इस्मत चुग़ताई जो “अश्लील” कहानियां लिखती थी

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इस्मत चुगताई (Ismat Chughtai) उर्दू साहित्य में ट्रिपल “बी” की खूबियों वाली लेखिका थीं। अब आप सोच रहें होंगे यह ट्रिपल भी का क्या मतलब होता है? दरअसल, इसका मतलब है “बेबाक, बिंदास और बोल्ड।” जिस ज़माने में महिलाओं को उनके घूंघट और बुर्के की लंबाई देखकर संस्कारों वाला टैग दिया जाता था। उस समय में इस्मत संस्कारों वाले तमगो को नोच कर दकियानूसी सोच से परे, अपनी ऐसी पहचान बना चुकी थीं, जिसने उनके नाम को उर्दू साहित्य के बड़े साहित्यकारों में शामिल कर दिया।

जिस दौर में मर्द भी जिन संवेदनशील मुद्दों पर लिखने डरते थे, इस्मत ने उन्हीं विषयों पर चुटीसे, अदाज़, संजीदगी के साथ बिना किसी डर के लिखने का हिम्मत की। या यू कहें कि जुर्रूत की। इस्मत ने औरतों पर होने वाले अत्याचारों के लिए समाज से सवाल करने और उसे गुनहागार कहने में कभी खौफ महसूस नहीं किया। उनके किरदार इस दोगले समाज में अपने असितत की लड़ाई अपने ही अंदाज में लड़ती थीँ।

मुस्लिम महिलाओं के जीवन का खूबसूरत चित्रण

इस्मत ने अपनी कहानियों में मध्यवर्गीय, वंचित, निम्न वर्गीय मुस्लिम महिलाों के परिवेश को बड़ी खूबसूरती से चित्रित किया है। इस्मत अपनी कहानियों में ठेठ मुहावरेदार, गंगा-जमुनी भाषा में रचे महिला पात्र असल जिंदगी में महिलाओं की स्तिथियों के काफी करीब नजर आए। उनकी किस्सों में रोज़ाना की तकलीफे परेशानियां और दुख-दर्द की ऐसी झलकियां नजर आईं, जिनसे यह अफसाने काफी लोकप्रिय हुए।

औरतों के संघर्षों, उनकी पीड़ा और वेदनाओं ने इस्मत को इस हद आहत किया कि उन्होंने अपने किरदारों के माध्यम से महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों के लिए समाज को कटघरे में खड़ा करके आईना दिखा डाला।

इस्मक कलम की जादूगरनी थी। उन्होंने अपने किस्से कहानियों में मुस्लिम वर्ग की दबी-कुचली, संकुचाई और पीड़ित-सताई हुई महिलाओं की मानसिक स्तिथि का वर्णन बड़ी ईमानदारी से किया है। उनकी लिखावट के कद्रदान उनकी इसी तंज से भरी, बेजोड़ शैली में महिलाओं के दुख-सुख से रूबरू होते और प्यार से उन्हें “इस्मत आपा” बुलाया करते थे।

बचपन से थे विद्रोही तेवर

इस्मत चुगताई का जन्म 21 अगस्त, 1915 में उत्तर प्रदेश के बदायूं में हुआ था। इस्मत अपने पिता की दस औलादों में नौंवी बेटी थीं। इस्मत के पिता सरकारी विभाग नौकरी करते थे। सरकारी मुलाज़िम होने के कारण उनका तबादला अकसर एक शहर से दूसरे शहर होता रहता था। बड़ी बहनों की शादी हो गई।
बहनों की शादी के बाद इस्मत का बचपन अपने भाइयों के साथ हॉकी, गिल्ली-डंडा, फुटबॉल जैसे खेल कर बीता। इस्मत चुगतई कहा करती थीं कि उनका यह खेल-खेलना उनकी माँ के लिए काफी शर्मनाक था। लेकिन भाइयों की संगत में रह कर उनके तेवर भी विद्रोही हो गए थे।

बकौल इस्मत उनकी इस विद्रोही तेवर, धार पैनापन और बेबाकी के अपराधी उनके भाई थे। बचपन के इस दौर ने उनके शख्सित को बेख़ौफ़ बनाकर उभरा, परंतु अंत तक यह बेबाकी दुस्साहस और अति मुखरता में बदल गई।

आज जब महिलाएं फेमिनिज़्म की अलम्बरदार बनी हुई हैं, तब गौर करने वाली बात है कि आज़ादी के पहले इस्मत ने नारी विमर्श को साहित्य में सर्वोच्च स्थान दिया, जो उनके समय से बहुत आगे की सोच का परिचायक है।

रिश्तेदारों के विरोध के बावजूद किया बीए

रिश्तेदारों के विरोध के बाद भी इस्मत ने 1938 में लखनऊ से बीए करके फिर अलीगढ़ से शिक्षक प्रशिक्षण की डिग्री हासिल की। उनके भाई मिर्ज़ा अज़ीम बेग़ चुग़ताई भी लेखक थे। उन्होंने 1942 में मुंबई के फिल्म निर्देशक और पटकथा लेखक शाहिद लतीफ से शादी की और पति के साथ फिल्मों के लिए पटकथा और संवाद लिखने की शुरूआत की।

इन लेखकों का रहा प्रभाव

इस्मत कई लेखकों से प्रभावित थीं, जिनमें सबसे अहम नाम मंटो (Manto) का है। मंटो का जीवन भी एक लेखक के तौर पर काफी विवादस्पद रहा। पर इस्मत मंटो से काफी प्रभावित थीं। यह प्रभाव इस्मत की शैली में भी नजर आता है। इसके अलावा पश्चिमी लेखकों, ‘जी.बी. शॉ’, ‘सिगमंड फ्रायड’ और ‘डी.एच.लॉरेंस’ का भी इस्मत पर खासा प्रभाव था।

लिहाफ ने दिलाई अलग पहचान

इस्मत को साहित्यक जगत में शुरूआती दिनों में कोई खास पहचान नहीं मिली, लेकिन जब 1942 में महिला संमलैंगिकता पर आधारित कहानी ‘लिहाफ’ (Lihaf) प्रकाशित हुई, तो मानों उसने इस्मत को उर्दू अदब में उस उंचाई के मुकाम पर पहुंचा दिया, जिसे आज हम सब जानते हैं। पर ‘लिहाफ़’ के प्रकाशन के बाद ही उन्हें समाज के ठेकेदारों की कई आलोचनाएं झेलनी पड़ी। यह कहानी दो महिलाओं की कहानी है, जिनमें एक पति के प्यार से महरूम है, तो दूसरी उस महिला की दासी है। दोनों के नीरस जीवन में प्रेम का इतना अभाव है कि वह जिस्मानी तौर पर एक दूसरे के करीब आ जाती है।

कहानी को महिला समलैंगिकता के कारण बेहद अश्लील माना गया। विवादों में घिरने के बाद भी काफी मशहूर हुई। इस कहानी ने हवेलियों के जनानखानों में औरतों के बीच जिस्मानी रिश्तों की अंदररूनी हकीकत की ऐसी परते उधेड़ी कि समाज के ठेकेदारों से सहन नहीं हुआ। और इस्मत के खिलाफ अश्लीलता कहानियां लिखने का मामला दर्ज हो गया।

पितृस्ता के लिए विस्फोट की तरह था इस्मत का लेखन

प्रगतिवाद विचारों से लबरेज़ महिलाओं द्वारा झेली गयी सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और यौन समस्याओं के बारे में इस्मत का लेखन, वास्तव में यथार्थ नारीवाद था जो पितृसत्तात्मक समाज में एक विस्फोट की तरह साबित हुआ। जिस समय में इस्मत ने बेबाकी से महिलाओं के मुद्दों पर अपनी कलम चलाई, उस समय में केवल पुरूष ही नहीं बल्कि खुद महिलाएं भी औरतों को पारंपरिक नारी की छवि में देखना पसंद करती थीं।

इस्मत ने विद्रोही तेवर के साथ अपनी कहानियों के जरिए यह बताया कि भारत के पुरुष-प्रधान समाज में स्त्री की असली भावनाओं और संवेदनाओं को कभी समझने की कोशिश ही नहीं की। और न ही इससे पहले किसी महिला ने निर्भय होकर बेबाकी से अपने विचार व्यक्त नहीं किए थे। इस्मत पुरुष प्रधान समाज के दोगले रवैये का भरपूर मज़ाक उड़ाती थीं।

इस्मत की बेहतरीन रचनाएं

इस्मत का ‘टेढ़ी लकीर’ सर्वश्रेष्ठ उपन्यास माना जाता है। इस उपन्यास के लिए उन्हें ‘गालिब अवार्ड’ मिला था। ‘ज़िद्दी, मासूमा, सौदाई, जंगली कबूतर, एक कतरा-ए-खून, बहरूप नगर, बांदी और दिल की दुनिया’ जैसे कई उपन्यास इस्मत ने लिखे। इसके अलावा ‘अजीब आदमी’ उपन्यास गुरुदत्त के जीवन पर आधारित है।

इस्मत युग में समाज में मौजूद भेदभाव पर सवाल उठाने के लिए बड़े पैमाने पर लड़कियों की मजबूत परवरिश की मांग की थी। इस्मत को जानने और समकालीन प्रासंगिकता से संबंधित होने के लिए उनकी आत्मकथा ‘कागज़ी है पैरहन’ ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए।

इस्मत ने कई फिल्में के लिए भी लेखन किया। अपनी रचनाओं के लिए इस्मत को ‘पद्मश्री’, ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’, ‘इक़बाल सम्मान’, ‘मख़दूम अवार्ड’ और ‘नेहरू अवार्ड’ से नवाजा गया। इस्मत का लेखन आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना उस समय था।

उर्दू की शानदार लेखिका इस्मत ने 24 अक्टूबर, 1991 को मुंबई में दुनिया विदा ले ली। जीते जी विवादों से चोली-दामन जैसा साथ था। पर मरने के बाद भी विवादों ने उनका साथ नहीं छोड़ा, दरअसल, उनकी आखिरी इच्छा थी कि उन्हें देह को अग्नि को समर्पित कर दिया जाए और हुआ भी ऐसा ही उनके मरने के बाद मुम्बई के चन्दनबाड़ी में उनका अंतिम संस्कार किया गया, पर लोगों ने इस बात की काफी आलोचना की। पर उनकी इस अंतिम इच्छा का रहस्य उनके साथ ही चला गया। हालांकि उनके लेखन ने उन्हें हमेशा के लिए अमर बना दिया है।

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