कुछ दिन पहले छत्तीसगढ़ फ़िर से चर्चा में था, लेकिन इस बार दुर्दांत नक्सलियों की वजह से नहीं बल्कि वजह थी राज्य सरकार की मूर्खता की वजह से, राजधानी रायपुर के सेन्ट्रल जेल की डेप्युटी जेलर सुश्री वर्षा डोंगरे जिन्होंने अपनी फ़ेसबुक वाल पे आदिवासी बच्चियों के जिस्म पे पुलिस बर्बरता की न सिर्फ दास्तान पोस्ट की बल्कि उनके मानवाधिकारों की बहाली और शांति क़ायम करने के लिए संविधान की पांचवीं अनुसूचि लागू करने की नसीहत भी दे डाली. बस फिर क्या था हिटलरी सरकार की तमाम मिशनरियां हाथ धोकर वर्षा डोंगरे के पीछे पड़ गई और बग़ैर आगा पीछा देखे वर्षा को उनके पद से निलम्बित कर दिया गया.
ये कोई इकलौता मामला नहीं है उच्च शिक्षित दलित अफ़सरों कर्मचारियों न्यायधीशों को प्रताड़ित बर्खास्त, निलंबित करने का. बस्तर के नक्सल प्रभावित सुकमा ज़िले के मुख्य न्यायधीश प्रभाकर ग्वाल को बीते बरस 1 अप्रैल 2016 को उच्च न्यायालय की अनुशंसा के बाद छत्तीसगढ़ के विधि विभाग ने “जनहित” में बर्ख़ास्त कर दिया था. जस्टिस ग्वाल का जुर्म था कि उन्होंने प्रभावशाली नेताओं अफ़सरों के ख़िलाफ़ फ़ैसला देने की जुर्रत की थी, छत्तीसगढ़ के पीएमटी पेपर लीक काण्ड में रायपुर के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक दीपांशु काबरा की भूमिका को संदिग्ध बताते हुए अपने फैसले में तल्ख़ टिपण्णी ही नहीं की थी बल्कि फ़ैसले की एक कॉपी उस वक़्त के डीजीपी को भेज कर एस पी काबरा के ख़िलाफ़ विभागीय कार्रवाई करने को भी लिखा था. ऐसे एक नहीं बल्कि कई फैसले जस्टिस ग्वाल ने किये थे जिससे हिन्दूराष्ट्र समर्थक ब्राह्मणवादी राज्य सरकार का जनविरोधी भ्रष्टाचारी चेहरा बेनक़ाब होने लगा था. उन्होंने सेना.पुलिस द्वारा गिरफ़्तार किये जाने वाले बेगुनाह ग़रीब,मजबूर,दलित,आदिवासियों को नक्सली होने के झूठे इलज़ाम में ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से उन्हें जेलों में ठूंस रखने की सरकारी मंशा के ख़िलाफ़ जाकर अपनी अदालत से रिहा करने के दर्ज़नों फ़ैसले दिए. जिससे क्षुब्ध होकर स्थानीय एसपी ने उच्च न्यायालय में उनके खिलाफ पुलिस का मनोबल गिराने का इल्ज़ाम लगाते हुए शिकायत भी की थी. ये क्या कम शर्मनाक है. राज्य सरकार आदिवासियों को मौत के घाट उतारने वाले अफ़सरों को संरक्षण देती है. लेकिन बस्तर के ख़ौफ़नाक हालात बयान करने वाली महिला जेलर को निलंबित और बेगुनाह दलित आदिवासियों को रिहा करने वाले सिटिंग जज को बर्ख़ास्त करती है.
जस्टिस ग्वाल सीबीआई के विशेष मजिस्ट्रेट रहते हुए जब उन्होंने बिलासपुर के तात्कालीन पुलिस अधीक्षक राहुल शर्मा की तथाकथित आत्महत्या के मामले में मृतक के रिश्तेदारों विवेचक और घटनास्थल पर मौजूद गवाहों को नोटिस जारी करने का निर्देश दिया तो बहुत से लोग बौखला गए थे, 2014 बिलासपुर ज़िले के भदौरा की एक ज़मीन घोटाले जब उन्होंने पटवारी उपसरपंच समेत तीन आरोपियों को सश्रम कारावास की सज़ा सुनाई तब सरकार के एक कद्दावर मंत्री की भूमिका उजागर हुई,तब उन्हें निर्णय बदलने के लिए बड़े लुभावने लालच दिए गए. बाहुबलियों से सरकार की नाराज़ी का संदेशा भिजवाया गया उन्हें जान से मारने की धमकियाँ आज तक लगातार मिल रही है. नेताओं और अफ़सरों के ख़िलाफ़ दिए गए सख़्त फ़ैसलों के चलते सुर्ख़ियों में रहे जस्टिस ग्वाल की बर्ख़ास्तगी के एक बरस बाद 10 अप्रेल 2017 उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार के लिखे गए गोपनीय प्रतिवेदन जिसमें लिखा हुआ है- कि ग्वाल के भीतर न्यायिक कार्य को लेकर जो गुण होना चाहिए वे उनमे मौजूद हैं, लेकिन उनके द्वारा माननीय उच्च न्यायलय से जो पत्राचार किया गया है उसकी भाषा और शब्दावली असंसदीय है. इसके अतिरिक्त उनमें और भी जो गुण हैं वह न्यायजगत संस्था और हम सभी के लिए घातक है.
जस्टिस ग्वाल के मुताबिक़ बर्ख़ास्तगी के एक बरस बाद देर रात 15 अप्रेल 2017 न्यायालय का एक कर्मचारी डाक लेकर उनके घर पहुंचा वे घर पर नहीं थे. लेकिन परिजनों ने जो पत्र रिसीव किया उसमें 10 अप्रेल की तारीख़ अंकित थी. जस्टिस ग्वाल सवाल पूछते हैं – मैंने संसदीय संस्था में शिकायत करके कोई गंभीर अपराध कर दिया है. हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि 2010 में चार सिविल जजों (दलित) को महज़ स्थानीयकरण के योग्य नहीं पाए जाने के आरोप में सेवा मुक्त कर दिया गया था. उसी तरह 2011 में 15 जिला व सत्र न्यायधीश (सभी दलित समुदाय से) को उनका वक़्त ख़त्म होने से पहले अनिवार्य सेवा निवृत्ति दे दी गई थी.
बीजेपी के शासित होने के बाद छत्तीसगढ़ के शांत और सौहाद्रपूर्ण सामाजिक ताने बाने में धार्मिक व सांप्रदायिक नफरतों का ज़हर घोल कर अल्पसंख्यक बहुसंख्यक समुदायों के बीच बिखराव का माहौल बनना शुरू किया गया जो दिन बा दिन बढ़ता गया. आदिवासी इलाक़ा कांकेर में मुसलमानों पे एकतरफ़ा हमले से शुरू किया गया ज़हर बहुत जल्द पहले मुस्लिम बहुल इलाक़ों में बोया गया. 2012 तक 4 बड़े साम्प्रदायिक तनाव वाला माहौल बना दिए जाने के बावजूद अल्पसंख्यकों की सूझबूझ से छुट.पुट घटनाओं से आगे नहीं बढ़ पाया मगर ईसाई समुदाय पे दबंगों ने जम कर ताक़त आज़माइश की जो लगातार बढ़ने लगा. दक्षिणपंथी पार्टी के असामाजिक तत्वों ने भिलाई,दुर्ग,महासमुंद,जशपुर,बस्तर, जगदलपुर को चिन्हांकित करके संगठित तौर पर सशस्त्र हमले किये अख़बारों में छपती ख़बरों से राज्य में ईसाईयों पर हो रहे अत्याचारों पर स्वतः संज्ञान लेते हुए राष्ट्रिय मानवअधिकार आयोग ने छत्तीसगढ़ सरकार से जवाब तलब किया. क़ाबिले ग़ौर बात ये है कि अख़बारों में छपी ख़बरों के मुताबिक़ छत्तीसगढ़ के चर्चों पर पथराव आगज़नी तोड़फोड़ , ईसाई समुदाय के नागरिकों को पीडीएस का राशन लेने से रोकने और गाँवों में घुसने से रोकने की ख़बरें लगातार आने पर आयोग ने स्वतः संज्ञान लेकर ये कार्रवाही की. आयोग ने अपने संज्ञान में ये माना कि प्रकाशित ख़बरें अगर सच हैं तो ये ख़तरनाक बात है जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन का मामला है. आयोग ने राज्य सरकार से उक्त घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के लिए उठाए गए क़दमों की जानकारी भी तलब की.
व्यापारियों की पार्टी होने के कारण राज्य के सीने में दफ़्न अक़ूत ख़ज़ानों पे सरकार की नज़र पहले से ही थी और इसी क्रूर मंशा को पूरा करने के लिए ही छत्तीसगढ़ राज्य का गठन किया गया था, सत्ता हाथ में आते ही इन्होने धार्मिक नफ़रतों के बीज बोने शुरू किये ताकि साम्प्रदायिक तनाव पैदा किया जा सके. विभिन्न मतावलम्बी अनुसूचित जातियों के बीच आपसी फूट डालने का काम शुरू किया। यही प्रक्रिया विभिन्न सांस्कृतिक मतों वाले आदिवासियों के बीच अपनाई जाने लगी. अबतक टाटा एस्सार, जिंदल, अडानी जैसी कई अन्य लुटेरों की टुकड़ियां राज्य में डेरे डालने लगी. जिसके लिए ज़मीनें लूटने की प्रक्रिया शुरू किये जाने से जंगलों में अंबिकापुर,कोरबा,बस्तर,जशपुर,रायगढ़,रानंदगांव,कवर्धा निवासरत आदिवासी दलितों ने एक जुट विरोध करना शुरू किया। बदले में उनके साथ मारपीटए बेवजह थानों में बंद करना उनकी औरतों बच्चियों के साथ हिंसाए बलात्कार जैसे पुलिसिया टेरर की बारिशें की जाने लगी.
और फ़िर जल जंगल ज़मीन वाले इस खूबसूरत शांत,प्यार करने वाले, भोलेभाले मस्तमौला छत्तीसगढ़िया प्रदेश को गोला बारूद बंदूक़ों और बेगुनाह मज़लूमों के ख़ून लाशों ए आहों चीख़ों में डुबो दिया गया.
कॉर्पोरेट्स की चारण इस सरकार ने दुनिया भर में इस ख़ूबसूरत,शांत प्रदेश की थू.थू करवा रक्खी है. मानव अधिकारों के संरक्षण पे नज़र रखने वाली शायद ही कोई एजेंसी बाक़ी होगी जिसने छत्तीसगढ़ सरकार पे लानत न भेजी होगी. देश की सर्वोच्च न्यायालय दर्ज़नों बार फटकार लगा चुकी है, देश विदेश के अमन.इंसाफ़ पसंद संगठन व्यक्तियों ने सैंकड़ों बार अपीलें की है इस सरकार से कि वो अपने देश के नागरिकों के साथ सौतेला व्यवहार बंद करे. मगर क्या मजाल जो सरकार के कानों पे जूं भी रेंग जाए. अभी हाल में ही देशभर के तमाम नामी.गिरामी विभिन्न क्षेत्रों के चर्चित 125 विद्वानों पत्रकारों,ज्ञानि,शिक्षाविदों के अलावा पत्रकार,संपादक,अर्थशास्त्री,फ़िल्मकार और सुप्रीम कोर्ट के सीनियर अधिवक्ताओं ने एक पत्र के ज़रिये सरकार से ये मांग की है कि बस्तर में मानवाधिकार हनन के शिकार किसी भी व्यक्ति तक कोई भी आसानी से पहुँच सके. सरकार मानवाधिकार का उल्लंघन करने वालों के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाही करे, इस संयुक्त हस्ताक्षरित पत्र में कहा गया है कि बस्तर में क़ानून का राज क़ायम किया जाए और सुरक्षाबल व राज्य की अन्य संस्थाएं क़ानून और संविधान के दायरे में रहकर काम करें. इस पत्र में ये अपील भी की गयी है कि दबंगई पर उतारू क़ानून और मानवाधिकार का सम्मान न करने वाले किसी भी समूह को राज्य की ओर से समर्थन न दिया जाए साथ ही उत्पीड़न और मानवाधिकार के उल्लंघन के लिए ज़िम्मेदार लोगों पर जल्द और कड़ी कार्यवाही की जाए , इस बात का भी उल्लेख किया गया है कि दिल्ली निवासी समाजशास्त्री नंदिनी सुन्दर के ख़िलाफ़ झूठी एफ़आईआर दर्ज की गई है. यहां ये याद दिलाना ज़रूरी है कि राष्ट्रिय मानवाधिकार आयोग,राष्ट्रिय महिला आयोग,पीयूसीएल, एमेनेस्टी इंटरनेशनल और सुप्रीम कोर्ट ने बस्तर में मानवाधिकार के हनन की लगातार आलोचना की है. पत्र में ये आरोप भी लगाया गया है कि बस्तर के आईजी एसआरपी कल्लूरी का मक़सद है कि इलाक़े में चल रही मनमानी के ख़िलाफ़ कोई आवाज़ न उठा सके. वर्तमान में बस्तर में बड़ी ख़तरनाक स्तिथि पैदा होने की आशंका है,जहां सुरक्षा बल बिना किसी जवाबदेही के डंडा फटकारेंगे और जनसाधारण के पास अपनी रक्षा के लिए कुछ नहीं बचेगा,लोकतंत्र की सेहत के लिए ऐसी अराजकता ठीक नहीं है. ये कहना ग़लत नहीं होगा कि आज़ादी के 70 बरस बाद राज्य के बहुसंख्यक आदिवासी,दलित मायनॉरिटी और ग़रीब दुसरे दर्जे के नागरिक बना दिए गए हैं