वर्ष 1901था, जब कलकत्ता की पृष्ठभूमि पर डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म हुआ।मुखर्जी बचपन से ज्ञानी और प्रतिभाशाली थे।उनके पिता आशुतोष मुखर्जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी तो थे ही साथ ही शिक्षक भी थे। जिसके चलते शुरुआत से ही मुखर्जी मेधावी रहे। 1917 में मेट्रिक किया,1920 में बी ए कंप्लीट कर 1923 में कानून की पढ़ाई पूरी की। इसके बाद बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए मुखर्जी इंग्लैंड चले गए। 1927 में वापस आए तो अपने पिता की ही तरह वह भी शिक्षक बन गए। मुखर्जी 33 साल की उम्र में कलकत्ता विश्विद्यालय के कुल पति बन गए जो उस समय सबसे कम उम्र के कुलपति के रूप में जाने गए। श्यामा प्रसाद दिल से पूरी तरह राष्ट्रवादी थे और सावरकर के विचारों से काफ़ी प्रभावित भी थे जिसके बाद वह हिन्दू महासभा में भी शामिल हुए । कुलपति के रूप में चार साल बीतने के बाद उन्होंने कलकत्ता में कांग्रेस पार्टी की तरफ से चुनाव लड़ा और विधान सभा गए। कुछ समय तक सब ठीक चला लेकिन आपसी मतभेदों के चलते मुखर्जी ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया और फिर कलकत्ता में स्वतंत्र रूप से विधानसभा चुनाव लड़ा।
नेहरू मंत्रीमंडल में रहे थे उद्योग मंत्री
मुखर्जी के लिए अब समय राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में आने का था। यूं तो आज़ादी से पहले वह कांग्रेस और कृषक प्रजा पार्टी के गंठबंधन में बंगाल के वित्त मंत्री रह चुके थे। लेकिन आज़ादी और विभाजन के बाद महात्मा गांधी और सरदार पटेल की राय पर उन्हें भारत के पहले मंत्रिमंडल में वाणिज्य और उद्योग मंत्री बनाया गया। सांसद और केबिनेट मंत्री के रूप में लोगो के दिलो में वो अपनी अलग और महत्वपूर्ण छवि बनाने में कामयाब रहे लेकिन राष्ट्रवादी चिंतन के चलते अपनी ही कैबिनेट में अन्य नेताओं से उन्हें मतभेदों के सामना करना पड़ा। राष्ट्रवाद को प्राथमिकता देते हुए उन्होंने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया और जनसंघ नाम से अपनी अलग पार्टी बनाई।
दमदार विपक्ष का चेहरा बनकर उभरे थे मुखर्जी
साल 1951 का समय था जब भारत मे केवल कांग्रेस ही एक मात्र नेशनल पार्टी के रूप में स्थापित थी। ऐसे में कांग्रेस से ही अलग होकर जब श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जनसंघ बनाया तो वो उस दौर में सबसे महत्वपूर्ण और दमदार विपक्षी दल और मुखर्जी विपक्षी नेता के तौर पर सामने आए। कश्मीर और 370 के मुद्दे पर वो हमेशा कांग्रेस का विरोध करते रहे। मुखर्जी का मानना था कि हम सब की भाषा भले ही अलग हो,धर्म अलग हों लेकिन हमारी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि एक ही है। हम सबका खून एक ही है। हममें कोई अंतर नहीं और यही हमारी विरासत भी है। विभाजन के दौरान भी उन्होंने इस बात को कहा था कि विभाजन के कारण ऐतिहासिक और सामाजिक हैं।
दो निशान,दो विधान,दो प्रधान के विरोधी थे
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने हमेशा इस बात की वकालत की थी कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग हो। भारत का हिस्सा होते हुए कश्मीर का अलग झंडा,अलग संविधान और अलग प्रधानमंत्री होना उन्हें गवारा नहीं था। वो चाहते थे जो कानून भारत के अन्य राज्यो पर लागू होते हैं वही कानून कश्मीर पर भी लागू हों। भारत मे रह रहे किसी भी व्यक्ति को कश्मीर जाने के लिए अलग से अनुमति न लेनी पड़े। जिसके लिए 1953 में वह खुद बिना परमिट लिए कश्मीर जाने के लिए रवाना हो गए। वहां पहुंचते ही उन्हें गिरफ्तार कर नज़रबंद कर दिया गया। कुछ समय बाद उन्हें छोड़ दिया गया। 23 जून 1953 को अचानक उनकी मृत्यु हो गयी। उनकी मृत्यु कैसे हुई,क्यों हुई इसका किसी को पता नहीं चल पाया। तब से हर साल 23 जून को श्यामा प्रसाद मुखर्जी की पुण्यतिथि उनकी विचारधारा के समर्थकों द्वारा किए “बलिदान दिवस”के रूप में मनाई जाती है।
जब भरे संसद में मुखर्जी से नेहरू ने मांगी थी मांफी
आज़ाद भारत के पहले आम चुनाव के बाद ये दिल्ली के नगरपालिका चुनाव का वक्त था। इस समय चुनावों में जनसंघ,कांग्रेस को बड़ी टक्कर दे रही थी। बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार संसद में बोलते वक्त मुखर्जी ने कांग्रेस पार्टी पर गंभीर आरोप लगाते हुए कहा कि कांग्रेस चुनाव जीतने के लिए वाइन और मनी का इस्तेमाल कर रही है। दूसरी और नेहरू ने इसे वाइन और वूमेन समझ लिया और संसद में खड़े होकर इसका विरोध करने लगे। जब श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नेहरू से रिकॉर्ड देखने की बात कही तो नेहरू को समझ आया कि उन से बड़ी गलती हो गयी है। इसके बाद भरी संसद में नेहरू ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी से माफ़ी मांगी।