एक समान्य सी प्रचलित कहावत है, जो इन्सान अच्छा होता है उसको ईश्वर उसके भाग्य में समय ही कम लिखते है. ऐसा ही थे बिरसा मुंडा. एक नौजवान जो एक छोटी अवधि के लिए जिए, पर जिए उतना जबर जिए. 25 वर्ष के जीवन में उन्होंने इतने मुकाम हासिल कर लिए थे कि आज भी भारत की जनता उन्हें याद करती है और भारतीय संसद में एकमात्र आदिवासी नेता बिरसा मुंडा का चित्र लगा हुआ है. जब देश में अंग्रेजों के खिलाफ जन चेतना का प्रसार हो रहा था, उस समय बिरसा ने आदिवासी जनजातियों को जागरूक किया. उनको अपने हक के लिए लड़ना सिखाया. भारत में रांची और सिंहभूमि के आदिवासी बिरसा मुंडा को अब ‘बिरसा भगवान’ कहकर याद करते है उनके द्वारा चलाया जाने वाला सहस्राब्दवादी आंदोलन ने बिहार और झारखंड में खूब छाप छोड़ी.
कौन थे बिरसा मुंडा
बिरसा 1875 ई. में झारखण्ड राज्य के रांची के उलीहातु गाँव में जन्मे. इनके पिता ‘सुगना मुंडा’ थे. उन्होंने कुछ दिन तक ‘चाईबासा’ के जर्मन मिशन स्कूल में शिक्षा ग्रहण की. परन्तु स्कूलों में उनकी आदिवासी संस्कृति का जो उपहास किया जाता था, वह बिरसा को नागवार गुजरा. जब बिरसा ने प्रतिक्रियावादी रुख अपनाया तो, बिरसा को स्कूल से निकाल दिया.
किसानों के हक में आवाज उठाने वाले
बिरसा मुंडा ने किसानों का शोषण करने वाले ज़मींदारों के विरुद्ध संघर्ष की प्रेरणा भी लोगों को दी. यह देखकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें लोगों की भीड़ जमा करने से रोका. बिरसा का कहना था कि मैं तो अपने कर्तव्य का पालन कर रहा हूँ. इस पर पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार करने का प्रयत्न किया लेकिन गांव वालों ने उन्हें छुड़ा लिया. शीघ्र ही वे फिर गिरफ़्तार करके दो वर्ष के लिए हज़ारीबाग़ जेल में डाल दिये गये. बाद में उन्हें इस चेतावनी के साथ छोड़ा गया कि वे कोई प्रचार नहीं करेंगे.
टीम वर्क
परन्तु बिरसा पीछे हटने वालों में नहीं थे. जेल से छूटने के बाद उन्होंने अपने अनुयायियों की संगठित टीम तैयार की . और जन चेतना और जन कल्याण के कार्यों में लग गये नए युवक भी भर्ती किये गए। इस पर सरकार ने फिर उनकी गिरफ़्तारी का वारंट निकाला, किन्तु बिरसा मुंडा पकड़ में नहीं आए. इस बार का आन्दोलन बलपूर्वक सत्ता पर अधिकार के उद्देश्य को लेकर आगे बढ़ा. यूरोपीय अधिकारियों और पादरियों को हटाकर उनके स्थान पर बिरसा के नेतृत्व में नये राज्य की स्थापना का निश्चय किया गया.
बिरसा का अभियान
1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया. अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूंटी थाने पर धावा बोला. 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियां हुईं.
तब बिरसा अंग्रेज़ों के विरुद्ध विद्रोह करने की घोषणा करते हुए कहा कहा “हम ब्रिटिश शासन-तन्त्र के खिलाफ विद्रोह की घोषणा करते हैं और कभी अंग्रेज़़ी हुकूमत के आदेशों का पालन नही करेंगे, ओ गोरी चमड़ी वाले अंग्रेजों, तुम्हारा हमारे देश में क्या काम? छोटा नागपुर सदियों से हमारा है और तुम इसे हमसे छीन नहीं सकते इसलिए बेहतर है कि वापस अपने देश लौट जाओ वरना लाशों के ढेर लगा दिए जायेंगे”. इस घोषणा को एक घोषणा पत्र में अंग्रेज़ों के पास भेजा गया तो अंग्रेज़ों ने अपनी सेना बिरसा को पकड़ने के लिए रवाना कर दी. बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारी भी हुई थी. अंत में स्वयं बिरसा 3 फरवरी, 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ़्तार हुए.
और अंत में बिरसा मुंडा सही मायने में पराक्रम और सामाजिक जागरण के धरातल पर तत्कालीन युग के एकलव्य और स्वामी विवेकानंद थे. ब्रिटिश हुकूमत ने इसे खतरे का संकेत समझकर बिरसा मुंडा को गिरफ्तार करके जेल तक में डाला. कहते है कि वहां अंग्रेजों ने उन्हें धीमा जहर दिया था. जिस कारण वे 9 जून 1900 को शहीद हो गए. बिरसा मुंडा की गणना आज भी महान देशभक्तों में की जाती है. “बाद में इन्हीं की जयंती पर सन 2000 में झारखण्ड राज्य की स्थापना हुई.