहली बार पाकिस्तानी राष्ट्रपति मेजर जनरल इस्कंदर मिर्जा (Iskander Mirza) ने 1958 में प्रधानमंत्री फिरोज खां नून (Feroz Khan Noon) की सरकार को बर्खास्त कर दिया था। इसके बाद 1977 में जिया-उल-हक (Zia-ul-Haq) ने जुल्फिकार अली भट्टो (Zulfikar Ali Bhutto) की सरकार का तख्तापलट कर दिया था। और पूरे ग्यारह साल पाकिस्तान पर राज किया। फिर कारगिल (Kargil war) के युद्ध में पाकिस्तानी सेना का नेतृत्व करने वाले परवेज मुशर्रफ (Pervez Musharraf) ने 1999 में नवाज शरीफ (Nawaz Sharif) पर भ्रष्टाचार और मनी लॉन्ड्रिंग का आरोप लगा कर जेल में डाल दिया। उसके बाद 20 जून 2001 को मुशर्रफ ने आधिकारिक तौर पर राष्ट्रपति बन गए।
आखिरी ट्रेन से पाकिस्तान पहुंचा मुशर्रफ का परिवार
भारत की आजादी और पाकिस्तान बनने से कुल चार साल पहले 11 अगस्त 1943 को हिंदुस्तान की राजधानी दिल्ली की एक हवेली में परवेज मुशर्रफ का जन्म हुआ था। मुशर्रफ के पिता सैयद मुशर्रफुद्दीन अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्र रहे। इससे बाद इन्होंने विदेश विभाग के दफ़्तर में नौकरी कर ली। मुशर्रफ़ की मां का नाम जरीन था यह भी काफी पढ़ी-लिखी महिला थीं। उन्होंने भी लखनऊ यूनिवर्सिटी से अंग्रेजी लिटरेचर में अपनी स्नातकोत्तर (पोस्ट-ग्रेजुएशन) की पढ़ाई पूरी की थी। बंटवारे के वक्त मुशर्रफ और उनका परिवार भारत से जाने वाली आखिरी ट्रेन में बैठकर हमेशा के लिए पाकिस्तान चले गए थे। इस बात का जिक्र खुद कई बार मुशर्रफ ने किया था।
नवाज की पीठ पर किया वार
“सोचता हूं के वो कितने मासूम थे, क्या से क्या हो गए देखते-देखते”। नुसरत फतेह अली ख़ां के गीत की ये लाइनें उस समय नवाज पर एक दम सटीक बैठ रही थीं। नवाज ने काफी सोच समझ कर, सारे हिसाब किताब लगाए और 1998 में मुशर्रफ को मुल्क की सेना का प्रमुख बना दिया। मगर एक साल बाद मुशर्रफ ने ऐसा रंग बदला, जो नवाज कभी सोच भी नहीं सकते थे। पहले तो मुशर्रफ ने श्रीनगर में पाकिस्तानी झंडा फहराने का ख़्वाब दिखा कर, नवाज की सरकार और पूरे मुल्क को कारगिल युद्ध में धकेल दिया। जिसके बाद दुनिया में पाकिस्तान की खूब फज़ीहत हुई। कारगिल हारने के बाद नवाज को खतरे को घंटी महसूस होने लगी थी। कहा जाता है, मौका मिलते ही नवाज शरीफ मुशर्रफ को पद से हटाने वाले थे। परंतु मुशर्रफ नवाज से चार कदम आगे निकले। मुशर्रफ ने 12 अक्टूबर 1999 की रात पाकिस्तान की आवाम को संबोधित किया। और कहा कि नवाज शरीफ को जेल में डाल दिया गया है। उनके ऊपर भ्रष्टाचार और मनी लॉन्ड्रिंग का आरोप लगा है।
मगर मुशर्रफ नवाज को ज्यादा दिन कैद में नहीं रख पाए। दरअसल, नवाज शरीफ के रिश्ते सऊदी अरब से काफी ज्यादा अच्छे थे। इसलिए सऊदी और अमेरिका के दबाव में मुशर्रफ़ को नवाज शरीफ रिहा करना ही पड़ा।
गिलगित-बाल्टिस्तान में विद्रोह दबाने के लिए की डेमोग्राफी से छेड़छाड़
मुशर्रफ़ 1961 में पाकिस्तानी सेना में भर्ती हुए। 1965 के भारत-पाकिस्तान के युद्ध में यह सैकेंड लेफ्टिनेंट की रैंक पर सेना में काम कर रहे थे। जंग में बहादुरी से लड़ने के लिए मुशर्रफ को मेडल भी दिया गया। जब बांग्लादेश की आजादी को लेकर 1971 में भारत पाकिस्तान का युद्ध हुआ, उस समय मुशर्रफ स्पेशल सर्विसेज़ ग्रुप (SPG) में थे। 1988 में ज़िया-उल-हक़ की सरकार के दौरान गिलगित में शिया मुस्लिम बहुसंख्यक थे और उन्होंने पाकिस्तानी सरकार के खिलाफ विद्रोह छेड़ दिया। इससे निपटने का जिम्मा परवेज मुशर्रफ को सौंपा गया। जिसके बाद मुशर्रफ ने इस विद्रोह को खत्म करने के लिए गिलगित-बाल्टिस्तान की डेमोग्राफी (जनसंख्या) का नक्शा ही बदल दिया। विद्रोह को खत्म करने और शियाओं की संख्या कम करने के लिए पंजाबियों और पख्तूनियों को वहां बसाना शुरू कर दिया। यही रणनीति पाकिस्तान ने बलूचिस्तान में भी अपनाई थी।
मुशर्रफ का शासन अर्थव्यवस्था के लिए काफी बेहतर साबित हुआ
वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की घटना से मुशर्रफ सरकार को काफी फायदा हुआ। और इकोनॉमी के लिहाज से मुशर्रफ सरकार बाकी सरकारों से काफी बेहतर रही। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले का बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला बोल दिया। लेकिन अफगानिस्तान को धूल चटाने के लिए अमेरिका को पाकिस्तान की मदद ज़रूरत थी। अब इसके बाद पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था भी सुधारने लगी, जिससे मुशर्राफ को आवाम का सपोर्ट भी मिलने लगा।
बिना विपक्ष के करवाए चुनाव
खुद को सैनिक तानाशाह सुनते हुए शायद मुशर्रफ थक गए थे। इसलिए 2002 में मुशर्रफ ने खुद को लोकतांत्रिक वैधता दिलवाने के लिए चुनाव करवाए। ये चुनाव कोई मामूली चुनाव नहीं थे। ये अपने आप में एक खास किस्म के चुनाव थे, क्योंकि इसमें कोई विपक्ष ही नहीं था। जब 2007 में मुशर्रफ ने चीफ जस्टिस इफ़्तिकार चौधरी को बर्ख़ास्त कर दिया तो वकीलों के तरफ से चलाए गए मूवमेंट का विपक्ष ने जमकर फायदा उठाया। कराची में इसके बाद खूब हिंसा हुई। जिसे रोकने के लिए सेना ने लाल मस्जिद पर हमला कर दिया था। फिर इस मस्जिद पर हुए हमले का बदला कट्टरववादी और आतंकवादी संगठनों ने लिया।
इसके बाद मुशर्रफ ने विपक्ष और इस बिगड़ती हुई स्तिथि को देखते हुए पाकिस्तान में इमर्जेंसी लगा दी। इसी मामले में परवेज मुशर्रफ ‘हाई ट्रीज़न’ यानी देशद्रोह के दोषी पाए गए हैं।
17 दिसंबर 2019 को सुनाई गई फांसी की सजा
2001 से 2008 तक पाकिस्तान पर शासन करने के बाद 2014 में परवेज मुशर्रफ को इमरेजेंसी लगाने को लेकर राजद्रोह का दोषी पाया गया। जिसके बाद 17 दिसंबर 2019 को इस्लामाबाद कोर्ट ने मुशर्रफ को फांसी की सजा सुनाई।
दुबई में जा बसे मुशर्रफ
फांसी की सजा मिलने से पहले ही मुशर्रफ ने पाकिस्तान छोड़ दिया। दरअसल, ये राजद्रोह का केस काफी लंबा चला। जब 2014 में मुशर्रफ पर राजद्रोह का मुकदमा साबित होने के 2 साल बाद मुशर्रफ इलाज की बात कहकर मुल्क छोड़ कर चले गए। पाकिस्तान छोड़ने से पहले मीडिया से रुबरु होते समय मुशर्रफ ने कहा था कि “मैं कमांडो हूं और अपने वतन से मुहब्बत करता हूं। कुछ हफ़्तों या महीनों में मैं लौटकर आ जाऊंगा”। मगर कुछ समय बाद ही जाहिर हो गया कि मुशर्रफ ने झूठ कहा था। पकिस्तान से जाने के बाद वो कभी दोबारा मुड़कर पाकिस्तान नहीं गए और अब फांसी चढ़ने के लिए तो बिल्कुल नहीं जायेंगे।