क्या मायावती के अकेले चुनाव लड़ने से भाजपा फ़ायदे में रहेगी ?

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बहन मायावती राजनीति में एक ऐसा नाम है जिनकी कोई थाह नहीं ले सकता है,1984 से सियासत में आयी मायावती कब क्या सोच रही होती हैं इसे उनके करीबी भी नही जान और समझ पाते हैं,यही वजह है कि वो कब क्या फैसला लेंगी ये जानना आसान नही है।

यूपी मे दो बार भाजपा के समर्थन से और एक बार सपा के साथ मिलकर सत्ता में रही बहन जी 2007 में अकेले अपने दम पर सत्ता में पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई थी,जिसने सभी को चौंका कर रख दिया था,लेकिन फिर 2012,2014,2017 और 2019 तक भी बसपा अब बहुत कुछ बेहतर नहीं कर पाई है,क्या वो 2022 में कुछ कमाल हो पायेगी, ये सवाल है।

अकेले लड़ेंगी यूपी का विधानसभा चुनाव

बहन जी ने ये ऐलान कर दिया है कि उत्तर प्रदेश का विधानसभा वो अकेले लड़ेंगी और किसी के भी साथ गठबंधन नहीं करेंगी,ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्हें ये लगता है कि सत्ता के दरवाजे तक फिर से पहुंच सकती हैं,लेकिन बीते चार चुनावों के आंकड़े तो उनकी इस आशंका से अलग कुछ और ही बयान कर रहे हैं।

2014 के लोकसभा चुनावों में देश भर में मायावती की पार्टी को 4.2 प्रतिशत वोट मिले थे जो भाजपा और कांग्रेस के बाद तीसरे नम्बर पर रह था,लेकिन यहां बसपा एक भी सीट जीतने में नाकामयाब रही थी,जो कि 1989 से लेकर कभी नहीं हुआ था,पार्टी कही न कहीं से जीत कर ज़रूर आया करती थी।

वहीं 2017 के उत्तर प्रदेश के चुनावों में पार्टी को 22 फीसदी वोट मिला था,जो तत्कालीन सत्ताधारी समाजवादी पार्टी से भी 1 फीसदी ज़्यादा था,लेकिन बसपा यहां फिर मात खा गई और उसे सिर्फ 18 सीटें ही मिल पाई थी,ये बसपा के लिए बहुत बड़ा झटका था।

दिग्गजों का पार्टी से अलग हो जाना

कांशीराम की बनाई गई बसपा में दिग्गजों की एक लम्बी फेहरिस्त थी,इसमें पूर्व मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी ,दीनानाथ भास्कर, मसूद अहमद, बरखूराम वर्मा, दद्दू प्रसाद, जंगबहादुर पटेल और सोनेलाल पटेल,राज बहादुर, आरके चौधरीजैसे नेता शामिल थे।

स्वामी प्रसाद मौर्य, जुगुल किशोर, सतीश चंद्र मिश्र, रामवीर उपाध्याय, सुखदेव राजभर, जयवीर सिंह, ब्रजेश पाठक, रामअचल राजभर, इंद्रजीत सरोज, मुनकाद अली और लालजी वर्मा यह भी एक मजबूत कड़ी थे,आज हालात ये है कि इनमें से सिर्फ मुनकाद अली पार्टी के साथ हैं।

कहा ये भी जाता रहा है कि पार्टी भी जब भी मायावती के कद के बराबर दूसरा कोई कद बढ़ने लगता है। बस उसका बसपा में काम खत्म हो जाता है,हालांकि ये कितना सच है और कितना झुट ये अलग बात है।

अब बसपा के हालात ये हो गए हैं कि कोई भी ऐसा नेता पार्टी में मौजूद नही है जो ये कह सके कि मैंने मान्यवर कांशीराम के साथ काम किया है,या मैं उनके साथ पार्टी में भी रहा हूँ, क्यूंकि पार्टी अब सभी को खुद से किसी न किसी तरह से दूर कर चुकी है।

बसपा के राजनीतिक अस्तित्व पर उठने लगे हैं सवाल

बसपा की लगातार हार,संगठन में अलग अलग तबके के चेहरों का न होना और जादुई छवि और दमख़म रखने वाला कोई भी नाम पार्टी के पास फिलहाल नही है और पार्टी शायद ऐसा कुछ करने भी नही वाली है क्योंकि वो राजनीति अपने मुताबिक करती आई है।

ऐसे मे एक वक्त में राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा रखने वाली बसपा के अस्तित्व पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं क्योंकि किसी भी राजनीतिक दल के लिए सत्ता हासिल करना सबसे ज़्यादा ज़रूरी होता है लेकिन फिलहाल के हालात में बसपा ऐसा कहीं भी करती नज़र नहीं आ रही है,तो उसके अस्तित्व पर सवाल खड़े होना जायज़ है।

लेकिन फिलहाल देखना ये है कि योगी आदित्यनाथ और अखिलेश यादव जैसे चेहरों के बीच बहन जी क्या नया कर पाती हैं और वो भी तब जब “बहुजन समाज” का नया हीरो चंद्रशेखर युवाओं को पसन्द आ रहा है उनके दिलों पर छा रहा है,ऐसे मैं बहन जी के लिए राजनीति आसान नही होने वाली है।