भारतीय इतिहास सुनहरा है और देश के लिए अनेक कुर्बानी देने वालों शहीदों से सुशोभित है. “मैें जानता हूं मैंने जिन बातों को कबूल किया है, उनके दो ही परिणाम हो सकते हैं – कालापानी या फांसी. इन दोनों में मैं फांसी को ही चुनूंगा क्योंकि उसके बाद फिर नया शरीर पाकर मैं अपने देश की सेवा कर सकूंगा.’’ ये शब्द मात्र 19 साल की उम्र में देश के लिए सहर्ष फांसी पर चढ़ने वाले क्रांतिकारी करतार सिंह सराभा के है. ये उस समय क्रांतिकारियों की गदर पार्टी के सदस्य थे.
जन्म और बचपन
इनका जन्म 24 मई 1896 को गाँव सराभा और जिला लुधियाना(पंजाब) में हुआ था. इनके पिता का नाम सरदार मंगल सिंह था और माता जी का नाम साहिब कौर था. बचपन में ही पिता के निधन के कारण इनका पालन-पोषण उनके दादा जी सरदार बदन सिंह ने किया. अपनी प्रारंभिक शिक्षा गांव में पूरी करने के बाद लुधियाना के मालवा खालसा हाई स्कूल से आठवीं की परीक्षा पास की. इसके बाद 1911 में करतार सिंह को उच्च शिक्षा के लिए कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी (अमरीका) भेज दिया गया. अमेरिका के स्वतंत्रता आन्दोलन से भी इनको प्रेरणा मिली.
1913 में जब सोहन सिंह भकना और लाला हरदयाल ने गदर पार्टी की स्थापना की. तब करतार सिंह ने अपनी पढ़ाई छोड़कर गदर पार्टी जॉइन कर ली. वह गदर पत्रिका के संपादक भी बन गए और बहुत ही अच्छे तरीके से अपने क्रांतिकारी लेखों से बहुत सारे विदेश में रहने वाले भारतीय नौजवानों की आवाज बने.
वतन वापसी
1914 में प्रथम विश्वयुद्ध शुरू होने के बाद अंग्रेजों और जर्मन की लड़ाई के बाद गदर पार्टी की अपील पर सारे ‘गदरी’ अपने वतन की तरफ चल पड़े. इनके साथ गदर पार्टी के क्रांतिकारी नेता सत्येन सेन और विष्णु गणेश पिंगले भी थे.
अंग्रेजों के खिलाफ देश भर में गदर करने के लिए 21 फरवरी 1915 का दिन निर्धारित किया. लेकिन ब्रिटिश सरकार को इसकी भनक लग गई थी. फिर ताऱीख परिवर्तित की गई लेकिन इस बार भी सूचना अंग्रेजों तक पहुंच गई. इसके बाद अंग्रेजों ने गदर पार्टी के लोगों को पकड़ना शुरु किया. करतार सिंह और उनके साथी पकड़े गए. इन सब के खिलाफ राजद्रोह और कत्ल का मुकदमा चलाया गया. इसे अंग्रेजों ने लाहौर षड्यंत्र का नाम दिया.
बड़े पैमाने पर चले इस आंदोलन में 200 सौ से ज्यादा लोग शहीद हुए. गदर और अन्य घटनाओं में 315 से ज्यादा लोगों ने अंडमान में काले पानी की सजा भुगती. इन सभी गतिविधियों से देश में हलचल हुई और आन्दोलन की आग फ़ैल गयी.
फांसी
करतार सिंह के अल्पकालीन योगदान ने ही देश में क्रांति की नई परिभाषा गढ़ी. देश के नौजवान के बीच देशभक्ति का रंग भर दिया था. कहते है कि करतार सिंह को फांसी न हो इसके लिए न्यायाधीश ने भी उन्हें बचाने की पूरी कोशिश की थी. न्यायाधीश ने अदालत में उन्हें अपना बयान हल्का करने का मौका दिया था. लेकिन करतार सिंह ने अपने बयानों को और सख्त किया.
आखिरकार 13 सितम्बर 1915 उनके 6 साथियों के साथ फांसी की सजा अदालत की तरफ से सुना दी गई और इस वीर बालक ने 19 वर्ष की छोटी उम्र में 16 नवम्बर को भारत माता की गोद में हँसते-हँसते बलिदान दे दिया.