नज़रिया – सूरत अग्निकांड दुःखद है और इसका दोष हम सब पर है

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गुजरात के सूरत शहर में कल एक बुरा हादसा हुआ। एक कोचिंग इंस्टिट्यूट जो एक मकान की चौथी मंजिल पर है, वहां आग लग गयी और इस हादसे में 20 बच्चे, कुछ जल कर तो कुछ भवन से जान बचाने के लिये कूद कर मर गये।  मृत्यु के बाद शुरू हुआ शोक संवेदनाओं और सरकार पर लानत भेजने का सिलसिला। यह दो कार्य हम बड़ी ही गंभीरता से करते हैं। मृत्यु भी अगर निकट परिजन की न हो तो वह बहुत दुखी भी नहीं करती है। पर अगर वही मृत्यु असामयिक, अप्रत्याशित और दुर्घटनाजन्य हो तो पूरी रात, वह खबर, और वीडियो अजदहे की ग्रसे रहते हैं। सूरत का हादसा ऐसा ही एक हादसा है।
पुलिस विभाग की अपनी ट्रेनिंग के दौरान 1980 में हम एक सप्ताह के लिये लखनऊ में अग्निशमन विभाग से सम्बद्ध थे। उत्तर प्रदेश में अग्निशमन विभाग एक अलग विभाग होते हुये भी, पुलिस विभाग का ही एक अंग होता है। एक एचएन मिश्र जी हजरतगंज लखनऊ के अग्निशमन विभाग के मुख्य अग्निशमन अधिकारी सीएफओ  थे। तब लखनऊ में बहुमंजिली इमारतें बनना शुरू ही हुयी थी। तीन बड़ी सरकारी इमारतें बहुत प्रसिद्ध थीं। वे हैं, शक्ति भवन, इंदिरा भवन और जवाहर भवन। दो और इमारतें भी उस समय बन गयीं थी, एक सचिवालय एनेक्सी और दूसरी जनपथ की बिल्डिंग। मिश्रा जी ने ट्रेनिंग में सब कुछ जो वे सिखा सकते थे, सिखाया, और जब ट्रेनिंग खत्म होने को हुयी तो यह बताया कि अगर इन इमारतों की सबसे ऊपर की मंज़िल पर आग लग जाय तो वह लाक्षागृह ही बन जायेगा। हम लाख कोशिश कर के भी शायद ही किसी को बचा पाए। कारण भी उन्होंने बता दिया कि उनके पास न आधुनिक सीढियां हैं और न ही बचाव के साधन हैं, और न ही आधुनिकीकरण के लिए अग्निशमन विभाग को सरकार कोई सुविधा देती है। यह बात पुरानी है।
तब से लेकर अब तक लखनऊ ही नहीं बल्कि यूपी के लगभग सभी बड़े शहरों में बहुमंजिली रिहायशी, और दफ्तर तथा मॉल आदि बन चुके हैं। वक़्त के साथ अग्निशमन विभाग को भी समृद्ध किया गया। पुलिस आधुनिकीकरण की एक नयी व्यवस्था बनी और साल दर साल पुलिस की वाहन व्यवस्था और संचार साधन सुदृढ हुए। आवास बने। अग्निशमन विभाग भी इस तरक़्क़ी से मुक्त नहीं रहा। वहां भी जापान से नयी एम्बुलेंस और बड़ी सीढ़ियों वाली गाड़ियां आ गयी है। यह प्रगति मैं उत्तर प्रदेश के अग्निशमन विभाग के संदर्भ में बता रहा हूँ, न कि गुजरात के संदर्भ में। गुजरात मे इस विभाग का क्या हाल है यह तो गुजरात सरकार या गुजरात के ही कोई ही बता पाएंगे। लेकिन पुलिस आधुनिकीकरण का बजट भारत सरकार का बजट है तो निश्चय ही वहां भी बदलाव आया होगा।
आग लगने पर सबसे पहले अग्निशमन विभाग ही जनता के निशाने पर आता है। आग भी रोज तो लगती नहीं है, पर जब लगती है तो वह सरकार और तंत्र को बेपर्दा कर जाती है। सूरत हो या देश का कोई भी बड़ा शहर, चारों महानगरों को भी उसमें शामिल कर लीजिये तो, लगभग हर शहर के हर महत्वपूर्ण स्थान पर खड़ी अट्टालिकाएं उस शहर के म्युनिसिपल कानून को चुनौती देती नज़र आएंगी। शायद ही कोई ऐसी इमारत हो जो म्युनिसिपल नियम कानूनों के अनुसार बनी हो। कानून के प्रति अवज्ञा का भाव तो हमारी आदत में शुमार हो ही गया है । अगर अनुमति तीन मंजिल की है तो बिल्डिंग पांच मंजिल बनेगी, अगर पार्किंग बेसमेंट में पास है तो वहां दुकानें नज़र आएंगी और गाड़ियां आधी सड़क घेर कर खड़ी हो जाएंगी। अग्निशमन के लिये फायर हाइड्रेंट की जगह कोई न कोई इमारत का खम्भा खड़ा मिलेगा और अगर कोई फायर हाइड्रेंट सुरक्षित नज़र आ भी गया तो उसकी टोंटी ही जाम मिल जाएगी। मैंने अपने सेवाकाल में आग लगने पर फायर हाइड्रेट को सूखे और अतिक्रमण के कारण फायर ब्रिगेड की गाड़ियों को घटनास्थल से दूर खड़े परेशानहाल देखा है। आग की लपटें फैल रही हैं, काला धुंआ, आसमान पर छा रहा है, पर वहां तक पहुंचने का साधन नहीं है और जुगाड़ ढूंढा जा रहा है।
ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि भवनों के लिये कानून नहीं बने हैं और उन कानूनों को लागू करने के लिये अफसर नहीं नियुक्त हैं। कानून भी हैं, उन्हें लागू करने के लिये अफसर भी हैं, और कानूनों को मुंह चिढ़ाती हुयी लुभावने विज्ञापनो से सजी धजी अट्टालिकाएं भी हैं। पचास के दशक में, विकास प्राधिकरणों के गठन का उद्देश्य यह था कि एक नियोजित और नागरिक सुविधा सम्पन्न नगर बसाए जाएं। जैसा कि 2014 के सत्तारूढ़ दल के वादे में 100 स्मार्ट सिटी के वायदे थे। 1957 में दिल्ली विकास प्राधिकरण का गठन हुआ और उसके बाद लगभग सभी बड़े शहरों में विकास प्राधिकरण गठित हुए,  जो उस नगर विशेष के विकास के लिये प्लानिंग और उसके क्रियान्वयन का काम करते हैं। इनमे इंजीनियर, टाउन प्लानर, आर्किटेक्ट और प्रशासनिक सेवाओं के भी अधिकारी होतें हैं और भवन तथा नगर का विकास तयशुदा नियमो के अनुसार हो रहा है या नहीं इसे देखने के लिये वे जिम्मेदार होते हैं। विकास प्राधिकरण नगर निगमों के क्षेत्राधिकार में नहीं होते। नगर का नियोजन और विकास के बाद नगर का वह भाग नागरिक सुविधाओं, सड़क, जलकल और सीवर आदि की देखभाल के लिये नगर निगम को सौंप दिया जाता है। नगर प्रमुख और पार्षदों का कोई सीधा नियंत्रण विकास प्राधिकरणों पर नहीं होता है। इसी प्रकार की व्यवस्था सूरत नगर में भी होगी। हो सकता है वहां स्थानीय नियम कानून थोड़े बहुत परिवर्तित हों, पर नक़्शे, पार्किंग, फायर क्लियरेंस आदि के म्युनिसिपल कानून मोटे तौर पर एक ही जैसे होंगे।
क्या सूरत में वहां के नगर निगम या विकास प्राधिकरण, जो भी म्युनिसिपल कानूनों को लागू करने के लिये जिम्मेदार है, उनसे यह नहीं पूछा जाना चाहिये कि वह भवन जिसमें कोचिंग चल रहा था, क्या नियमों के अनुसार बना है ? अगर नहीं बना है तो यह किसकी गलती है ? भवन मालिक और कोचिंग संचालक तो पकड़ा गया है, और वह तो दोषी है ही, पर उक्त भवन जो नियमो के अनुसार ही बने, यह सुनिश्चित करने के लिये जो अफसर नियुक्त था उसके खिलाफ क्या कार्यवाही हुयी ? मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि देश मे शायद ही कोई बहुमंजिली इमारत शत प्रतिशत म्युनिसिपल कानून के अनुसार ही बनती हो। मैं 100 गज, 150 गज और 200 गज में बने मकानों को शामिल नहीं कर रहा हूँ। हालांकि वे भी दोषमुक्त नहीं हीं होंगे। सूरत भी अपवाद नहीं होगा। अग्निशमन की तो नियमित और नियमो के अनुसार व्यवस्था शायद ही किसी महत्वपूर्ण इमारत में मिले तो मिले अन्यथा यह सबसे उपेक्षित आवश्यकता मानी जाती है। इसका कारण है, हम यह मान बैठते हैं कि, अरे आग कहां लगती हैं। जब लगेगी तो देखा जाएगा।
आग रोज नहीं लगती है पर जब लगती है तो तंत्र को बेनकाब कर जाती है। एक साथ अग्निशमन, पुलिस और अस्पताल इन तीनो के लिये यह बेहद इमरजेंसी के क्षण होते हैं। पर तभी पता लगता है कि फायर हाइड्रेंट सूखे हैं, फायर एक्सटेंगयुशर काल बाधित हो गए हैं, फायर मैन तो हैं पर भवन के ऊपरी मंज़िल पर चीखते बच्चों की आवाज़ों तक पहुंचने का कोई साधन नहीं है, एम्बुलेंस भी भरपूर नहीं है, अस्पताल, अगर यह हादसा महानगरों में नहीं है तो क्या पता वहां बर्न यूनिट और डॉक्टर भी न हों। पुलिस तो उस भीड़ को नियंत्रित करने में लग जाती है जो अपनी मोबाइल से वीडियो शूट करने और सबसे पहले सोशल मीडिया पर कौन अपलोड करता है की डिजिटल प्रतियोगिता में लग जाते हैं।
हर हादसा भूल जाता है। सूरत हादसा भी एक न एक दिन भूल ही जायेगा । दिमाग का सॉफ्टवेयर ही ऐसा है कि वह कुछ दिन बाद सारे हादसे भुला देता है। आप को उपहार सिनेमा हॉल का हादसा याद होगा। 13 जून 1997 को दिल्ली में उपहार सिनेमा हॉल में बॉर्डर फ़िल्म चल रही थी कि आग लग गयी और 59 लोग जल कर मर गए थे। उपहार सिनेमा के मालिक सुशील अंसल को अंततः लापरवाही पूर्ण हत्या के कृत्य के लिये दो साल की सज़ा मिली। 13 जून 1997 के अग्निहत्याकांड में सुप्रीम कोर्ट से अंतिम फैसला  5 मार्च 2014 को हुआ। वह भी तब जब उस मुक़दमे की पैरवी जमकर की गयी। पर हर अग्निकांड की ऐसी पैरवी न तो होती है और न ही कच्छप गति से चलने वाली न्यायिक प्रक्रिया से उतना धैर्यपूर्वक कोई लड़ सकता है। इस मुक़दमे की कार्यवाही गूगल कीजिए और पढिये तो आप पाएंगे कि आप एक ऐसे तंत्र में बेबस से हैं कि सीधे नियतिवाद पर ही जाकर टिक जाते हैं।
हम सब यह उम्मीद करें कि सूरत जैसा हादसा कही और न हो। पर क्या सरकार इस हादसे के बाद एक अभियान के अंतर्गत देश के लगभग सभी बड़े शहरों में स्थित सभी बहुमंजिली इमारतों की जांच करा कर नक़्शे के विपरीत बने निर्माण को तुड़वा कर, निर्धारित मापदंड और कानून के अनुसार नियमित कराएगी ? पुलिस, अग्निशमन, अस्पताल आदि ऐसे विभाग हैं जो आपात स्थिति में ही याद आते हैं। पर आफत कब आ जाय कहा नहीं जा सकता है। जैसे सूरत में कोचिंग संस्थान का वह भवन है वैसे ही कानपुर में भी कोचिंग हब है। यहां के काकादेव क्षेत्र में बड़े बड़े कोचिंग संस्थान हैं। सूरत की घटना के बाद आज के हिंदुस्तान में यह खबर छपी है कि अगर सूरत जैसा हादसा यहां कभी हुआ तो वह सूरत से भी अधिक जानलेवा होगा। सरकार को अग्निशमन के ही दृष्टिकोण से नहीं बल्कि एक नियोजित और स्वस्थ नगर के विकास के लिये अपने तंत्र को सजग करना होगा जिससे नगर नागरिक सुविधाओं से लैस और रहने लायक बन सकें। स्मार्ट सिटी अभी कल्पना में है और वह केवल वादा है। बजट तक उसके लिये अभी बहुत कम स्वीकृति हुए हैं। पर जो शहर पहले से ही हैं उन्हें स्थापित कानूनों के अनुसार ही नियमित और नियंत्रित कर के बेहतर बनाया जा सकता है। सूरत हादसे की जिम्मेदारी सभी सम्बंधित विभागों पर जांच करके तय की जानी चाहिये, और जो दोषी हों, चाहे वे कितने भी महत्वपूर्ण पद पर रहे हों या हैं, उन्हें दंडित किया जाना चाहिये । मृतक बच्चों के परिवार को सरकार ने चार लाख रुपये का मुआवजा देने की पेशकश की है पर काश, धन सभी दुखो को भुला पाता। होनहार बच्चों के असामयिक और दुखपूर्ण निधन पर मेरी शोक संवेदना । जब तक कानून के अवज्ञा का भाव हम सबके मन मे रहेगा हम ऐसी श्रद्धांजलि देने के लिये अभिशप्त बने रहेंगे।

© विजय शंकर सिंह