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‘कोरोना-कोरोना’ के इस कोरस पर तो न हंसी आती है, न ही रोया जाता है!

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मौत का एक दिन मुअय्यन है, नींद क्यों रात भर नहीं आती? मिर्जा गालिब ने अपनी इतिहास प्रसिद्ध गजल में यह सवाल पूछा तो चिकित्सा वैज्ञानिक ही जानें कि कोरोना वायरस हुआ करता था या नहीं। हम तो पक्के तौर पर इतना ही जानते हैं कि हुआ भी करता हो तो, उसकी पहचान करने वाली प्रयोगशालाएं नहीं थीं। वरना कोई संक्रमित न सही, संक्रमण के अंदेशे से हलेकान शख्स ही आगे आकर जरूर कह देता उनसे, कि जनाब, नींद आये भी तो कैसे, यह कोरोना है न, नाशुक्रा, न जीने दे रहा है न मरने। तिस पर आपकी इसी गजल के एक और शेर के मुताबिक इससे निपटने की ‘कोई उम्मीद बर नहीं आती, कोई सूरत नजर नहीं आती।’ कहा जा रहा है कि इसका कोई इलाज ही नहीं है।
बहरहाल, गालिब से छुटकारा लेकर अपने वक्त में लौटें तो हम देख रहे हैं कि यह वायरस भले ही घोषणा करके नहीं आया, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसको महामारी घोषित करने में देर नहीं लगाई है। अपने राम समझ नहीं पा रहे कि इसका उद्देश्य क्या है और हासिल क्या? अगर उससे निपटना तो क्या इसके लिए यों लोगों की नींदें उड़ा देना जरूरी था?
याद आता है, कुछ साल पहले तक यही विश्व स्वास्थ्य संगठन एड्स को लेकर हाय-तौबा मचाये हुए था। इस तरह कि जैसे अब यह दुनिया नहीं, एड्स ही रहेगा। लेकिन अब उसने एड्स को छोड़  कोरोना का रोना शुरू कर दिया है, तो उसके पैरोकार चिकित्सा वैज्ञानिक कह रहे हैं कि इस वायरस की माकूल दवा के लिए भी डेढ़ साल इंतजार करना होगा। हम नहीं कहते कि वे गलत कह रहे होंगे। हम तो उन्हें भी गलत नहीं कह रहे, जो दावा कर रहे हैं कि यह बीमारी या महामारी नहीं, विस्तारवादी चीन का बनाया जैविक हथियार है।
हमारे निकट डेढ़ सालों के इन्तजार में भी कोई बुराई नहीं थी, बशर्ते प्रेमचन्द की वह बात न याद आने लगती कि अनाज उगाने वाले किसान कभी अकाल की कामना नहीं करते। वे चाहते हैं कि उनके ही नहीं, सबके खेतों में अनाज की इतनी उपज हो कि हर किसी के सारे बखार उनसे भर जाये। लेकिन धंधेबाज हमेशा यही मनाते हैं कि ऐसा अकाल पड़े कि वे अपने गोदामों में भरा अनाज रिकार्डतोड़ कीमत पर बेच सकें।
इसलिए सवाल पूछने का मन होता है, कि विश्व स्वास्थ्य संगठन और उसके चिकित्सा वैज्ञानिक किसानों के बजाय धंधेबाजों की भूमिका में क्यों दिख रहे हैं? ढाढ़स बंधाने के बजाय हाहाकार का ऐसा घटाटोप क्यों रच रहे हैं, कि जो धरतीवासी कोरोना के संक्रमण से बचें, वे उसके अंदेशों से।
ऐसे में धड़ाम होते जा रहे उन शेयर बाजारों की तो बात भी क्या की जाये, जो सुनामी आती है तो ऐसे उछल जाते हैं, जैसे कोई बड़ा वरदान मिल गया हो उन्हें। एक ओर कहा जा रहा है कि कोरोना से संक्रमित होने वालों में तीन प्रतिशत को भी जान का खतरा नहीं है। है भी तो उन बड़े-बूढ़ों को ही है जो संक्रमण के बाद पर्याप्त एहतियात नहीं बरतते। दूसरी ओर ऐसी चिल्लपों मचायी जा रही है, कि जैसे इससे देश के देश वीरान होने जा रहे हैं और दुनिया दुनिया नहीं रह जाने वाली है। दुनिया के चौधरी अमेरिका तक में इमर्जेंसी घोषित कर दी गई है और कोरोना प्रभावित देशों में रात भर नींद न आने से परेशान विदेशी नागरिक अपने-अपने देशों की सरकारों से ‘हमें स्वदेश ले चलिए और बचाइये’ की गुहार लगा रहे हैं! कायर कहीं के, मुनाफा कमाना था तो वह देश अपना था और अब।
इधर अपने भारत में सर्वाधिक प्रभावित चीन और ईरान में भी ज्यादा हायतौबा मच रही है, जबकि हमारे लिए यह कोई पहली महामारी नहीं है। नाम लेने की जरूरत नहीं, हमने जानें कितनी महामारियों को जन्मते और समाप्त होते देखा है। हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पहले तो भारतीय संस्कृति की हाथों को मिलाने के बजाय उन्हें जोड़कर नमस्ते करने की परम्परा की दिग्विजय पर छाती फुला रहे हैं, फिर डरकर होली मिलने से भी मना कर दे रहे हैं। पता नहीं क्यों भूल जा रहे हैं कि परम्परा तो हमारे यहां गले मिलने की भी रही है। गले पड़ने की भी। विदेशयात्राओं, पर्यटनस्थलों, स्कूल-कालेजों, खेलों, माॅलों और सिनेमाघरों वगैरह को ठप कराकर ‘पर उपदेशकुशल बहुतेरों’ की तरह उन लोगों को, जो कतई नहीं डरे हैं, बड़ी-बड़ी महामारियों से नहीं डरा करते, समझा रहे हैं कि डरिये मत, एहतियात बरतिये। पड़ोसियों को यह बात बताने के लिए वीडियो कांफ्रेंसिंग कर रहे और इमर्जेंसी फंड बना रहे हैं।
इससे बेहतर होता कि वे अपनी सरकार के साथ उन राज्य सरकारों को समझाते जो कोरोना से निपटने के नाम पर और कुछ तो कर नहीं रहीं, डर, घबराहट, हड़बड़ी, अफरा-तफरी और चिन्ताएं ही बढ़ा और फैला रही हैं। वे कर भी क्या सकती हैं, जब नीति के तौर पर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को बदहाल कर सबकुछ मुनाफाखोर निजी क्षेत्र के हवाले किया जा चुका है, जो इलाज के नाम पर लोगों को लूट ही नहीं रहा, मौका पाते ही, उनकी किडनी और गर्भाशय तक निकाल ले रहा और उनका व्यापार कर रहा है। स्वाभाविक ही उसकी दिलचस्पी कोरोना से लड़ने में कम, उसके भय का फायदा उठाने में ज्यादा है।
और भय तो ऐसा फैला दियाा गया है, कि आम लोग अपनी प्रवृत्ति और व्यवसाय या आजीविका से जुड़े ऐसे जरूरी काम भी निश्चिंत होकर नहीं कर पा रहे, जो कहीं समूह में एकत्र होकर सम्पादित करते हैं। और तो और, जो हमें इंसाफ देते हैं, वे सुप्रीम और हाईकोर्ट भी डरकर ‘जरूरी मामले’ ही निपटा रहे हैं।
साफ कहें तो कोरोना की सारी दहशत का कारण ये सरकारें ही हैं। वे नागरिकों में आत्मविश्वास बढ़ाने और बनाये रखने के जतन करने के बजाय ऐसा माहौल बना रही है कि जैसे कोरोना ऐसा काल है जिससे किसी भी विधि से पार नहीं पाया जा सकता। ऐसा ही रहा तो आश्चर्य नहीं कि हम कोरोना के प्रकोप से ज्यादा चीजें उसके डर से खोदें। किसे नहीं मालूम कि जो देश या समाज डर के पार जाने या उससे लड़ने का साहस नहीं कर पाते, उनका भविष्य कैसा होता है? क्या जीत हमेशा डर के आगे ही नहीं हुआ करती?
लेकिन यह बात उन्हें कौन समझाये जो गोबर व गोमूत्र को कोरोना के बचाव का रामबाण उपाय बताने के लिए आगे आकर कोढ़ में खाज पैदा कर रहे हैं। चिकित्सा विज्ञान उनके दावों की पुष्टि करे या न करे, उनकी बला से। वे इस महामारी के वक्त भी संसार को पीछे की ओर घसीट ले जाने का अपना गर्हित एजेंडा भूलने को राजी नहीं हैं। यह भी नहीं समझते कि अज्ञान पर आधारित अंधविश्वास अंधकार की ओर ले तो जा सकते हैं, अंधेरे से निकालने में सफल नहीं होते। तिस पर इस महामारी से बचने के लिए कुछ महानुभावों द्वारा हर किसी को मास्क पहनने का गैरजरूरी परामर्श दिया जा रहा है, तो उनके विक्रेता इनकी कमी बताकर स्थिति का अनुचित लाभ उठाने पर तुले हुए हैं। समाचार माध्यम हैं कि वे संक्रमितों की रोज बढ़ती संख्या तो गिना रहे हैं, मगर यह नहीं बता रहे कि हमारे देश में जैसे-जैसे सूरज गरमायेगा, कोरोना असहाय होकर रह जायेगा। तब हर कोई उसे अंगूठा दिखायेगा।
फिलहाल, विघ्नसंतोषियों का सुभीता यह है कि विभिन्न मान्यताओं, विचारों और विश्वासों में बंटे इस विश्व में अभी कहीं और से भी ऐसा संदेश नहीं मिल पा रहा कि ‘घबराइये नहीं, हम कोरोना रोकने व खत्म करने में जरूर कामयाब होंगे।’ कहीं से इस सवाल का जवाब भी नहीं मिल रहा कि क्या कोरोना के डर से घरों में कैद होते जाना ही उसका एकमात्र प्रतिकार है? खासकर जब हमारे जीवन की प्रायः सारी गतिविधियां इस जगत से ही जुड़ी हैं और हम उसे अछूत करार देकर अपना जीवन नहीं चला सकते।
मिर्जा गालिब आज हमारे बीच होते तो ‘कोरोना-कोरोना’ का यह रोना सुनकर हंसना और रोना दोनों भूल जाते। अपने ये शे’र भी-पहले आती थी हाल-ए-दिल पे हंसी, अब किसी बात पे नहीं आती। हम जहां हैं, वहां से हमको भी, कुछ हमारी खबर नहीं आती।