क्या राजनीति में अपना प्रतिनिधित्व मज़बूत कर पाएंगे मुसलमान?

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बिहार में लालू और यूपी में मायावती के आने से पहले यादवों और दलितों के हालात पर ज़रा ग़ौर कीजिये, पहले यह दोनों समाज के लोगों का सवर्णों ने जम कर प्रताड़ित किया, शोषण किया, हालात तो यह थे के यह लोग स्वर्ण जाती के साथ बैठना तो दूर की बात, खड़े भी नहीं हो सकते थे,स्वर्ण इनको अछूत समझते थे, लेकिन जैसे ही लालू और मायावती का राजनीती में उदय हुआ. अचानक से हालात ने करवट ली, कल तक जिस यादव और दलित को मारा जाता था उसे सम्मान मिला, अधिकार मिला, स्वर्ण उन्हें साथ लाने पर मजबूर हुए, उनके साथ खाने पर विवश हुए,यह दोनों समाज सिस्टम की मुख्य धारा में आये, इन दोनों राज्यों में यह दोनों आज एक शक्ति का रूप ले चुके हैं, इसके पीछे वजह सिर्फ़ यही थी के इनके बीच से ही एक इंसान उठा और उसने राजनीती में अपनी भागीदारी मांगी, जो सबका अधिकार है,यहाँ तक के इन दोनों समाज के मुखिया अपने अपने राज्य के मुख्यमंत्री तक हुए.
देश की राजनीती में यह दोनों किंग मेकर साबित हुए, देश की राजनिती में सीधे तौर से तो असर नहीं रखते थे लेकिन यह किसी भी पार्टी को घुटनों के बल कभी भी गिरा सकते थे, यह क्यूँ कर मुमकिन हुआ? क्यों के इन दोनों समाज ने अपने बीच से लीडर चुनाऔर उसे लीडर माना, झोली भर भर कर वोट दिया, जिसका नतीजा यह हुआ के एकछत्र राज्य स्थापित किया.
अब मुस्लिमों की तरफ़ आते हैं, आज मुस्लिम समाज की हालत दलितों से भी बदतर है, सच्चर कमेटी रिपोर्ट देख लीजिये, रंगनाथन मिश्रा कमेटी रिपोर्ट पढ़ लीजिये, सत्तर सालों तक कांग्रेस ने ख़ूब जम कर हमारा इस्तेमाल किया, लेकिन हमारे लिए बनी रिपोर्ट को कूड़े में फ़ेंक दिया, उन्हें सिर्फ़ हमारे वोटों की ज़रुरत थी, जिसका फ़ायदा उन्हों ने बख़ूबी उठाया,जो भी मुस्लिम लीडर कांग्रेस में हुए वह कभी पार्टी लाइन के बाहर निकल कर मुस्लिमों की बदहाली के लिए बोल ही नहीं पाए, कियूं के उनके हाथ बंधे थे, कुछ बोलते तो कुर्सी से हाथ धोना पड़ता,इसी लिये चुप की चादर ओढ़े लंबी तान कर सोते रहे और सत्ता की मलाई चाटते रहे. मिसाल के तौर पर किशनगंज से सांसद हज़रत मौलाना असरार-उल-हक़ साहब को ही ले लीजिये, तीन तलाक़ के मुद्दे पर जब इन्हें बेबाकी से बोलना था तो बगलें झाँकने लगे, जब इनसे सवाल किया गया तो बहाने बनाने लगे, आप ग़ुलाम नबी आज़ाद का दर्द सुन और पढ़ ही चुके हैं.
मैं मिसाल के द्वारा इसे समझाता हूँ, केरल में एक पार्टी है इंडियन मुस्लिम लीग, जब इस पार्टी का गठन हुआ तब इस पर बहुत सारे इलज़ाम लगे, पाकिस्तानी और जिन्ना के वारिस तक कहा गया, लेकिन इस से पार्टी पर असर नहीं पड़ा और पार्टी ने अपनी मेहनत जारी रखी, और जिसका नतीजा यह हुआ के आज़ादी के बाद जब केरल में चुनाव हुए तो पार्टी ने कम से कम 5/8 विधायक चुन कर असेंबली पहुंचे, लेकिन मज़े की बात तो यह थी के जब चुनाव के बाद वहां किसी भी पार्टी (कांग्रेस,लेफ़्ट)को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ तो ना चाहते हुए भी दोनों पार्टी के नेता इंडियन मुस्लिम लीग के पास आये,और भीक मांगने के अंदाज़ में उनसे समर्थन माँगा.
जब के यही लोगों ने इस पार्टी पर कैसे कैसे इलज़ाम लगाए थे, लेकिन सत्ता में भागेदारी की ताक़त इसे ही कहते हैं, जिसका नतीजा यह हुआ के उनके सारे जीते हुए विधायकों को सम्मानित पद और मंत्रलाय दिया गया और आज हालात यह हैं के पार्टी केरल में विपक्ष की भूमिका में दूसरी बड़ी पार्टी है, तो यह इस वजह से मुमकिन हो सका क्योंकि कुछ लोगों ने अपनी सियासी समझ का विस्तार किया, इसकी ताक़त को समझा, जिसका नतीजा आपके सामने है.
तो मैं वही कहना चाहता हूँ के हालात की नब्ज़ को टटोलिये, ज़रूरत के वक़्त को क़ैद कर लीजिये, सियासी तौर पर ख़ुद को स्थापित कीजिये, क्योंकि जब आप सियासी तौर पर मज़बूत होंगे तभी अपनी बात इन गूंगे बहरे लोगों तक पहुंचा पाएंगे, नहीं तो दूसरी पार्टियों का झोला ढोते ढोते एक दिन कुछ लोग आपको ढो कर दो गज़ ज़मीन के नीचे डाल देंगे और आप भी कहीं गुम हो जाएंगे और वही पार्टी जिसके लिये आप अपनी जान माल की बाज़ी लगाने के लिये हमेशा तैयार रहते थे. आपके बाद आपको याद करना भी ज़रूरी नहीं समझेगी, तो अपनी आवाज़ ख़ुद बनिए, और अपनी क़यादत ख़ुद पैदा कीजिये! तभी आप इस देश में अपना हक़ मांग सकते हैं, नहीं तो रोहिंग्या मुसलमानों की हालत किसी से ढकी छुपी नहीं है, कहीं ऐसा ना हो के आप भी अगले रोहिंग्या हों….

शायद अल्लामा इक़बाल र.अ ने इसी लिए कहा था-
“उक़ाबी रूह जब बे’दार होती है जवानों में

नज़र आती है उनको अपनी मंज़िल आसमानों में”

खुर्रम मलिक
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