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देश के लिए धर्मनिरपेक्षता और संविधान का महत्व

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एक वक्त वह भी था जहां हम भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र और विभिन्न संप्रदायों के समूहों का देश, के रूप में देख सकते थे और इस बाबत संविधान या किसी और दस्तावेज़ में किसी प्रकार की कोई घोषणा करने की कहीं जरूरत नहीं थी. ना ही किसी प्रकार के आधिकारिक ऐलान की जरूरत थी.

हम भारत को हमेशा एक धर्मनिरपेक्ष और सभी आस्था और संप्रदायों आदर करने वाला राष्ट्र के रूप में समझते थे, लेकिन 1990 के बाद कुछ घटनाक्रम इस कदर बदला है कि जिस वजह से हमें और हमारी समझ को काफी हद तक बदल दिया गया है और भारत की असल तस्वीर को भी काफी हद तक बदल दिया गया है.

विभिन्न समूह, जिसमें से कई सारी राजनीतिक पार्टियों का भी नाम है जिन्होंने या तो केंद्र में या राज्य में सत्ता हासिल की है, ने भारत को एक अलग नजरिए से देखना है और इतिहास गवाह है कि उन्होंने अपने नजरिए को कहीं ना कहीं जनता पर एकमुश्त थोपने का एक बड़ा प्रोजेक्ट भी शुरू कर दिया है. और यह ट्रेंड केवल एक पार्टी से जुड़ा हुआ नहीं है बल्कि उन सभी पार्टियों से जुड़ा हुआ है जिनकी विचारधारा कई मायनों में समायोजन वाली विचारधारा नहीं कही जा सकती है.

हाल ही में केंद्र सरकार में उद्यमिता एवं कौशल विकास मंत्री, अनंत कुमार हेगड़े का बयान बहुत चौंकाता है, उन्होंने कहा कि “भारतीय जनता पार्टी संविधान को बदलने के उद्देश्य से सत्ता में आई है”.

धर्मनिरपेक्षता और हम

अनंत कुमार हेगड़े का यह कहना था कि –
“धर्मनिरपेक्ष लोगों के रगों में उनका पैतृक खून नहीं दौड़ता है”. उन्होंने आगे कहा कि, “भारतीय जनता पार्टी संविधान को बदलने की उम्मीद से सत्ता में आई है”.
यह कहकर उन्होंने साफ कर दिया कि उनकी पार्टी धर्मनिरपेक्षता को संविधान का एक अभिन्न अंग नहीं मानती है.

इस बयान के बाद भारतीय जनता पार्टी ने खुद को इस बयान और मंत्री महोदय से दूर कर लिया है. हालाँकि भारतीय जनता पार्टी ने इस बयान को ख़ारिज नहीं किया है. इस प्रकरण के  बाद पार्टी ने कहीं से भी इस बयान की आलोचना नहीं की, ना ही किसी प्रकार से यह जताया कि उनका संविधान के प्रति विश्वास अटूट है.
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क्या सिर्फ इस बयान और और मंत्री महोदय से दूरी बना लेना काफी था?

जबकि वह बयान काफी संवेदनशील था. हालाँकि कई मायनो में मंत्री जी का बयान इसलिए भी नहीं चौंकाता है, क्यूंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े विभिन्न लोगों ने भी ऐसे ही कुछ विचारों को खुलेआम किया है, जहां पर उन्होंने अपने एकमात्र उद्देश्य को बहुत साफ किया है कि भारत को एक हिंदू राष्ट्र का दर्जा दिया जाए, जहां पर ना केवल ‘धर्मनिरपेक्षता’ जैसे शब्द को दरकिनार किया जाएगा बल्कि शायद संविधान से बाहर का रास्ता भी दिखा दिया जाए.

  • अनंत कुमार हेगड़े के बयानों के विभिन्न तात्पर्य हो सकते हैं और विभिन्न लोगों ने उनके बयान को अलग अलग तरह से लिया है. कुछ लोगों ने उनके बयान का स्वागत करते हुए यह भी कहा है कि हो सकता है अब वक्त आ गया है कि संविधान को बदलने पर चर्चा की जाए वहीं कुछ लोगों ने यह भी कहा की उनका बयान काफी डरावना है.
  • दक्षिणपंथी विचारधारा के लोगों ने ने इस बयान के बाद यह कहा की भारत कभी भी एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र नहीं था और जिस वक़्त  इस संविधान को अपनाया गया उस वक्त भी धर्मनिरपेक्ष शब्द को संविधान में नहीं जोड़ा गया था. बल्कि यह शब्द तो इंदिरा गांधी की सरकार ने 42 अमेंडमेंट के जरिए इमरजेंसी के दौरान जोड़ा था.

वह आगे यह भी कहते हैं की संविधान बनाने वाले भीमराव अंबेडकर ‘सेकुलर’ शब्द को संविधान की मूल निर्देशिका में जोड़ने के सख्त खिलाफ थे. लेकिन सोचने वाली बात यह है जब हेगड़े जी ने यह बयान दिया तो वो यह भूल गए की हमारा संविधान, धर्मनिरपेक्ष केवल मूल निर्देशिका में एक शब्द के जुड़ने से नहीं हुआ है, बल्कि वह हमेशा से एक धर्मनिरपेक्ष संविधान रहा है और खासकर के सभी मूल अधिकारों मे धर्मनिरपेक्षता निहित है.

ऐसा कोई भी प्रयास जिसके जरिए संविधान की मूल निर्देशिका से ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द हटाने की कोशिश की जाएगी, वह महज एक प्रतीकात्मक कदम ही होगा क्योंकि जैसा मैंने कहा है कि पूरा संविधान हर प्रावधान में धर्मनिरपेक्षता को परम धर्म मानता है. ऐसे हालात में एक शब्द हटा देने से हम धर्मनिरपेक्ष नहीं रह जायेंगे, यह कहना गलत होगा. इसके अलावा अदालत में भी ऐसे किसी प्रयास को संवैधानिक घोषित नहीं किया जायेगा.

हालांकि अनंत कुमार हेगड़े के बयान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता क्योंकि उनका बयान इस ओर साफ़ संकेत देता है की उक्त विचारधारा के लोगों के बीच यह निरंतर प्रयास किया जा रहा है, कि किस प्रकार संविधान में मनमुताबिक परिवर्तन किये जाएँ. यह भी संभव है कि कोई बहुत बड़ा प्रोजेक्ट इस दिशा में काम भी कर रहा हो.

यह ध्यान देने वाली बात होगी की जो उनके बयान को नकार रहे हैं और संविधान के मूल रूप से बदलाव का विरोध कर रहे हैं, उन्हें समझना होगा कि ना केवल ऐसे बयानों की कड़ी निंदा की जाए बल्कि जनता के बीच यह विचार भी आम किया जाए कि जिस प्रकार आज़ाद भारत का इतिहास रहा है, जिसमें ‘संविधानवाद’ को खासा महत्व दिया गया है, उसे किसी भी प्रकार से कम नहीं होने देना है और ऐसी किसी ताकत के द्वारा संविधान बदलने के प्रयास का जबरदस्त विरोध करना हम भारतियों का कर्तव्य होना चाहिए.

हमें जनता को यह भी समझाना होगा कि किस प्रकार से समस्त विचारधाराओं, पंथों एवं वर्गों का एक साथ मिलजुलकर रहना भारत की अखंडता के लिए बेहद जरूरी है और उसके बिना भारत राष्ट्र की परिकल्पना नामुमकिन है.

यह न केवल जनतंत्र का सार है बल्कि भारत राष्ट्र का सार भी है. यह बात सत्य है की बिहार के रहने वाले बृजेश्वर प्रसाद ने जब संविधान सभा में यह आवाज उठाई कि संविधान की मूल निर्देशिका में ‘सेक्युलर’ और ‘सोशलिस्ट’ शब्द जोड़े जाने चाहिए, तब उनका सभा ने साफ तौर पर विरोध किया था. हालांकि या समझने वाली बात है कि यह विरोध इसलिए नहीं किया गया था, संविधान सभा के सदस्यों को भारत के धर्मनिरपेक्ष होने पर किसी प्रकार का कोई संदेह था बल्कि यह विरोध इसलिए किया गया था, क्योंकि सदस्यों को ऐसा भरोसा था की ‘सेक्युलर’ शब्द लिखे बिना भी संविधान को और भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में देखा जाएगा.
उनके अनुसार किसी भी जनतंत्र में जहां पर सभी नागरिकों को समान अधिकार दिए जा रहे हैं, जहां पर सभी के वक्तव्य की सामान स्वतंत्रता है, और जहां पर सभी धर्मों को सांस लेने की आजादी है वहां कोई भी राष्ट्र किसी भी प्रकार से अ-धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकता अर्थात ‘अन-सेक्युलर’ करार नहीं दिया जा सकता है.

धर्मनिरपेक्षता एक आदर्श के रूप में, संविधानवाद के मूल ढांचे पर टिका है और इसे समझने के लिए हमें अपने मूलभूत अधिकारों की ओर नजर डालनी चाहिए. क्या ऐसा हो सकता है कि किसी राष्ट्र में व्यक्ति को किसी भी धर्म में आस्था रखने की स्वतंत्रता हो लेकिन विभिन्न धर्मों के व्यक्तियों को समान अधिकार ना दिए जाएँ? यह समझने के लिए कि भारत में धर्मनिरपेक्षता के क्या मायने, हमें पूरे संविधान को इक्कट्ठे पढ़ना होगा.

संविधान सभा में इस बात को लेकर कोई विवाद नहीं था कि धर्मनिरपेक्षता के दो पहलू होते हैं, एक वह जहां पर राष्ट्र और धर्म के बीच एक दीवार होती है और दूसरा वह जहां पर राष्ट्र सभी धर्मों को समान अधिकार और आदर देगा. और अगर भारतीय संविधान के बनने के पूरे सफर को देखा जाए यह समझ में आता है क्यों सभा के सदस्यों ने दूसरे प्रकार की धर्मनिरपेक्षता को भारत के लिए उचित समझा.

प्रसिद्ध राजनीतिक विश्लेषक शेफाली शाह कहती है कि हमें संविधान के सपने को समझने के लिए के. एम्. मुंशी की बातों को सुनना चाहिए जिन्होंने कहा था-

“कि जिस प्रकार से अमेरिका में धर्मनिरपेक्षता को समझा जाता है वह भारत के परिस्थितियों के हिसाब से सही नहीं है, इसलिए हमें भारतीय-धर्मनिरपेक्षता ईजाद करना होगा. भारत राष्ट्र में जिस प्रकार से लोगों की धर्म के प्रति विशेष आस्था रहती है और दूसरे धर्मों के लिए सम्मान भी रहता है, उसका सम्मान होना चाहिए इसलिए भारत में राष्ट्र और धर्म के बीच कोई दीवार नहीं होनी चाहिए जिस प्रकार से राष्ट्र और चर्च के बीच में अमेरिका में एक दीवार है .”

राजीव भार्गव भी इस बात को मानते हुए कहते हैं –

कि भारत में राष्ट्र और धर्म के बीच में उचित दूरी जरूर है. लेकिन इसका यह मतलब बिलकुल नहीं है कि राष्ट्र, धर्म के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता. हालाँकि वह हस्तक्षेप संविधान में लिखें दायरों के अंतर्गत ही होना चाहिए. हम इस बात पर अवश्य बहस कर सकते हैं की राष्ट्र को किस हद तक धर्म के मामलों में हस्तक्षेप का अधिकार होना चाहिए.

हम इस बात पर भी चर्चा कर सकते हैं की क्या सामान सिविल संहिता का विचार भारतीय धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ जाता है? लेकिन एक बात अवश्य है की भारत राष्ट्र में जिस प्रकार से विभिन्न पंथों और विचारधाराओं को समायोजित रूप से जगह दी गयी है उसे किस भी प्रकार से नष्ट नहीं किया जा सकता और अगर इसे ऐसे ही बने रहना है तो धर्मनिरपेक्षता के विचार को किसी भी प्रकार से मिटना नहीं होगा. हमे सरकार की तरफ से किसी भी ऐसे प्रयास का विरोध करना होगा जिसमे धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की पहचानों को मिटाया जाए.

(यह लेख मूल रूप से अंग्रेज़ी भाषा में लिखा गया था, जिसे ‘सुहरिथ पार्थसार्थी’ ने ‘द हिंदू’ अखबार के लिए लिखा था, क़ानून विशेषज्ञ सुहरिथ मद्रास हाईकोर्ट में वकालत के कार्यों को अंजाम देते हैं )