साबुन-शैम्पू और टूथपेस्ट में झाग की उम्मीद बताती है, कि आपका मस्तिष्क भी नियंत्रण में हैं

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साबुन और शैंपू में झाग की आवश्यकता नहीं होती। लेकिन इसके बावजूद प्रोडक्ट निर्माता साबुन और शैंपू में ऐसे रसायन मिलाते हैं जिससे झाग बने, क्योंकि लोग जब नहाते और बाल धोते हैं तब उन्हें झाग निकलने की उम्मीद होती है। ये उम्मीद उनके अवचेतन में विज्ञापनों के माध्यम से बैठा दी गई है। जब झाग नहीं निकलते या कम निकलते हैं तो लोग उस साबुन और शैंपू को अगली बार नहीं खरीदते। साबुन और शैंपू की बिक्री के लिए उसमें झाग का बनना एक अनिवार्य गुण है जबकि उससे कोई भी फायदा हमें नहीं होता है। एक गैरजरूरी गुण को प्रोडक्ट का सबसे महत्वपूर्ण बना दिया गया है।
ऐसा ही टूथपेस्ट के साथ भी होता है कि दांतों को साफ और स्वस्थ रखने के लिए झाग की कोई उपयोगिता नहीं है। लेकिन फिर भी सभी कंपनियां इनमें आयुर्वेदिक कंपनियां भी शामिल है अपने टूथपेस्ट में सोडियम लॉरेथ सल्फेट मिलाती है जिससे कि मुंह में झाग उत्पन्न होते हैं। टूथपेस्ट इस्तेमाल करते समय लोग अपने मुंह में झाग के उत्पन्न होने की उम्मीद करते हैं और जब कोई टूथपेस्ट यह काम नहीं करता तो लोगों को अच्छा महसूस नहीं होता। उन्हें लगता है कि उनके दांत ठीक से साफ नहीं हुए हैं और कीटाणुओं का पूरा सफाया नहीं हो पाया है। वह ऐसा तब तक महसूस करते हैं जब तक कि किसी बहुत सारे झाग उत्पन्न करने वाले टूथपेस्ट से ब्रश ना कर लें। दाँतो में सनसनी होने को भी लोगों के अवचेतन में बैठा दिया गया है। अगर टूथपेस्ट करने से दांतों, मसूड़ों और मुंह में सनसनी ना हो तो भी लोगों को लगता है यह टूथपेस्ट बेकार है या इसमें कोई दम नहीं है और लोग उस टूथपेस्ट को खरीदना बंद कर देते हैं।
मतलब जो उपयोगी ही नहीं है ( कई विशेषज्ञ तो इस झाग को दांतों, त्वचा और बालों के लिए हानिकारक भी मानते हैं) वह सबसे महत्वपूर्ण गुण बना दिया गया है विज्ञापनों द्वारा। हमारे मस्तिष्क को हमारे ना चाहते हुए भी बदल दिया गया है। चार्ल्स डी. अपनी किताब ‘पॉवर ऑफ हैबिट’ में बताते हैं कि आदतों को न्यूरोलॉजिकल स्तर पर इच्छाएं पैदा करती हैं। कई बार यह इतनी धीमी गति से पैदा होती है कि लोग इसके अस्तित्व से अंजान रहते हैं। परिणाम स्वरूप हम इसके प्रभाव से अनभिज्ञ रहते हैं और इस आदत को सत्य समझने लगते हैं। लोगों को कुछ सपने दिखाकर या उम्मीद जगाकर उनके अंदर कोई भी आदत विकसित की जा सकती है। अमेरिका में महिलाओं को ‘पॉमऑलिव’ साबुन खरीदने के लिए यह कहकर विज्ञापनों में आकर्षित किया गया था कि इस साबुन को स्वयं प्राचीन मिस्र की मशहूर रानी क्लियोपैट्रा (उन्हें विश्व की सबसे सुंदर स्त्री माना जाता था) भी इसी साबुन से नहाती थी और इसी के कारण वे इतनी सुंदर थी अर्थात उनकी सुंदरता का कारण यह साबुन था। उनके दावों का उस वक्त के इतिहासकारों ने बहुत विरोध किया लेकिन उनका विरोध महिलाओं में जागी सुंदर बनने की उम्मीदों के आगे हार गया और पॉमऑलिव साबुन लोकप्रियता के शिखर पर विराजमान रहा।
हमारी आदतें ऐसे नहीं बदलती वह हमारे मन में क्रांतिकारी बदलाव की अपेक्षा रखती है और उन्हें क्रांति के अलावा कोई नहीं बदल सकता। याद रखें आदतें हमारी आज्ञा की प्रतीक्षा नहीं करती वे हमारी आज्ञा के बिना भी विकसित की जा सकती हैं। और हम देख रहे हैं की वे विकसित की जा रही हैं… रोजाना हर विज्ञापन के साथ। हमारा दिमाग आलसी होता है। वह हमेशा काम करने के कम मेहनत वाले तरीके ढूंढता रहता है। दिमाग हर प्रक्रिया को आदत बना सकता है क्योंकि इससे दिमाग के बाकी हिस्सों का आराम मिलता है, क्योंकि रोज़ाना सोच समझकर सारे काम करने से सोचिए इसे कितनी मेहनत करना पड़ती, हर वक़्त आपको सचेत रखना पड़ता। जूते के फीते बांधने से लेकर कार चलाने तक सभी काम को बहुत ध्यान से करना पड़ता… रोज़ाना! इन आदतों के निर्माण के लिए दिमाग का एक महत्वपूर्ण हिस्सा काम करता है जिसका नाम है ‘बेसल गैंगलिओन’। यही दिमाग का वह भाग है जिसपर मल्टीनेशनल कंपनियों, विज्ञापन निर्माताओं और राजनेताओं की नज़र है। थोड़ा संभालकर रखियेगा इसे पाठकों, क्योंकि कोई आपको आदतों का गुलाम बना सकता है।

~डॉ अबरार मुल्तानी
लेखक, चिंतक और चिकित्सक