मैं हमेशा मानता रहा हूँ कि जेएनयू का आइडियलिज़्म बाहर की दुनिया से मेल नहीं खाता है – इसीलिये वहां के चुनाव को कैंपस के बाहर की राजनीति का बैरोमीटर नहीं माना जा सकता है. लेकिन नरेंद्र मोदी के दिल्ली आने के बाद मैंने इस धारणा पर नए सिरे से सोचना शुरू किया. प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी और आरएसएस और बीजेपी की नई व्यवस्था ने 2016 में जेएनयू पर एक सुनियोजित और बड़ा हमला किया जो कन्हैया, उमर और अनिर्बान की गिरफ्तारी से शुरू हुआ और रविवार को खत्म हुई वोटो की गिनती तक जारी रहा. लगातार इन हमलों से लगता है कि जो जेएनयू मे होता है उसका असर बाहर भी होता है. सत्ता में बैठे लोगो की चिंता का विषय है जेएनयू.
जेएनयू लेफ्ट का गढ़ रहा है और आमतौर पर छात्र संघ के चुनाव में वहां लेफ्ट की जीत कोई चौकाने वाली बात नहीं है. लेकिन जब देश की सरकार और सत्ताधारी पार्टी जेएनयू में सारी नैतिकता को ताक पर रख कर जेएनयू को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना ले तब वहां के छात्रों का एबीवीपी को हराना और अपनी संस्था की रिवायत को कायम रख पाना काबिले तारीफ है.
लेकिन इस बार के चुनाव में एक नई धारा देखने को मिली जो शायद कैंपस के बाहर हो रही घटनाओं का प्रतिबिंब भी है और जिस राजनीतिक भवंर में देश है उससे बाहर निकलने का रास्ता भी. आरएसएस और बीजेपी की हिन्दू-मुस्लिम बाइनरी दरअसल हिन्दू समाज में जातिगत वर्चस्ववाद को बचाने की कवायद है. इस बाइनरी की पोल जेएनयू के चुनाव में खुल गई और इसे माकूल जवाब भी मिल गया.
एबीवीपी ने सेंट्रल पैनल यानि प्रेसिडेंट, वाइस प्रेसिडेंट, जनरल सेक्रेटरी और ज्वाइंट सेक्रेटरी के चार पदों में तीन ब्राह्मण उम्मीदवार दिये. इसके अलावा इस बार वहाँ दो परस्पर विरोधी नये मंच भी शामिल हुये – सवर्ण छत्र मोर्चा और छात्र – आरजेडी. बापसा (बिरसा अंबेडकर, फुले स्टूडेंट असोसियशन) वहां 2016 से चुनाव लड़ रहा है और लगातार अपना आधार बढ़ा रहा है. लेफ्ट यूनिटी (एकीकृत वाम दल) ने एबीवीपी के विपरीत समाज के सभी वर्गों को उम्मीदवारी दी – जिसका परिणाम हुआ कि विषम परिस्थितियों में भी लेफ्ट ने चारों पदों और काउंसिल में भारी मतों से जीत हासिल की.
जेएनयू ने सांप्रदायिकता और मनुवाद को एक ही खाने में डाल दिया और यही चुनाव पूर्व नेरेटिव था और चुनाव के बाद का नतीजा भी. बापसा के प्रचार और आरजेडी की मौजूदगी का फायदा भी लेफ्ट को मिला होगा इसमे कोई आश्चर्य नहीं. लेफ्ट एबीवीपी के इस असली अवतार को शिकस्त देने में सक्षम था इसीलिए उसे इस बार भी भरोसा मिला.
लेफ्ट के पास दो विशेषतायें है – पहली कि वामपंथ एक विचार के तौर पर आदर्शवाद से प्रभावित छात्रों को रोमांचित करता है. एक युवा जिन आदर्शों को समाज में देखना चाहता है वो उसे वामपंथ में ही दिखता है और दूसरा छात्र राजनीति पर्याप्त टूल्स हैं वामपंथ के पास, युवा नेता की grooming, उन्हे मौके देना, ट्रेनिंग जैसी वामपंथ के पास है वैसी दूसरे दलों के पास नहीं है.
कैंपस के बाहर की मौजूदा राजनीति को देखे तो वहां भी SC\ST Act के विरोध मे असफल ही सही पर “भारत बंद” हो चुका है, सवर्णों का एक बड़ा खेमा हर कीमत पर मोदी के साथ खड़ा है. जो SC\ST Act और आरक्षण के विरोध में है वही मुसलमानों के भी खिलाफ खड़े दिखते है.
जेएनयू के चुनाव में ब्राह्मणवाद के पक्ष और विपक्ष में ध्रुवीकरण दिखाई दिया है और यही ध्रुवीकरण आरएसएस – बीजेपी के सांप्रदायिक धुव्रीकरण के सामने बड़ी लकीर खीचेगा.