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नज़रिया – क्या यह सब प्रायोजित हिंसा थी ?

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उत्तर-पूर्वी दिल्ली में जो कुछ भी हुआ है उसे हिन्दू-मुस्लिम दंगा कत्तई नहीं कहा जा सकता। यह पूरी तरह से राज्य-प्रायोजित हिंसा थी। जिसमें पुलिस की उपस्थिति में, और ज्यादातर जगहों पर पुलिस की सक्रिय भागीदारी के साथ, हिन्दुत्ववादी फासिस्ट गिरोहों ने मुस्लिम बस्तियों पर हमले किये। मस्जिदों, मज़ार, मदरसे और मुस्लिम घरों-दुकानों को ही निशाना बनाया गया। कुछ जगहों पर इन बस्तियों के नौजवानों ने भी इन गुंडा गिरोहों का सामना करते हुए पथराव किये, पर मात्र इस आधार पर इसे हिन्दू-मुस्लिम दंगा नहीं कहा जा सकता। सारे हंगामों का लोकेशन मुस्लिम बस्तियाँ थीं। हमले उनपर हुए थे। आम हिन्दू या मुस्लिम आबादी में आपस में कहीं टकराव नहीं हुआ। सिर्फ़ हमलावर हिन्दुत्व ब्रिगेड के दंगाइयों के हमले हुए मुस्लिम बस्तियों पर। इन बस्तियों के आम मुस्लिम नागरिकों ने दर्ज़नों जगहों पर अपने मोहल्ले के हिन्दू परिवारों को सुरक्षा का आश्वासन दिया और कई हिन्दू बहुल इलाकों में भी हिन्दू नागरिकों ने मुस्लिम परिवारों की हिफाज़त की। पूरे शहर में अमनपसंद नागरिकों ने कई जगहों पर शान्ति मार्च निकाले।
इस राज्य-प्रायोजित हिंसा में अब तक जो 27 मौतें हुई हैं और 200 से अधिक लोग घायल हुए हैं और संपत्ति का जो नुक्सान हुआ है, वह अपवादों को छोड़कर मुस्लिम परिवारों का ही हुआ है। बर्बर दंगाई गिरोहों और पुलिस की मिलीभगत को सिद्ध करने वाले दर्ज़नों वीडियो सामने आ चुके हैं। दिल्ली सरकार द्वारा लगाए गए सी सी टी वी फुटेज अगर खंगाले जाएँ तो बात और साफ़ हो जायेगी। कई वीडियोज में पुलिस के सिपाहियों को सी सी टी वी तोड़ते हुए भी साफ़ देखा गया है। अतः एकदम साफ़ है कि सबकुछ एक सोची-समझी योजना और रणनीति के तहत हुआ है और गुजरात-2002 मॉडल को ही एक सीमित और नियंत्रित स्तर पर फिर से लागू किया गया है।
संघ और सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों ने जिस कपिल मिश्रा को मुखौटे के तौर पर इस्तेमाल किया वह अभी भी छुट्टा घूम रहा है। तमाम वीडियोज में दंगाइयों के चेहरे साफ़ पहचाने जा सकते हैं लेकिन अभी तक कोई गिरफ्तारी नहीं हुई है। जो पुलिस वाले खुद पत्थर चलाते हुए, दंगाइयों की मदद करते हुए और कुछ लोगों को बुरीतरह घायल करने के बाद उनसे राष्ट्रगान गाने को कहते हुए दीख रहे हैं, उनकी पहचान करके कार्रवाई करने की कोई बात नहीं की जा रही है।

अब हिंसा के बहाने CAA , NRC और NPR के विरोध को दबाने की कोशिश की जाएगी

अब जो शान्ति-स्थापना का नाटक हो रहा है, उसके पीछे की असलियत को भी समझा जाना चाहिए। संघ और सरकार का मक़सद ही यह था कि पहले हिंसा का तांडव रचकर मुस्लिम आबादी में आतंक पैदा किया जाए और हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के द्वारा सीएए – एनपीआर – एनआरसी के ख़िलाफ़ हो रही आम गरीब-गुरबा आबादी की लामबंदी को साम्प्रदायिक आधार पर तोड़ दिया जाए। इसके बाद जब शहर के बड़े हिस्से में धारा 144 और कर्फ्यू लग जाए तो अमन बहाली के नाम पर उन तमाम धरना-स्थलों से प्रदर्शनकारियों को बल-प्रयोग करके तितर-बितर कर दिया जाए। जो कहीं सड़क पर भी नहीं बैठे हैं। अब इस समय यही हो रहा है। बर्बर बल-प्रयोग करके पुलिस खुरेजी, खजुरी सहित 4 या 5 जगहों से प्रदर्शनकारियों को हटा चुकी है। अन्य प्रदर्शन-स्थलों पर भी यही किया जाएगा। शाहीन बाग़ में वे ऐसा नहीं कर पायेंगे अभी, क्योंकि मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। उधर उ.प्र. में योगी भी इसी नक्शे-क़दम पर चल रहा है। अलीगढ़ और बुलंदशहर सहित कई जगहों पर पुलिसिया कहर और आतंक के बाद आज पुलिस ने लखनऊ में घंटाघर प्रदर्शन-स्थल पर धावा बोला और वहाँ रखे डिटेंशन सेंटर के मॉडल को उठा ले गई, हालांकि ज़बरदस्त प्रतिरोध के कारण प्रदर्शनकारियों को हटा पाने में वह विफल रही।
राज्य-प्रायोजित दंगा फैलाकर आतंक राज्य कायम करना, हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण करना, शाहीन बाग़ जैसे सत्याग्रहों को विफल करना और अंततः आम जन की एकता को साम्प्रदायिक आधार पर तोड़कर सीएए – एनपीआर – एनआरसी के देशव्यापी जन-विरोध को विफल बनाना, यही सरकार की कुटिल चाल है। तब सवाल उठता है कि इस फासिस्ट कुचक्र को नाकाम बनाने के लिए क्या किया जाना चाहिए? पहली बात यह कि न सिर्फ़ दिल्ली में बल्कि पूरे देश में शाहीन बाग़ टाइप जो धरना चल रहे हैं, उन्हें न सिर्फ़ हर संभव कोशिश करके जारी रखना चाहिए, बल्कि दिल्ली से बाहर अन्य जगहों पर भी और ऐसे नए शाहीन बाग़ खड़े किये जाने चाहिए। गैर-भाजपा शासित राज्यों में अगर सरकारें इन्हें रोकने की कोशिश करेंगी तो जनता की नज़रों के सामने वे भी नंगी हो जायेंगी। दूसरी बात, दिल्ली में अगर ऐसे कुछ धरना-स्थलों से पुलिस जबरन लोगों को हटा देती है, तो वहाँ के लोगों को फ़ौरन शाहीन बाग़ के धरने में आकर शामिल हो जाना चाहिए। कई धरना-स्थलों के लोग इकट्ठा होकर रामलीला मैदान, इंडिया गेट या जंतर-मंतर पर बड़ा जमावड़ा भी कर सकते हैं। देश के अन्य हिस्सों में जो नए धरना-स्थल बनाए जाएँ वहाँ सड़कों को न बाधित किया जाए।

अब विरोध के तरीकों को बदलने की आवश्यकता है

लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रतिरोध को लंबा चलाने के लिए उसके फॉर्म बदले जाएँ और लोकेशन शिफ्ट किया जाए। हमें अब मुहल्लों और गाँवों-बस्तियों में जाकर सघन प्रचार करना होगा, लोगों को सी ए ए – एन पी आर – एन आर सी के चरित्र और नतीजों के बारे में बताना होगा, उन्हें यह समझाना होगा कि इनका कहर न सिर्फ़ मुस्लिमों पर बल्कि सभी आम गरीबों पर भयंकर रूप में बरपा होने वाला है. हमें मुस्लिम आबादी को भी समझाना होगा कि इसे वे सिर्फ़ मुस्लिम पहचान पर हमला न समझें, यह सभी आम नागरिकों के ख़िलाफ़ है और इस लड़ाई को धार्मिक आधार पर नहीं बल्कि सभी आम नागरिकों के हक़ पर हुए हमले के ख़िलाफ़ लड़ाई के रूप में लड़ना होगा. सबसे ज़रूरी यह है कि मोहल्ले-मोहल्ले नागरिकों की बायकाट कमेटियाँ बनाई जाएँ और कोशिश की जाए कि आगामी 1 अप्रैल से शुरू होने वाले एन पी आर का व्यापक से व्यापक बहिष्कार हो. यानी संघर्ष को अब तृणमूल धरातल पर ले जाना होगा और सत्ता और संघ की ताक़त का व्यापक जनशक्ति को लामबंद करके मुकाबला करना होगा. हम तो अपनी पूरी ताक़त लगाकर इसी दिशा में काम कर रहे हैं. अपने इलाकों के धरनों में भागीदारी के साथ ही आम जनता में व्यापक प्रचार कर रहे हैं और बहिष्कार कमेटियाँ बनाने के लिए मुहल्ला बैठकें कर रहे हैं।
इनके अतिरिक्त, दक्षिण भारत से लेकर उत्तर-पूर्व तक जैसी बड़ी-बड़ी रैलियाँ हो रही हैं, जहाँ संभव हो, वहाँ वह सिलसिला जारी रहना चाहिए, लेकिन सबसे ज़रूरी यह है कि छोटी-छोटी पदयात्राएँ निकालकर लोगों को यह बताया जाए कि न सिर्फ़ सी ए ए-एन पी आर-एन आर सी बल्कि मोदी सरकार की उन सभी विनाशकारी नीतियों के ख़िलाफ़ व्यापक जन-लामबंदी की ज़रूरत है। जो आम लोगों पर बेरोजगारी, मंहगाई, छंटनी आदि का कहर बरपा कर रही हैं, उनके सभी बुनियादी नागरिक अधिकारों को छीन रही हैं, सभी सार्वजनिक उपक्रमों और देश की अकूत संपदा को कौड़ियों के मोल पूँजीपतियों को बेंच रही हैं और अपनी साम्प्रदायिक फासिस्ट राजनीति के द्वारा देश को खूनी गृहयुद्ध की और धकेल रही हैं। दिल्ली में हमारे साथी आम नागरिकों और व्यापक मज़दूर आबादी के सहयोग से जो ‘जन-सत्याग्रह पदयात्रा’ निकाल रहे हैं, वह ऐसी ही एक पहल और प्रयोग है जिसे मिलने वाला व्यापक जन-समर्थन सिद्ध कर रहा है कि जन-जागरण के इस फॉर्म का और भी व्यापक स्तर पर देश के अन्य हिस्सों में भी इस्तेमाल किया जा सकता है।

विपक्षी दलों की खामोशी उनके चरित्र को बयान करती है

दिल्ली की राज्य-प्रायोजित हिंसा के पिछले चार खूनी दिनों ने सभी विपक्षी संसदीय दलों के चरित्र को एकदम नंगा कर दिया है। केजरीवाल की “विचारधारा-विहीन” “नागरिकतावाद” की राजनीति एकदम नंगी हो गयी और सभी भ्रमग्रस्त नेकदिल नागरिकों को भी यह बात समझ आ गयी कि यह जोकर संघ की बी टीम है और इसकी धुर-दक्षिणपंथी लोकरंजक राजनीति कुल मिलाकर संघी फासिज्म की पूरक शक्ति ही है। अन्य विपक्षी दलों के नेता भी बयान देने और ट्वीट करने से इंच भर भी आगे नहीं गए। किसी के कलेजे में यह दम नहीं था कि अपने कार्यकर्ताओं को लेकर सड़कों पर उतर सके और फासिस्ट गुंडों का सामना कर सके। दरअसल इनके पास कार्यकर्ता के नाम पर सिर्फ़ छोटे स्तर के दलाल, गुण्डे-लफंगे ही रह गए हैं और उनके दिमाग का भी बड़े पैमाने पर साम्प्रदायीकरण हो गया है।
यह कोई नयी बात नहीं है। इतिहास बताता है कि जब फासिस्ट उभार का चरमोत्कर्ष होता है, तो सभी अन्य पूँजीवादी संसदीय दल उसके आगे घुटने टेक देते हैं, उनके गेम में शामिल हो जाते हैं या बिखर जाते हैं। जो सोशल डेमोक्रेट और लिबरल बुर्जुआ हैं जो डरकर घरों में दुबक जाते हैं। आज जो अस्मिता राजनीति करने वाले टीन की तलवारों वाले लिल्ली घोड़ों पर सवार योद्धा हैं ये भी अंततः फासिस्टों की गोद में ही जा बैठते हैं। अठावले, प्रकाश अम्बेडकर, मायावती, पासवान आदि के अनेकों उदाहरण हैं। मध्य जातियों की राजनीति करने वाली जितनी क्षेत्रीय कुलक-वर्गीय क्षेत्रीय पार्टियाँ हैं, वे तो आज सेक्युलर बनती हैं और कल मौक़ा देखते ही उछलकर भाजपा की गोद में जा बैठती हैं। यानी हम्माम में ये सभी नंगे हैं और आज के हालात ऐसे हैं कि आम लोग इनका नंगापन देख भी रहे हैं। इसीलिये, यह बिलकुल उपयुक्त समय है कि विकल्पहीनता की इस स्थिति में हम जनता के बीच एक नए क्रांतिकारी विकल्प के निर्माण के कार्यभार को व्यावहारिक तौर पर प्रस्तुत करें और उसे उन विभ्रमों से मुक्त करने पर पूरा जोर लगायें, जिनका लाभ पूँजी की सेवा में सन्नद्ध तमाम राजनीतिक शक्तियाँ उठाती हैं।