सुरेखा सीकरी के वो किरदार, जो हमेशा याद किये जायेंगे

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बालिका वधु के जरिए देश के हर घर में अपनी पहचान बनाने वाली सुरेखा सीकरी को सिर्फ दादी सा के किरदार के लिए याद करना, उनके साथ नाइंसाफी करने जैसा है। 9 अप्रैल 1945 को उत्तराखंड के अल्मोड़ा में जन्मी, सुरेखा का अभिनय का सफर इतना लंबा और बेहतरीन है कि उसे एक लेख में समेटा नहीं जा सकता।

लेकिन आज हम आपको उनके कुछ ऐसे लाजवाब किरदारों के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसे सिनेमा और दर्शक कभी नहीं भुला सकते। वो भले ही सिनेमा में सहायक किरदारों में ज्यादा नजर आईं, पर यह सभी किरदार दर्शकों के दिल पर एक अमिट छाप छोड़ गए हैं।

फिल्मों में पहला किरदार निभाया “मीरा” का

सुरेखा सीकरी ने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (NSD) से अभिनय की बारीकियों को सीख कर करीब 15 साल NSD की ही “रेपर्टरी” में काम किया था। इसके बाद उन्होंने अपने करियर की पहली फिल्म की, जिसका नाम था “किस्सा कुर्सी का।” यह फिल्म तत्कालीन इंदिरा सरकार द्वारा लगाए गए आपातकाल और जनता के शोषण को दिखाने वाली पॉलिटिकल सटायर (राजनीतिक व्यंगतमक) फिल्म है।

इस फिल्म में सुरेखा ने एक ऐसी अमीर महिला का किरदार निभाया है। इसमें सुरेखा के किरदार का नाम मीरा है। मीरा के पास पैसा है। पर वो जानती है कि उसके पिता दवाओं में मिलावट करते हैं और वो जन-गण देश का आगामी चुनाव नहीं जीत सकती। इसीलिए वह एक किंगमेकर बनना चाहती है। इसके लिए वो एक जमूरे गंंगू को सड़क से उठा कर चुनाव लड़वाती है। इसके बाद गंगू, प्रो. गंगाराम बन जाता है। और मीरा गंगू को चुनाव जीता भी देती है।

इस फिल्म में सुरेखा ने दमदार अभिनय किया है। उनके संवादों में जो व्यंग्य है वो आज भी राजनीति की दुनिया पर उतना ही सटीक बैठते हैं, जितने उस समय थे।

राजो

तमस भीष्म साहनी के एक उपन्यास का चलचित्र है। पहले इसकी एक छोटी सीरीज टीवी पर प्रसारित की गई थी। बाद में इसे एक फिल्म शक्ल दे दी गई। “तमस” विभाजन के समय में पैदा हुए अन्माद, तनाव और उन मजबूरियों को दिखाती है। जिसके चलते एक व्यक्ति चाह कर भी कुछ नहीं कर पाता।

इस फिल्म ने सुरेखा न राजो का किरदार निभाया थे। एक ऐसी महिला जिसने गांव में धार्मिक दंगों के दौरान अपने दरवाजे पर आए एक सिख दंपति को शरण दी है। राजो एक मुस्लिम महिला होने के बावजूद एक बुजुर्ग दम्पति को शरण देती है। लेकिन, एक अनजान को अपने घर में शरण देने के बाद का दर भी राजो के चेहरे पर नजर आता है।

मम्मो में फय्यूजी

8 जून 1994 में रिलीज हुई मम्मो फिल्म विस्थापित स्त्रियों की दुर्दशा को रेखांकित करने वाली फिल्म थी। इस फिल्म में फय्यूजी का किरदार निभाने वाली सुरेखा ने महमूदा उर्फ़ मम्मो की बहन का किरदार निभाया है। इस फिल्म में फय्यूजी भारत में रहती हैं, जबकि उनकी बहन विभाजन के समय पाकिस्तान चली गईं थी। पर शादी के बाद बच्चा पैदा न कर सकने के कारण उन्हें अपने घर से निकाल दिया गया। और इसी तरह वो अस्थाई वीजा पर अपनी बहन फय्यूजी के यहां रहने लगी।

इस फिल्म में सुरेखा और फरीदा जलाल के बीच बहनों वाली नोकझोंक और उनमें छिपा प्यार साफ नजर आता है। इस फिल्म के एक सीन में सुरेखा फरीदा जलाल से कहती हैं, मैं तुम्हें खूब जानती हूं। तुम्हारी रग-रग पहचानती हूं। जब से इस घर में आई हो न जीना हराम कर दिया है। पूरे घर पर कब्जा करके बैठ गई हो। और मेरे नवासे पर डोरे डाल रही हो।” इस सीन में उनकी परफार्मेंस देखते ही बनती है।

बधाई हो में दादी

हाल ही के दिनों में बधाई हो में सुरेखा सीकरी द्वारा दादी के किरदार को दर्शकों के दिलों में तो जगह मिली ही, साथ ही उनके इस किरदार के लिए सुरेखा जी को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। “बधाई हो” एक ऐसे दंपति की यौन संबंधों और गर्भधारण की ऐसी सच्चाई दर्शाती है, जिसे समाज सहजता से स्वीकार नहीं करता। मसलन अगर एक बुजुर्ग दंपति यौन संबंध बनाते हैं तो ये बात समाज के लोगों को बोहोत अजीब लगती है। और अगर गलती से इस स्तिथि में महिला गर्भधारण कर ले तो समाज और इसमें रहने वाले लोग, यहां तक की खुद के बच्चे काफी असहज महसूस करते है।

इस तुम में सुरेखा जी ने दुर्गा कौशिक का किरदार निभाया है।
जो नकुल कौशिक (आयुष्मान खुराना) की दादी हैं। सुरेखा फिल्म के आखिरी कुछ दृश्यों में समाज की रूढ़िवादी सोच पर सवाल खड़े करती हैं। वो कहती हैं, कि पति पत्नी में प्रेम होना बुरी बात हो बता, न बता।” ये एक संवाद पूरी फिल्म के उदेश्य को दर्शकों के दिलों तक पहुंचा देता है। और उनके इस किरदार को अमर बना देता है।