क्या कोरोना से लड़ाई में सरकार द्वारा उठाए गए क़दम काफ़ी हैं ?

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कोरोना को फैलने से रोकने के लिए सरकार ने आपके हित में कुछ नियम बनाए हैं। उन्हें पढ़िए और कल्पना कीजिए कि ये नियम कितने मुश्किल हैं और क्या इनका पालन किया जा सकता है। आप जानते हैं कि लाखों गरीबों को अचानक लॉक डाउन के कारण छोटे-छोटे कमरों में बिना भोजन (चार बार स्वास्थ्यकर तो शायद ही किसी को मिल रहा हो) रहना पड़ रहा है। वे चाहते हैं कि मरने से पहले अपने करीबियों के पास पहुंच जाएं पर इसकी व्यवस्था नहीं हो रही है। अभी तक संभव नहीं हुआ है। यह आश्वासन भी नहीं है कि मरेंगे नहीं। जिस हालत में वे रह रहे हैं वहां इस मानक प्रक्रिया का पालन तो नहीं ही हो रहा है। ऐसे में अगर सरकार को प्रक्रिया का पालन कराना है तो बंदी और पैसे चाहिए इसलिए आगे बढ़ो काम करो। कैसे करोगे बाद में पूछना। गजब हाल है।

इन नियमों को पढ़िए और देखिए इनका पालन कितना संभव है। और ऐसे काम होगा तो कोई कैसे व्यवसाय या नौकरी कर पाएगा। सार्वजनिक परिवहन प्रणाली चालू होने पर तो लोग कैसे-कैसे कार्यस्थल पर पहुंचते थे अब एक कार में दो लोग से ज्यादा नहीं बैठेंगे, दुपहिए पर अकेले चलना है। ठीक है कि यह सब हमारे लिए ही है पर बिना खाए मरने और कोरोना से मरने में मरने वाले के लिए क्या फर्क है। सरकार के लिए गिनती अलग जरूर खानों में जाएगी। सबसे दिलचस्प है, बीमा कराना जरूरी है और वह भी नियोक्ता कराएगा। सरकार वोट लेने के लिए टैक्स के पैसों से गरीबों अनपढ़ों का बीमा कराएगी आपका बीमा आपका नियोक्ता कराएगा और नौकरी नहीं करते या नियोक्ता हैं तो जय श्रीराम।

यह प्रक्रिया सभी औद्योगिक और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों, कार्यस्थलों, दफ्तरों आदि के है लिए है। काम शुरू करने से पहले निम्नलिखित का पालन करने की व्यवस्था की जानी है। निवास स्थानों के लिए अलग नियम नहीं होना चाहिए वायरस तो घर और दफ्तर में अंतर नहीं करेगा फिर भी। जो भी करना है वह आपको, आपके नियोक्ता को करना है। सरकार सिर्फ टैक्स लेने और जरूरत पड़े तो पीएम केयर्स में दान लेने, नियम बनाने के लिए है। जरूरी नहीं है कि नियम व्यावहारिक हो या वह खुद उसका अनुपालन कर पाए या कराए। लिफ्ट में दो या चार (साइज पर निर्भर) ही लोग चलेंगे और लिफ्ट के इंतजार में पांच से ज्यादा लोग खड़े नहीं हो सकते। दूर-दूर खड़े होंगे। अब लिफ्ट लॉबी अचानक कैसे बड़ी हो जाएगी?

किसी भी गाड़ी में लोग भर कर नहीं चलेंगे। 30-40 प्रतिशत ही रहेंगे। यानी किसी कारखाने की बस से जिसकी क्षमता 50 लोगों की है एक साथ 15-17 लोग ही आएंगे। बाकी लोगों के लिए बस कितने चक्कर लगाए और सब अलग-अलग समय पर पहुंचे ड्राइवर के काम के घंटे आदि के बारे में पता नहीं। एक साथ सबको ला ही नहीं सकते। जो संस्थान अपने कर्मचारियों के लिए पहले वाहन की व्यवस्था नहीं करता था वह अब कैसे कहां से करे। खर्च कहां से पूरा करेगा। जो 15-17 लोग एक साथ बस से आएंगे वो सैनिटाइज करके ही अंदर घुसेंगे। इसके लिए पर्याप्त मात्रा में सैनिटाइजर या हाथ धोने की व्यवस्था। सभी कर्मचारियों की थर्मल स्कैनिंग जरूरी है। और ये लोग पांच से ज्यादा खड़े नहीं हो सकते दूर-दूर खड़े होंगे। जिन गाड़ियों में लोग आएंगे उन्हें भी सैनिटाइज किया जाना चाहिए।

कार्य स्थल पर पालियों के बीच में एक घंटे का अंतर होना चाहिए। तीन पाली में तीन घंटे बढ़ तो नहीं सकते घट जाएंगे। आने-जाने में लगने वाले समय से लेकर प्रवेश करने के समय की आवश्यक जांच और बहुमंजिली इमारत में ऊपर पहुंचने तक काम करने के लिए समय कम ही बचेगा। थर्मल स्कैनिंग में तापमान ज्यादा पाया गया तो काम नहीं करना है पर दिहाड़ी मिलेगी कि नहीं … कर्मचारियों का बीमा भी कराना है। इलाज नहीं … जय श्री राम। कायदे से सेंट्रलाइज एसी नहीं चलाना चाहिए। नियम मुझे नहीं पता। लेकिन दिल्ली की गर्मी में आदमी तो बिना एसी काम कर लेगा कंप्यूटर करेंगे कि नहीं यह अब पता चलेगा।

जब यह सब करना था

यह सब तब हो रहा है जब शुरू में कोरोना प्रभावित देशों से लोगों को ढो-ढो कर लाया गया। उसका प्रचार आपको याद ही होगा। पता नहीं उनमें कितनों को किस आधार पर अलग रखा गया था। और उसकी कामयाबी का क्या हुआ? उसका वीडियो भी घूम रहा था – सरकार ने क्या अच्छी व्यवस्था की है। और सब करने के बाद अब ये हाल कैसे और क्यों है? कोई बता नहीं सकता है। ना बताया जाएगा। सरकार ने जरूर कहा है कि जांच शुरू हो गई थी पर चीन से आने वालों की जांच 21 जनवरी को ही शुरू हुई थी और उनकी सिर्फ थर्मल स्क्रीनिंग हो रही थी यानी तापमान देखा जा रहा था। वह भी सिर्फ सात हवाई अड्डों पर। जनवरी के अंत में इसे बढ़ाकर 20 हवाई अड्डों पर किया गया। फरवरी में इसका विस्तार दूसरे देशों से आने वालों तक किया गया। फरवरी के दौरान बहुत कम मामले मिले।

शशि थरूर ने कहा था कि संक्रमित लोग (थर्मल) स्क्रीनिंग के बावजूद आ सकते हैं। उन्होंने चिन्ता जताई थी कि कोई देशव्यापी निगराणी की व्यवस्था नहीं है। जांच करने की संरचना अपर्याप्त है (जो अभी तक है) और जनता में जागरूकता नहीं के बराबर है। यह सब राहुल गांधी के ट्वीट के बावजूद है। राजनीति ने उन्हें पप्पू बना रखा है और कोविड-19 असली पप्पू को सामने ला रहा है। मीडिया के बावजूद। दूसरे देशों को छोड़िए, चीन के वुहान से शुरू हुई यह महामारी हांगकांग में नहीं फैली क्योंकि कार्रवाई शुरू में ही कर दी गई थी। उल्टे जब यह मान लिया गया कि सब ठीक है और लॉक डाउन में छूट दी गई तो मामले बढ़ गए। भारत में क्या होगा अभी कुछ नहीं कहा जा सकता है पर सरकार जिस ढंग से लाचार और किंकर्तव्यविमूढ़ नजर आ रही है उससे स्थिति बहुत ही डरावनी और निराशाजनक लग रही है।

विकीपीडिया के अनुसार भारत ने एक फरवरी से विदेशों में फंसे भारतीयों का बचाव शुरू कर दिया था। और वुहान से ही 324 लोग लाए गए थे। दो फरवरी को फिर 323 लोग लाए गए। इनमें सात मलदीव के थे। 27 फरवरी को फिर 112 लोग वुहान से लाए गए। इनमें 36 विदेशी थे। 10 मार्च को ईरान से 58 लोग लाए गए। 11 मार्च को फिर ईरान से ही 44 लोग लाए गए। 11 मार्च को इटली से 83 लोग लाए गए। इनमें 74 भारतीय थे और 9 अमेरिकी। 15 मार्च को फिर इटली से 218 लोग लाए गए। इन सभी लोगों को छावला स्थित आईटीबीपी के कैम्प में रखा गया। और 14 दिन के लिए क्वारंटाइन किया गया। बाद में 234 भारतीय इरान से लाए गए। इन्हें भारतीय सेना के वेलनेस सेंटर में क्वारंटाइन किया गया जो जैसलमेर में है। 16 मार्च को ईरान के तेहरान और सिराज शहरों से 53 भारतीय लाए गए। इन्हें भी जैसलमर में क्वारंटाइन किया गया। 22 मार्च को 263 भारतीय इटली के रोम से लाए गए और इन्हें आईटीबीपी के कैम्पमें क्वारंटाइन किया गया। सेवा विमानों को रोक दिए जाने के बाद 29 मार्च को 275 भारतीय विमान से जोधपुर पहुंचे। इन्हें प्राथमिक स्क्रीनिंग के बाद वहीं क्वारंटाइन किया गया।

इससे दो बातें स्पष्ट हैं। विदेश या कोरोना संक्रमित देशों से आने वालों को क्वारंटाइन करने का काम 15 मार्च से शुरू किया गया। पहले आए लोगों को क्वारंटाइन करने की कोई खबर मुझे नहीं मिली। विकीपीडिया ने भी 15 मार्च और उसके बाद वालों के बारे में लिखा है। अगर पहले किया गया होता तो भारत सरकार को उसे ठीक करा लेना चाहिए था। दूसरे दिल्ली के बाद जैसलमेंर और जोधपुर में क्वारंटाइन करने का मतलब है कि दिल्ली में यही व्यवस्था थी या है। कोई दूसरी व्यवस्था होती तो उसकी चर्चा होती। मैंने नहीं सुनी। साफ है कि कोरोना प्रभावित लोगों को भारत आने दिया गया और लोगों के बीच जाने दिया गया बिना जांच, बिना क्वारंटाइन। आपको याद होगा महाराष्ट्र ने सबसे पहले क्वारंटाइन किए जाने वाले लोगों के हाथ पर ठप्पा लगाना शुरू किया था और उन्हें अलग रहने के लिए कह कर छोड़ दिया गया था। दूसरी जगह यह भी नहीं हुआ। इससे बेहतर की तो कोई खबर नहीं है।

मेरे एक परिचित की बेटी 17 मार्च को लंदन से आई। आरडब्लूए वालों ने उसे जबरन क्वारंटाइन कराने की कोशिश की। गाजियाबाद के क्वारंटाइन केंद्रों की हालत तो बाद में पता चली पर 25 मार्च को रात में 19 साल की लड़की को लेने आई सरकारी व्यवस्था में कोई महिला नहीं थी। चूंकि आरडब्ल्यूए वाले उसे बिल्डिंग से बाहर भेजने पर आमादा थे सो पुलिस भी बुला ली गई। पर उस लड़की को ले जाने के लिए कोई महिला (सिपाही) नहीं मिली। और वह लड़की जबरन क्वारंटाइन होने से बच गई। मोहल्ले वाले को डर था कि पड़ोसी को खांसी आ रही है और वह इसी कारण है। सबको मौत का डर सता रहा था। मैंने सारे नियम चेक कर लिए मुझे ऐसा कोई संकेत नहीं मिला कि जो थर्मल स्क्रीनिंग में पास हो गया उससे क्वारंटाइन होने के लिए कहा गया है। लंदन में पढ़ने वाली लड़की को भी ऐसा कोई निर्देश समझ में नहीं आया था।

स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों द्वारा जबरन क्वारंटाइन कर दिए जाने और आरडब्ल्यूए के दबाव पर उन्होंने निजी केंद्र से जांच कराना चाहा तो कहा गया कि डॉक्टर का प्रेसक्रिप्शन जरूरी है। यह 25 मार्च की बात है। लंदन से आए नागरिक के मामले में। ठीक है कि सागरी बाटला संक्रमित नहीं थी पर डॉक्टर की पर्ची जरूरी थी। और आरडब्ल्यूए के अनुसार जांच भी। हम इस हाल में हैं। सरकार और मीडिया के साथ हममें से पढ़े लिखे लोग कोरोना को कैसे देख रहे हैं समझिए। ऐसे में कैसी जांच हुई और कैसी रोक थी? सरकार ने जो किया उसे ही काम कहते हैं? 56 ईंची लापरवाही का नतीजा देखने के लिए तैयार रहिए।

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