वृक्षविहीन सड़कों का शोकगीत

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अपने देश के ज्यादातर शहरों की तरह पटना का तापमान साल दर साल बढ़ता जा रहा है। अभी गर्मी की शुरुआत में यह 44 डिग्री के पार है। इसकी वजह से जमीन के भीतर जल का स्तर बीस फ़ीट से भी ज्यादा नीचे जा चुका है। यह विपत्ति अकारण नहीं।
शहर की सड़कों के विस्तार और नए फ्लाईओवर तथा भवनों के निर्माण के नाम पर जिस रफ़्तार से यहां सालों से पेड़ों की अंधाधुंध कटाई हो रही है, एक न एक दिन उसका यह अंजाम होना ही था। कल ही पटना उच्च न्यायालय ने अपने एक आदेश में शहर की वृक्षविहीन होती जा रही सड़कों और बढ़ते तापमान के बारे में चिंता व्यक्त करते हुए सरकार से जवाब तलब किया है कि अगर सड़कों के निर्माण के लिए पेड़ काटना ज़रूरी था तो उन पेड़ों की जगह नए पेड़ क्यों नहीं लगाए गए।
इस प्रकरण का सबसे दुखद पक्ष यह है कि पर्यावरण और लोगों के जीवन से खेलने वाले तमाम अविवेकी सरकारी अधिकारियों पर हम आम लोगों को कभी गुस्सा क्यों नहीं आता ? क्यों नहीं बिगड़ते पर्यावरण के खिलाफ आजतक कोई बड़ा जनांदोलन खड़ा हो सका ? विकास की अंधी दौड़ में हम उन तमाम चीज़ों को नष्ट करने पर क्यों आमादा हैं जिनके बगैर जीवन संभव नहीं ?
यह पटना का ही नहीं, देश के हर छोटे-बड़े शहर का मसला है। अगर पर्यावरण को लेकर हम नागरिक जागरूक नहीं हुए तो विनाश बहुत दूर नहीं है। वृक्षों ने सृष्टि की शुरुआत से आज तक हमें जीवन दिया है। आज जब हमारे वृक्ष संकट में हैं तो क्या हमें उनके साथ खड़े होने की ज़रूरत नहीं है ?

बची रहे ये सर पे छांह, हवा और बारिश
बचा सकें तो बचा लें ये कुछ दरख़्त अभी

(ध्रुव गुप्त)
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