घरेलू कलह के चलते ख़ुदकुशी की मिसालें सामने हैं, बड़े बड़े आफ़िसर्स, बिज़नेसमैन्स, पोलिटिशियन्स , स्पोर्टसमैन्स भी इसके शिकार हो रहे हैं, इसके अलावा यह भी देखने मे आ रहा है कि बहुत सारे लोगों की शादीशुदा ज़िंदगी ख़ुशहाल नही, तलाक़ भी हो रही हैं और बिना तलाक़ लिए भी परिवार टूट रहे हैं , अलग अलग मामलों मे अलग अलग वुजुहात होती हैं, ग़लती दोनो की भी हो सकती है और किसी एक ( औरत या मर्द) की भी.
लेकिन मर्द और औरत यानी पति और पत्नी की फ़ितरत मे जो सबसे बड़ा बुनियादी फ़र्क़ हैवो यह है कि मर्द किसी भी बात को न तो बार बार कहना चाहता है, न बार बार सुनना चाहता है, वो चाहता है कि उसके एक दो बार कहने पर ही उसकी बात समझ भी ली जाये मान भी ली जाये और उसे हर बात पर टोका न जाये.
औरत का मिज़ाज इसका बिलकुल उलटा है, वो किसी भी बात को न तो बार बार कहने से थकती है, न बार बार सुनने से उकताती है, वो जिस बात को कहते कहते पति को घर से सुबह को भेजेगी, शाम को पति के घर मे घुसते ही बात वहीं से शुरू करेगी, हो सकता है बीच मे एक दो बार फ़ोन पर भी वही बात दोहरा दी जाए.
अब मर्द को यह शिकायत कि घर मे सुकून के लिए आते हैं और वो मिलता नही ,औरत का यह कहना कि जब घर आओगे तभी तो कहूंगी या तुमसे न कहूं तो किससे कहूं ? यहाँ से शुरूआत होती है
यह वो स्टेज होती है जब मर्द को ख़ुद अपनी ज़ात, अपना घर परिवार, वालिदैन, भाईबहन, कारोबार / नौकरी, समाज / बिरादरी , सबको देखना होता है जबकि औरत की फ़िक्र अपने और अपने बच्चों तक सीमित होती है, वो घर के बाहर पति की ज़िम्मेदारियों मे बिलकुल को ओपरेट नही करना चाहती, यहां से शुरू हुई ना इत्तेफ़ाक़ी का आख़ीर अक्सर तो मर्द के सरेंडर कर देने पर होता है कि वो रोज़ रोज़ की चिख़ चिख़ से बचने के लिए बीवी की सारी बातें मानने लगता है, या फिर तलाक़ / अलहेदगी और मरने मारने वाला रास्ता बचता है.