मनोज झा ने लाखों लोगों के दिलों की बात संसद तक पहुंचाई है

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Heena Sen

हम सभी जानते हैं कि संसद का मानसून सत्र चल रहा है। हर संसद के हर सत्र में कोई ऐसा जनप्रतिनिधि कुछ ऐसी बात जरूर की देता है, जो अकसर वायरल हो जाती हैं। कई बार सत्ता पक्ष के लोग ऐसा बयान दे देते हैं, जिससे राजनीतिक गलियारों में बवाल हो जाता है। कभी विपक्ष के नुमाइंदे सरकार से कुछ इस तरह के सवाल पूछ लेते हैं जो सरकार को चुभ जाते हैं। अब राष्ट्रीय जनता दल के राज्यसभा सांसद प्रोफेसर मनोज झा ने भी मानसून सत्र में एक ऐसा भाषण दिया है, जिसे आपको जरूर सुनना चाहिए।

पढ़िए मनोज झा से भाषण के कुछ अंश…

भाषण नही माफीनामा है

उनका कहना था कि ये कोई भाषण के रुप में नहीं है। वह ये बात एक नागरिक या जनप्रतिनिधि की हैसियत से कह रहा हूं। शोक संतत गणतंत्र का एक नागरिक समझिए या एक जनप्रतिनिधि समझिए, उसकी ओर से कुछ बातें कही जा रही हैं। सबसे पहले माफीनामा उन तमाम लोगों के लिए जिनकी मौत को हम एक्नोलिज (संज्ञान) नहीं कर रहे हैं। हम मान ही नहीं रहे कि वो मारे गए हैं। ये माफीनामा सिर्फ मेरा नहीं है।

मैं ये इसलिए ये बात कह रहा हूं क्योंकि मैंने मई के महीने में 6 आर्टिकल लिखे। संसद चल नहीं रही थी, कहां अपनी शिकायत ले जाते। किससे कहते। मुझे भाजपा के मित्रों ने बधाई दी, मैंने उनका ऐहतराम किया। मैं कहता हूं, ये भरोसा इस सदन का है कि एक साझा माफीनामा हम लोगों को उन लोगों को भेजना चाहिए। जिनकी लाशें गंगा में तैर रही थीं।

सर (उपसभापति) संसदीय इतिहास में दो सत्रों के बीच 50 सांसदों की पर मौत पर कभी शोक संदेश नहीं दिया गया। राजीव सातव की उम्र थी इस दुनिया से जाने की। रघुनाथ महापात्रा, जब मिलते थे गले लगाते थे। बोलते थे जय जगन्नाथ, अचानक वो नहीं हैं।

यह पीड़ा व्यक्तिगत है। आंकड़ा मैं नहीं कहना चाहता। मेरा आंकड़ा तुम्हारा आंकड़ा। सर अपनी पीड़ा में आंकड़ा खोजिये। एक व्यक्ति नहीं है इस देश में, इस सदन में, उस सदन (लोकसभा) में, सदन के बाहर जो ये कहे कि उसने किसी जानने वाले को नहीं खोया है।

छोड़कर जाने वाले लोग जिंदा दस्तावेज हैं

उन्होंने ऑक्सीजन की कमी पर तंज कसते हुए कहा कि ऑक्सीजन के लिए लोग फोन करते थे। हम अरेंज नहीं कर पाते थे। लोग समझते थे सांसद है ऑक्सीजन बिछा देगा। दिन के अंत में 100 फोन कॉल्स देखते थे, सक्सेज रेट 2 या तीन। हमें कोई आंकड़ा नहीं देखना है। हमें देखना है कि जो लोग हमें छोड़कर गए हैं वो हमारे फेल्यिर (असफल होने) का जिंदा दस्तावेज छोड़कर गए हैं।

आप कहिएगा 70 साल में कुछ नहीं हुआ। मैं उसमें जाना ही नहीं चाहता। ये 1947 से अब तक की सरकारों कीकलेक्टिव फेल्यिर है।

शुरू में चेक करता था दवाइयों के नाम

हमें पता नहीं था कि अस्पताल और ऑक्सीजन का क्या रिश्ता होता है सर। ईमानदारी से कहता हूं, मैं मेडिकल बैकग्राउंड से नहीं हूं। लेकिन सुबह से देखता था ऑक्सीजन, रेमडेसिवीर। मैंने शुरु में उच्चारण चेक किये कि दवाइयों का उच्चारण कैसे करूंगा। और तब हम आंकडों की बात कर रहे हैं। तब हम… यह कह रहे हैं कि थैंक्यू फलाना साहब, ढिकाना साहब।

मैं आज लाखों लोगों की तरफ से बोल रहा हूं

मैं यहां से निकलता हूं, बाहर बहुत बड़ा विज्ञापन लगा है, मुफ्त वैक्सीन, मुफ्त राशन।(तभी एक सांसद के टोकने के बाद मनोज ने कहा-मैं आज किसी दल की तरफ से नहीं बोल रहा हूं। मैं दावे से कहता हूं कि मैं आज उन लाखों लोगों की तरफ से बोल रहा हूं। जो यहां बोलना चाहते हैं।

फ्री वैक्सीन और फ्री राशन की बात पर मनोज ने कहा कि “अब मेरी बात सुनिए आज मैं शिकायत नहीं कर रहा हूं,। यह वेलफेयर स्टेट हैं ना, एक साबुन की टिकिया अगर गांव में कोई गरीब खरीद रहा है ना तो सर वह अडानी अंबानी के बराबर का करदाता है। आप उसको कह रहे हो मुफ्त… मुफ्त वैक्सीन, मुफ्त इलाज, मुफ्त राशन।”

नहीं साहब कुछ मुफ्त नहीं है। उसका स्टेट है, इस वेलफेयर स्टेट का कमिटमेंट है। उसे आप डिनाइग्रेट (महत्वहीन) न करें। उसे बौना मत बनाइए, यह मेरा आग्रह है।

स्वस्थ्य का अधिकार (Right To Health) की कोई बात ही नहीं करता। मैं भी मानता हूं कि कोरोना चैलेंज है हमारे लिए। नए-नए कानून बनाने की, बड़ी-बड़ी बातें हो रही हैं। राइट टू हेल्थ (स्वास्थ्य का अधिकार) की बात क्यों नहीं करते हम लोग। स्वास्थ्य का अधिकार। उसमें कोई लेकिन किन्तु-परंतु नहीं होना चाहिए। सीधे स्वास्थ्य का अधिकार। और इसे राइट टू लाइफ (जीने का अधिकार) के साथ लिंक करिए, किसी अस्पताल की मजाल नहीं होगी कि वह खिलवाड़ कर पाए।

राइट टू वर्क पर काम करिए

पॉपुलेशन (जनसंख्या) को लेकर बहुत बातें हो रही हैं साहब। डेमोग्राफी को ड्रेमोग्राफर को छोड़ दीजिए। लेकिन ये हम कर सकते हैं। इस सदन (राज्यसभा) में और उस सदन (लोकसभा) में Right to life और राइट टू वर्क का कानून लाइए।

अस्पताल से लोग निकले गए, कोई सुनने वाला नहीं था।

कोरोना महामारी में मेडिकल ( अस्पताल) सेक्टर से लोग निकाले गए गए। मैंने आवाज उठाई कोई सुनने वाला नहीं था। सर अगर आप सांसद की नहीं सुन रह हैं तो अदना संविदा वाले छोटे आमदनी वाले लोगों की कौन सुनेगा।

खुद के स्टूडेंट के लिए बुक नहीं कर पाए अस्पताल में एक बेड

मैं सिर्फ केंद्र सरकार को नहीं कहूंगा, कई राज्य सरकारें भी उस समय नदारद थी, वो डेढ़ महीना इस मुल्क ने कैसे बिताएं हैं। उससे हमारे सदन के कई लोग बड़ी मुश्किल से बचकर आए हैं। मैं नाम नहीं लूंगा। पूरे देश ने वो वक्त कैसे एक नाइटमाइर की रहा बिताया है। ये नाइटमेयर डरावना लगता है। मेरा एक स्टूडेंट था, 37 साल का। असपताल में मैने जब तक बेड अरेंज किया। वो दुनिया छोड़कर जा चुका था। इसलिए मैं बार-बार कर रहे हूं। M इसमें व्यक्तिगत पीड़ा को खोजिये, तब हम इसका निदान खोज पाएंगे।

मैंने मृत आत्माओं के लिए एक खत लिखा था।

एक खत मैंने मृत आत्माओं के नाम लिखा था। कुछ और कर नहीं पा रहा था। बेबसी में एक खत लिखा। जो लोग इस दुनिया से चले गए। उसमें मैंने सरकार को कुछ सलाह दी थी, और उस बीच कहा जा रहा था कि सरकारें फेल नहीं हुईं बल्कि सिस्टम फेल कर गया। अरे साहब यह सिस्टम क्या है?

बचपन से सुनते थे कि सिस्टम के पीछे व्यक्ति होता है। सिस्टम के पीछे संरचना होती है। अगर सिस्टम फेल हुआ है दिल्ली में या गांव की किसी की गलियों में तो वहां की सरकारें फेल हुईं हैं, इसे सिस्टम का नाम मत दीजिए… क्योंकि वही यह सिस्टम बनाते हैं।

मैंने एक शिकायत नहीं की। किससे शिकायत करता। आहत हूं। जगाना चाहता हूं स्वयं को भी, और आपको भी। क्योंकि अगर गंगा में तैरती लाशें को जिंदगी में डिग्निटी चाहिए। मौत में उससे बड़ी डिग्निटी (गौरव, मर्यादा) चाहिए। हमने अन-डिग्नीफाइड डेटा को विटनेस किया है। अगर हमने इसे दुरस्त किया, तो आने वाली सदियां हमें माफ नहीं करेंगी।

आप बड़े-बड़े इश्तिहार छपवाओ, अखबारों के चार पन्ने रंग दो। फनाला थैंक्यू, कोई फायदा नहीं है। इतिहास को थैंक्यू कहने का मौका मिलने चाहिए।

जयहिंद