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कोरोना वायरस, सर्विलेंस राज और राष्ट्रवादी अलगाव के ख़तरे

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हरीरी हमारे समय के विद्वान-दार्शनिक हैं, दुनिया को आर-पार देखने का हुनर रखते हैं। उन्होंने Financial Times में (लिंक) एक बेहतरीन लेख लिखा है। कोरोना फैलने के कितने दूरगामी राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक असर दुनिया भर में हो सकते हैं, इस पर इतना अच्छा कुछ और पढ़ने को नहीं मिला। हिंदी अनुवाद कर दिया है।  थोड़ा लंबा है, जब मैं घर में बैठकर टाइप कर सकता हूँ, तो आप घर बैठे पढ़ क्यों नहीं सकते?

दुनिया भर के इंसानों के सामने एक बड़ा संकट है। हमारी पीढ़ी का शायद यह सबसे बड़ा संकट है। आने वाले कुछ दिनों और सप्ताहों में लोग और सरकारें जो फ़ैसले करेंगी, उनके असर से दुनिया का हुलिया आने वाले सालों में बदल जाएगा। ये बदलाव सिर्फ़ स्वास्थ्य सेवा में ही नहीं बल्कि अर्थव्यवस्था, राजनीति और संस्कृति में भी होंगे। हमें तेज़ी से निर्णायक फ़ैसले करने होंगे। हमें अपने फ़ैसलों के दीर्घकालिक परिणामों के बारे में सचेत रहना होगा। जब हम विकल्पों के बारे में सोच रहे हों तो हमें खुद से सवाल पूछना होगा, केवल यही सवाल नहीं कि हम इस संकट से कैसे उबरेंगे, बल्कि यह सवाल भी कि इस तूफ़ान के गुज़र जाने के बाद हम कैसी दुनिया में रहेंगे। तूफ़ान गुज़र जाएगा, ज़रूर गुज़र जाएगा, हममें से ज़्यादातर ज़िंदा बचेंगे लेकिन हम एक बदली हुई दुनिया में रह रहे होंगे।
इमरजेंसी में उठाए गए बहुत सारे कदम ज़िंदगी का हिस्सा बन जाएंगे। यह इमरजेंसी की फ़ितरत है, वह ऐतिहासिक प्रक्रियाओं को फ़ास्ट फॉर्वर्ड कर देती है। ऐसे फ़ैसले जिन पर आम तौर पर वर्षों तक विचार-विमर्श चलता है, इमरजेंसी में वे फ़ैसले कुछ घंटों में हो जाते हैं। अधकचरा और ख़तरनाक टेक्ननोलॉजी को भी काम पर लगा दिया जाता है, क्योंकि कुछ न करने के ख़तरे कहीं बड़े हो सकते हैं। पूरे देश के नागरिक विशाल सामाजिक प्रयोगों के चूहों में तब्दील हो जाते हैं।  मसलन,क्या होगा जब सब लोग घर से काम करेंगे, और सिर्फ़ दूर से संवाद करेंगे? क्या होगा जब सारे शिक्षण संस्थान ऑनलाइन हो जाएंगे? आम दिनों में सरकारें, व्यवसाय और संस्थान ऐसे प्रयोगों के लिए तैयार नहीं होंगे, लेकिन यह आम समय नहीं है। संकट के इस समय में हमें दो बहुत अहम फ़ैसले करने हैं। पहला तो हमें सर्वअधिकार संपन्न निगरानी व्यवस्था (सर्विलेंस राज) और नागरिक सशक्तीकरण में से एक को चुनना है। दूसरा चुनाव हमें राष्ट्रवादी अलगाव और वैश्विक एकजुटता के बीच करना है।
महामारी को रोकने के लिए पूरी आबादी को तय नियमों का पूरी तरह पालन करना होता है। इसे हासिल करने के दो मुख्य तरीके हैं। पहला तरीका यह है कि सरकार लोगों की निगरानी करे, और जो लोग नियम तोड़े उन्हें दंडित करे। आज की तारीख़ में मानवता के इतिहास में टेक्नोलॉजी ने इसे पहली बार संभव बना दिया है कि हर नागरिक की हर समय निगरानी की जा सके। 50 साल पहले रूसी खुफिया एजेंसी केजीबी 24 करोड़ सोवियत नागरिकों की 24 घंटे निगरानी नहीं कर पाती थी। केजीबी इंसानी एजेंटों और विश्लेषकों पर निर्भर थी, और हर आदमी के पीछे एक एजेंट लगाना संभव नहीं था। अब इंसानी जासूस की ज़रूरत नहीं, हर जगह मौजूद सेंसरों, एल्गोरिद्म और कैमरों पर सरकारें निर्भर कर सकती हैं।
कोरोना वायरस का मुकाबला करने के लिए बहुत सारी सरकारों ने निगरानी के नए उपकरण और व्यवस्थाएं लागू कर दी हैं। इसमें सबसे खास मामला चीन का है। लोगों के स्मार्टफ़ोन को गहराई से मॉनिटर करके, लाखों-लाख कैमरों के ज़रिए, चेहरे पहचानने वाली टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करके, लोगों के शरीर का तापमान लेकर, बीमार लोगों की रिपोर्टिंग को सख्त बनाकर संक्रमित लोगों की पहचान की गई। यही नहीं, उनके आने-जाने को ट्रैक किया गया ताकि पता लग सके कि वे किन लोगों से मिले-जुले हैं। ऐसे मोबाइल ऐप भी हैं जो संक्रमण की आशंका वाले लोगों की पहचान करके नागरिकों को आगाह करते रहते हैं कि उनसे दूर रहें।
ऐसी टेक्नोलॉजी चीन तक ही सीमित नहीं है। इज़राइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू ने कोराना संक्रमण रोकने के लिए उस तकनीक को लगाने का आदेश दिया है जिसे अब तक सिर्फ़ आतंकवाद के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया जा रहा था। जब संसदीय समिति ने इसकी अनुमति देने से इनकार किया तो नेतन्याहू ने उन्हें दरकिनार करते हुए इमरजेंसी पावर के ज़रिए क्लियरेंस दे दी।
आप कह सकते हैं कि इसमें नया कुछ भी नहीं है। हाल के वर्षों में सरकारें और बड़ी कंपनियां लोगों को ट्रैक, मॉनिटर और मैनिप्युलेट करने के लिए अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करती रही हैं। लेकिन अगर हम सचेत नहीं हुए तो यह महामारी सरकारी निगरानी के मामले में एक मील का पत्थर साबित होगी। उन देशों में ऐसी व्यापक निगरानी व्यवस्था को लागू करना आसान हो जाएगा जो अब तक इससे इनकार करते रहे हैं। यही नहीं, यह ‘ओवर द स्किन’ निगरानी की जगह ‘अंडर द स्किन’ निगरानी में बदल जाएगा।
अब तक तो यह होता है कि जब आपकी ऊँगली स्मार्टफ़ोन से एक लिंक पर क्लिक करती है तो सरकार जानना चाहती है कि आप क्या देख-पढ़ रहे हैं। लेकिन कोरोना वायरस के बाद अब इंटरनेट का फ़ोकस बदल जाएगा। अब सरकार आपकी ऊँगली का तापमान और चमड़ी के नीचे का ब्लड प्रेशर भी जानने लगेगी।
सर्विलेंस के मामले में दिक्कत यही है कि हममें से कोई पक्के तौर पर नहीं जानता कि हम पर किस तरह की निगरानी रखी जा रही है, और आने वाले वर्षों में उसका रूप क्या होगा। सर्विलेंस टेक्नोलॉजी तूफ़ानी रफ़्तार से आगे बढ़ रही है, दस साल पहले तक जो साइंस फ़िक्शन की बात लगती थी, वह आज पुरानी खबर है। सोचने की सुविधा के लिए मान लीजिए कि कोई सरकार अपने नागरिकों से कहे कि सभी लोगों को एक बायोमेट्रिक ब्रेसलेट पहनना अनिवार्य होगा जो शरीर का तापमान और दिल की धड़कन को 24 घंटे मॉनिटर करता रहेगा। ब्रेसलेट से मिलने वाला डेटा सरकारी एल्गोरिद्म में जाता रहेगा और उसका विश्लेषण होता रहेगा। आपको पता लगे कि आप बीमार हैं, इससे पहले सरकार को मालूम होगा कि आपकी तबीयत ठीक नहीं है। सिस्टम को यह भी पता होगा कि आप कहाँ-कहाँ गए, किस-किस से मिले, इस तरह संक्रमण की चेन को छोटा किया जा सकेगा, या कई बार तोड़ा जा सकेगा। इस तरह का सिस्टम किसी संक्रमण को कुछ ही दिनों में खत्म कर सकता है, सुनने में बहुत अच्छा लगता है, है न?
अब इसके ख़तरे को समझिए, यह एक खौफ़नाक सर्विलेंस राज की शुरूआत करेगा। मिसाल के तौर पर, अगर किसी को यह पता हो कि मैंने फ़ॉक्स न्यूज़ की जगह सीएनएन के लिंक पर क्लिक किया है तो वह मेरे राजनीतिक विचारों और यहाँ तक कि कुछ हद तक मेरे व्यक्तित्व को समझ पाएगा। लेकिन अगर आप एक वीडियो क्लिप देखने के दौरान मेरे शरीर के तापमान, ब्लड प्रेशर और हार्ट रेट को मॉनिटर कर रहे हों तो आप जान सकते हैं कि मुझे किन बातों पर गुस्सा, हँसी या रोना आता है।
यह याद रखना चाहिए कि गुस्सा, खुशी, बोरियत और प्रेम एक जैविक प्रक्रिया हैं, ठीक बुख़ार और खांसी की तरह। जो टेक्नोलॉजी खांसी का पता लगा सकती है, वही हँसी का भी। अगर सरकारों और बड़ी कंपनियों को बड़े पैमाने पर हमारा डेटा जुटाने की आज़ादी मिल जाएगी तो वे हमारे बारे में हमसे बेहतर जानने लगेंगे। वे हमारी भावनाओं का अंदाज़ा पहले ही लगा पाएंगे, यही नहीं, वे हमारी भावनाओं से खिलवाड़ भी कर पाएंगे, वे हमें जो चाहें बेच पाएंगे–चाहे वह एक उत्पाद हो या कोई नेता। बायोमेट्रिक डेटा हार्वेस्टिंग के बाद कैम्ब्रिज एनालिटिका पाषाण युग की टेक्नोलॉजी लगने लगेगी। कल्पना कीजिए, उत्तर कोरिया में 2030 तक हर नागरिक को बायोमेट्रिक ब्रेसलेट पहना दिया गया है। महान नेता का भाषण सुनने के बाद जिनका ब्रेसलेट बताएगा कि उन्हें गुस्सा आ रहा था, उनका तो हो गया काम तमाम।
आप कह सकते हैं कि बायोमेट्रिक सर्विलेंस इमरजेंसी से निबटने की एक अस्थायी व्यवस्था होगी। जब इमरजेंसी खत्म हो जाएगी तो इसे हटा दिया जाएगा, लेकिन अस्थायी व्यवस्थाओं की एक गंदी आदत होती है कि वे इमरजेंसी के बाद भी बने रहते हैं, वैसे भी नई इमरजेंसी का ख़तरा बना रहता है। मिसाल के तौर पर मेरे अपने देश इसराइल में 1948 में आज़ादी की लड़ाई के दौरान इमरजेंसी लगाई गई थी, जिसके तहत बहुत सारी अस्थायी व्यवस्थाएँ की गई थीं, प्रेस सेंसरशिप से लेकर पुडिंग बनाने के लिए लोगों की ज़मीन ज़ब्त करने को सही ठहराया गया था। जी, पुडिंग बनाने के लिए, मैं मज़ाक नहीं कर रहा। आज़ादी की लड़ाई कब की जीती जा चुकी है, लेकिन इसराइल ने कभी नहीं कहा कि इमरजेंसी खत्म हो गई है। 1948 के अनेक ‘अस्थायी क़दम’ अब तक लागू हैं, उन्हें हटाया नहीं गया। शुक्र है कि 2011 में पुडिंग बनाने के लिए ज़मीन छीनने का विधान खत्म किया गया।
जब कोरोना वायरस का संक्रमण पूरी तरह खत्म हो जाएगा तो भी डेटा की भूखी सरकारें बायोमेट्रिक सर्विलेंस को हटाने से इनकार कर सकती हैं, सरकारों की दलील हो सकती है कि कोरोना वायरस का दूसरा दौर आ सकता है, या अफ्रीका में इबोला दोबारा फैल रहा है, या कुछ और…आप समझ सकते हैं। हमारी निजता को लेकर एक बहुत ज़ोरदार लड़ाई पिछले कुछ सालों से छिड़ी हुई है। कोरोना वायरस का संक्रमण इस लड़ाई का निर्णायक मोड़ हो सकता है, जब लोगों को निजता और स्वास्थ्य में से एक को चुनना पड़ा तो ज़ाहिर है कि वे स्वास्थ्य को चुनेंगे।
दरअसल, लोगों से सेहत और निजता में से एक को चुनने के लिए कहना ही समस्या की जड़ है क्योंकि ये सही नहीं है। हम निजता और सेहत दोनों एक साथ पा सकते हैं। हम सर्वअधिकार संपन्न निगरानी व्यवस्था को लागू करके नहीं, बल्कि नागरिकों के सशक्तीकरण के ज़रिए कोरोना वायरस का फैलना रोक सकते हैं। हाल के सप्ताहों में कोरोना वायरस का फैलाव रोकने के मामले में दक्षिण कोरिया, ताइवान और सिंगापुर ने अच्छी मिसालें पेश की हैं। इन देशों ने कुछ ट्रैकिंग एप्लीकेशनों का इस्तेमाल तो किया है लेकिन उन्होंने व्यापक पैमाने पर टेस्ट कराए हैं, ईमानदारी से जानकारी दी है, सजग जनता के ऐच्छिक सहयोग पर निर्भर कर रहे हैं।
केंद्रीकृत निगरानी, और कड़ी सज़ा एक उपयोगी दिशा-निर्देश को लागू कराने के लिए ज़रूरी नहीं हैं। जब लोगों वैज्ञानिक तथ्य बताए जाते हैं, जब लोग यकीन करते हैं कि अधिकारी सच बोल रहे हैं, तो अपने-आप सही क़दम उठाते हैं, बिग ब्रदर की घूरती निगाहों की ज़रूरत नहीं होती। अपनी प्रेरणा से सजग जनसंख्या जब कोई काम करती है तो वह अधिक प्रभावी होता है, न कि पुलिस के ज़ोर पर उदासीन जनता से कराया गया प्रयास।
मिसाल के तौर पर, साबुन से हाथ धोना। यह मानव के साफ़-सफ़ाई के इतिहास की एक बड़ी तरक्की है। यह साधारण काम हर साल लाखों जानें बचाता है, अब तो हम इसे आम बात मानते हैं लेकिन 19वीं सदी के वैज्ञानिकों ने साबुन से हाथ धोने की अहमियत को ठीक से समझा, उससे पहले तक डॉक्टर और नर्स भी एक ऑपरेशन के बाद, दूसरा ऑपरेशन करते थे, बिना हाथ धोए. आज अरबों लोग रोज़ साबुन से हाथ धोते हैं, इसलिए नहीं कि उन्हें पुलिस का डर है, बल्कि वे तथ्यों को समझते हैं। मैंने बैक्टीरिया और वायरस के बारे में सुना है इसलिए मैं साबुन से हाथ धोता हूँ, मैं जानता हूँ कि साबुन उन बीमार करने वाले जीवाणुओं और विषाणुओं को खत्म कर देता है।
लोग बात मानें और सहयोग करें इसके लिए विश्वास बहुत ज़रूरी है। लोगों का विज्ञान में विश्वास होना चाहिए, सरकारी अधिकारियों में विश्वास होना चाहिए, और मीडिया में विश्वास होना चाहिए। पिछले कुछ सालों में गैर-जिम्मेदार नेताओं ने जान-बूझकर विज्ञान, सरकारी संस्थाओं और मीडिया से जनता का विश्वास डिगाया है। ये ग़ैर-ज़िम्मेदार नेता अधिनायकवाद का रास्ता अपनाने को लालायित हैं, उनकी दलील होगी कि जनता सही काम करेगी इसका यकीन नहीं किया जा सकता।
आम तौर पर जो विश्वास वर्षों में टूटा है वह रातोरात कायम नहीं होता लेकिन यह आम समय नहीं है। संकट के समय दिमाग बहुत जल्दी बदल जाता है। आपका अपने भाई-बहनों के साथ बुरी तरह झगड़ा होता है लेकिन संकट के समय आप अचानक महसूस करते हैं कि दोनों के बीच कितना स्नेह और विश्वास है, आप मदद के लिए तैयार हो जाते हैं। एक सर्विलेंस राज बनाने की जगह, विज्ञान, सरकारी संस्थानों और मीडिया में जनता के विश्वास को बहाल करने के लिए काम होना चाहिए। हमें नई टेक्नोलॉजी का पक्के तौर पर इस्तेमाल करना चाहिए लेकिन इनसे नागरिकों को ताकत मिलनी चाहिए। मैं अपने शरीर का ताप और ब्लड प्रेशर मापे जाने के पक्ष में हूँ, लेकिन उस डेटा का इस्तेमाल सरकार को सर्वशक्तिमान बनाने के लिए हो, इसके पक्ष में नहीं हूँ। डेटा का इस्तेमाल मैं सजग निजी फ़ैसलों के लिए करूँ, और सरकार को उसके फ़ैसलों के लिए भी ज़िम्मेदार ठहरा सकूँ।
अगर मैं अपने सेहत की 24 घंटे निगरानी करूँगा तो मैं समझ पाऊँगा कि कब मैं दूसरों के लिए खतरा बन गया हूँ, और ठीक होने के लिए मुझे क्या करना चाहिए, कैसी आदतें सेहत के लिए अपनानी चाहिए। अगर कोरोना वायरस के फैलाव के बारे में मैं विश्वसनीय आंकड़ों को पा सकूँगा और उनका विश्लेषण कर सकूँगा तो मैं निर्णय कर पाऊंगा कि सरकार सच बोल रही है या नहीं, और महामारी से निबटने के लिए सही तरीके अपना रही है या नहीं। जब भी हम निगरानी व्यवस्था की बात करते हैं तो याद रखिए कि उसी टेक्नोलॉजी से सरकार की भी निगरानी हो सकती है, जिससे जनता की होती है।
कोरोना वायरस का फैलाव नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों का बड़ा इम्तहान है। आने वाले दिनों में हम सभी को वैज्ञानिक डेटा और स्वास्थ्य विशेषज्ञों पर विश्वास करना चाहिए, न कि बेबुनियाद कहानियों और अपना उल्लू सीधा करने में लगे नेताओं की बातों पर। अगर हमने सही फ़ैसले नहीं किए तो हम अपनी सबसे कीमती आज़ादियाँ खो देंगे, हम ये मान लेंगे कि अपनी सेहत की रक्षा करने के लिए यही सही फ़ैसला है।
अब दूसरा अहम चुनाव, जो हमें राष्ट्रवादी अलगाव और वैश्विक एकजुटता के बीच करना है। यह महामारी और उसका अर्थव्यवस्थाओं पर असर एक वैश्विक संकट है। ये संकट वैश्विक सहयोग से ही मिटाया जा सकेगा। सबसे पहले तो वायरस से निबटने के लिए दुनिया भर के देशों को सूचना का आदान-प्रदान करना होगा। यही बात इंसानों को वायरसों को ऊपर बढ़त दिला सकती है। अमरीका का कोरोना वायरस और चीन का कोरोना वायरस इस बात पर सोच-विचार नहीं कर सकते कि लोगों के शरीरों में कैसे घुसा जाए। लेकिन चीन अमरीका को कुछ उपयोगी बातें बता सकता है, इटली में मिलान का डॉक्टर सुबह जो जानकारी पाता है, वह शाम तक तेहरान में लोगों की जान बचा सकती है। कई नीतियों को लेकर अगर ब्रिटेन की सरकार असमंजस में है तो वह कोरिया की सरकार से बात कर सकती है जो करीब एक महीने पहले ऐसे ही दौर से गुज़रे हैं। लेकिन ऐसा होने के लिए वैश्विक बंधुत्व और एकजुटता की भावना होनी चाहिए।
देशों को खुलकर जानकारियों का लेन-देन करना होगा, विनम्रता से सलाह माँगनी होगी, और जो कुछ दूसरे देंगे उस पर विश्वास करने लायक माहौल बनाना होगा। मेडिकल किट के उत्पादन और वितरण के लिए वैश्विक स्तर पर प्रयास करने होंगे। अपने देश में ही उत्पादन करने, और उपकरणों को जमा करने की कोशिश की जगह, समन्वय के साथ किया गया वैश्विक प्रयास अधिक कारगर होगा. जैसे कि लड़ाइयों के समय दुनिया के देश अपने उद्योगों का राष्ट्रीयकरण कर देते हैं, वैसे कोरोना वायरस से लड़ाई के दौरान ज़रूरी चीजों के उत्पादन को हमें राष्ट्रीय की जगह, मानवीय बनाना चाहिए। एक अमीर देश जहाँ कोरोना संक्रमण कम है, उसे ऐसे देशों में उपकरण भेजने चाहिए जहाँ संक्रमण के मामले ज़्यादा हैं। ऐसी ही कोशिश डॉक्टरों की तैनाती के मामले में भी होनी चाहिए।
अर्थव्यवस्थाओं को संभालने के लिए भी एक वैश्विक नीति बननी चाहिए, हर देश अपने हिसाब से चलेगा तो संकट और गहराता जाएगा। इसी तरह यात्राओं को लेकर एक सहमति बननी चाहिए, लंबे समय तक यात्रा पर पूरी तरह रोक से बहुत नुकसान होगा, कोरोना के खिलाफ़ लड़ाई भी कमज़ोर होगी क्योंकि वैज्ञानिकों, डॉक्टरों और सप्लाई को भी दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने में जाना होगा। प्री-स्क्रीनिंग के साथ यात्राओं को शुरू करने पर सहमति बनाई जा सकती है।
लेकिन अफ़सोस कि इनमें से कुछ भी नहीं हो रहा है, दुनिया भर की सरकारें एक सामूहिक लकवे की सी हालत में हैं। दुनिया के सबसे अमीर सात देशों के नेताओं की बैठक अब जाकर पिछले हफ्ते टेली-कॉन्फ़्रेंसिंग से हुई है जिसमें ऐसा कोई प्लान सामने नहीं रखा गया जिससे दुनिया के देश एकजुट होकर कोरोना से लड़ सकें।
2008 के आर्थिक संकट और 2014 में इबोला फैलने पर अमरीका ने ग्लोबल लीडर की भूमिका निभाई थी, लेकिन इस बार अमरीकी नेतृत्व ने यह काम टाल दिया है, ऐसा लग रहा है कि मानवता के भविष्य से अधिक चिंता ग्रेटनेस ऑफ़ अमेरिका की है। मौजूदा नेतृत्व ने अपने सबसे निकट साझीदारों को भी छोड़ दिया है। यूरोपीय संघ के साथ कोई सहयोग नहीं हो रहा और जर्मनी के साथ टीके को लेकर अजीब स्कैंडल खड़ा हो गया।
हमें चुनना है कि हम वैश्विक एकजुटता की तरफ़ जाएंगे या राष्ट्रवादी अलगाव की तरफ़। अगर हम राष्ट्रवादी अलगाव को चुनेंगे, तो यह संकट अधिक नुकसान करके देर से टलेगा, और भविष्य में भी ऐसे संकट आते रहेंगे। लेकिन हम वैश्विक एकजुटता को चुनते हैं तो यह कोरोना के ख़िलाफ़ हमारी बड़ी जीत तो होगी ही, साथ ही हम भविष्य के संकटों से निबटने के लिए मज़बूत होंगे, ऐसे संकट जो 21वीं सदी में धरती से मानव जाति का अस्तित्व ही मिटा सकते हैं।

नोट : यह लेख, लेखक की फ़ेसबुक वाल से लिया गया है